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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 23ब - कर्म क्षय का महत्त्वपूर्ण साधन– बारह तप

       (2 reviews)

    कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है, वह तप है। तप के मूल में दो भेद हैं – बाह्य तप और आभ्यंतर तप। बाह्य तप - बाह्य द्रव्य के आलम्बन से होता है और दूसरों के देखने में आता है, इसलिए इनको बाह्य तप कहते हैं।

     

    आभ्यंतर तप - आभ्यंतर तप (अंतरङ्ग तप) प्रायश्चित्तादि तपों में बाह्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं रहती है। अंतरंग परिणामों की मुख्यता रहती है तथा इनका स्वयं ही संवेदन होता है। ये देखने में नहीं आते तथा इसको अनाहत (अजैन) लोग धारण नहीं कर सकते। इसलिए प्रायश्चित्तादि को अंतरङ्ग तप माना है।

     

    बाह्य तप छ: होते हैं - १. अनशन, २. अवमौदर्य, ३. वृत्तिपरिसंख्यान, ४. रसपरित्याग, ५. विवितशय्यासन ६. कायक्लेश। अशन का अर्थ है-आहार और अनशन का अर्थ है, चारों प्रकार के आहार का त्याग यह एक दिन को आदि लेकर बहुत दिन तक के लिए किया जाता है। प्राणि संयम व इन्द्रिय संयम की सिद्धि के लिए एवं कर्मों की निर्जरा के लिए अनशन तप किया जाता है। भूख से कम खाना अवमौदर्य नामक तप है। अवमौदर्य तप संयम को जागृत रखने, दोषों को प्रशम करने, संतोष और स्वाध्याय आदि की सुख पूर्वक सिद्धि के लिए किया जाता है।

     

    जब मुनि आहार के लिए जाते हैं तो मन में संकल्प लेकर जाते हैं, जिसे आप लोग विधि कहते हैं। जैसे-एक कलश, दो कलश से पड़गाहन होगा तो जाएंगे नहीं तो नहीं। एक मुहल्ला, दो मुहल्ला तक ही जाऊँगा। यह वृतिपरिसंख्यान तप है। ऐसा करें ही, यह नियम नहीं है।

     

    वृतिपरिसंख्यान तप आशा की निवृत्ति के लिए, अपने पुण्य की परीक्षा के लिए एवं कर्मों की निर्जरा के लिए किया जाता है। घी, दूध, दही, शकर, नमक, तेल, इन छ: रसों में से एक या सभी रसों का त्याग करना रस परित्याग तप है। अथवा वनस्पति, दाल, रस परित्याग तप रसना इन्द्रिय को जीतने के लिए निद्रा व प्रमाद को जीतने के लिए, स्वाध्याय की सिद्धि के लिए एवं कर्मों की निर्जरा के लिए किया जाता है।

     

    स्वाध्याय, ध्यान आदि की सिद्धि के लिए एकान्त स्थान पर शयन करना, आसन लगाना, विवितशय्यासन तप है।

    विवितशय्यासन तप चित्त की शांति के लिए, निद्रा को जीतने के लिए एवं कर्मों की निर्जरा के लिए किया जाता है।

    शरीर को सुख मिले ऐसी भावना को त्यागना कायक्लेश तप है।अथवा वर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे, ग्रीष्म ऋतु में धूप में बैठकर तथा शीत ऋतु में नदी तट पर कायोत्सर्ग करना, ध्यान लगाना कायक्लेश तप है।

    कायक्लेश तप से कष्टों को सहन करने की क्षमता आती है, जिनशासन की प्रभावना होती है एवं कर्मों की निर्जरा हो इसलिए किया जाता है।

     

    अंतरङ्ग तप छ: होते हैं। १. प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैयावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५ व्युत्सर्ग ६ ध्यान।

    1. प्रमादजन्य दोष का परिहार करना प्रायश्चित तप है। व्रतों में लगे हुए दोषों को प्राप्त हुआ साधक, जिससे पूर्व किए अपराधों से निर्दोष हो जाय वह प्रायश्चित तप है।
    2. मोक्ष के साधन भूत सम्यग्ज्ञानादिक में तथा उनके साधक गुरुआदि में अपनी योग्य रीति से सत्कार आदि करना विनय तप है।
    3. अपने शरीर व अन्य प्रासुक वस्तुओं से मुनियों व त्यागियों की सेवा करना, उनके ऊपर आई हुई आपत्ति को दूर करना, वैयावृत्य तप है।
    4. 'ज्ञानभावनालस्यत्याग: स्वाध्याय:" आलस्य त्यागकर ज्ञान की आराधना करना, स्वाध्याय तप है। अथवा २. अङ्ग और अङ्गबाह्य आगम की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मकथा करना, स्वाध्याय तप है।
    5. अहंकार ममकार रूप संकल्प का त्याग करना ही, व्युत्सर्ग तप है।
    6. उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्तवृत्ति का रोकना ध्यान है, जो अन्तर्मुहूर्त तक होता है।

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    रतन लाल

       2 of 2 members found this review helpful 2 / 2 members

    तप के बारह भेदों पर विशेष जानकारी

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    Shrenik Deshmane

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

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