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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 17ब - संसार दु:ख का मूल कारण - मिथ्यात्व

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    तत्वों पर यथार्थ श्रद्धान नही होना ही मिथ्यात्व है अथवा सच्चे देव, शास्त्र, गुरू पर श्रद्धान न करना या झूठे देव, शास्त्र गुरु का श्रद्धान करना मिथ्यात्व है।

    विपरीत या गलत धारणा का नाम मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के उदय से जीव को सच्चा धर्म नही रुचता है। जैसे-पित्त के रोगी को दूध भी कड़वा लगता है।

    मिथ्यात्व के दो भेद होते हैं- गृहीत एवं अगृहीत।

    1. गृहीत मिथ्यात्व - पर के उपदेश आदि से कुदेवादि में जो श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है, उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं।
    2. अगृहीत मिथ्यात्व - अनादिकाल से किसी के उपदेश के बिना शरीर को ही आत्मा मानना व पुत्र, धन आदि में अपनत्व करना, अगृहीत मिथ्यात्व है।

     

    मिथ्यात्व के पाँच भेद भी होते हैं।

    1. विपरीत - जीवादि पदार्थों में विपरीत मान्यता एवं अधर्म को धर्म मानना ही विपरीत मिथ्यात्व है। जैसे - शरीर को ही आत्मा मानना।
    2. एकान्त - जीवादि पदार्थों में पाये जाने वाले अनेक धर्मों में से एक धर्म को ही स्वीकार करना एकान्त मिथ्यात्व है। जैसे पदार्थको नित्य मानना ।
    3. विनय - सच्चे देव, शास्त्र, गुरु, एवं अन्य मिथ्या देव, शास्त्र, गुरु, को समान मानना विनय मिथ्यात्व है। जैसे अरिहंत देव तथा अन्य देवों की समान विनय करना।
    4. संशय - सद्-असद् धर्म में सच्चे धर्म का निश्चय नही होना संशय मिथ्यात्व है। जैसे स्वर्ग-नरक होते भी हैं या नहीं।
    5. अज्ञान - जीवादि पदार्थों के समझने का प्रयास न करना अज्ञान मिथ्यात्व है। अथवा पुण्य पाप का ज्ञान ही नहीं होना । जैसे रात्रि में भोजन करने से पाप का बंध होता है अथवा नहीं।

     

    सच्चे देव-शास्त्र-गुरु को छोड़कर अन्य कुदेव में देव बुद्धि, कुशास्त्र में शास्त्र बुद्धि, कुगुरु में गुरु बुद्धि एवं अधर्म में धर्म बुद्धि का होना 'मूढ़ता' मानी जाती है। इन मूढ़ताओं से युक्त व्यक्ति मिथ्यादृष्टि माना जाता है। इन कुदेव आदि का सहारा पत्थर की नाव के समान संसार समुद्र में डुबाने वाला, घोर दु:खों का कारण है। अत: मूढ़ताओं का संक्षित स्वरूप भी कहा जाता है।

    देव-मूढ़ता- जो राग-द्वेष रूपी मल से मलीन (रागी-द्वेषी) है और स्त्री, आभूषण, गदा, तीर-कमान आदि अस्त्र शस्त्र रूप चिह्नों से जिनकी पहचान होती है, वे कुदेव हैं। वीतराग सर्वज्ञ देव के स्वरूप को न जानते हुए ख्याति, लाभ, पूजा की इच्छा से अथवा भय से कुदेवताओं की आराधना करना देव-मूढ़ता है।

    लोक मूढ़ता - धर्म समझकर गंगा-जमुना आदि नदियों में स्नान करना, बालू पत्थर आदि का ढेर लगाना, पर्वत से गिरकर मरना, अग्नि में जल जाना, पृथ्वी, अग्नि, वट वृक्ष, पीपल, तुलसी आदि की पूजा करना लोक मूढ़ता है।

    धर्म मूढ़ता - जो राग-द्वेष रूप भाव हिंसा सहित तथा त्रस स्थावर जीवों के घात स्वरूप द्रव्य हिंसा से सहित संसार वर्धक क्रियाएं हैं, उन्हें कुधर्म कहते हैं। ऐसे कुधर्म में धर्म बुद्धि, आस्था होना धर्म मूढ़ता है।

    शास्त्र मूढ़ता - हिंसक यज्ञ, बलि आदि के प्ररूपक शास्त्र, महान पुरुषों को दोष लगाने वाले एवं उनके विकृत रूप को प्रदर्शित करने वाले शास्त्र कुशास्त्र हैं। कुशास्त्र में सत् शास्त्र की बुद्धि होना शास्त्र मूढ़ता है।

    गुरु मूढ़ता - जो भीतर से राग-द्वेषादि परिणाम रखते हैं, बाहर धन, अम्बर (वस्त्र) आभूषण धारण करते हैं तथा स्वयं को महात्मा कहते हुए अनेक प्रकार के मिथ्या भेष को धारण करते हैं कुगुरु कहलाते हैं। अज्ञानी लोगों के चित्त में चमत्कार अर्थात् आश्चर्य उत्पन्न करने वाले ज्योतिष, मन्त्रवाद आदि को देखकर वीतराग, सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ जो धर्म है उसको छोड़कर ख्याति लाभ-पूजा के लिए खोटा तप करने वाले, परिग्रह आरंभ और हिंसा सहित, संसार चक्र में भ्रमण करने वाले, पाखण्डी साधु, तपस्वियों का आदर, सत्कार, भक्ति पूजा आदि करना गुरु मूढ़ता है।शरीर धारी प्राणियों का मिथ्यात्व के समान अन्य कुछ अकल्याणकारी नहीं है।


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