Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 25स - आत्मा का स्वरूप-नय विवक्षा से

       (1 review)

    चेतना लक्षण वाले जीव का व्याख्यान नौ अधिकारों के माध्यम से किया गया है वे इस प्रकार है :-

    1. जीव, 2. उपयोगमय, 3. अमूर्तिक, 4. कर्ता, 5. भोक्ता 6. स्वदेह परिमाण वाला, 7. संसार में स्थित, 8. सिद्ध, 9. स्वभाव से उधर्वगमन करने वाला।

     

    1. जीव :- व्यवहार नय से तीन कालों में जो इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास इन चार प्राणों के द्वारा जीता था, जीता है, जीवेगा तथा निश्चय नय से जिसके चेतना पाई जावे वह जीव है।

    2. उपयोगमय :- जो परिणाम आत्मा के चैतन्य गुण का अनुसरण करता है अर्थात चैतन्य को छोड़कर अन्यत्र नही रहता 'उपयोग' कहलाता है। उपयोग दो प्रकार का है :- (1) ज्ञानोपयोग, (2) दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है जिनके नाम कुमति ज्ञानोपयोग, कुश्रुत ज्ञानोपयोग, कुअवधि ज्ञानोपयोग, मति ज्ञानोपयोग, श्रुत ज्ञानोपयोग, अवधि ज्ञानोपयोग, मन:पर्यय ज्ञानोपयोग तथा केवल ज्ञानोपयोग है। दर्शनोपयोग चार प्रकार है :- चक्षु दर्शनोपयोग, अचक्षु दर्शनोपयोग, अवधि दर्शनोपयोग, केवल दर्शनोपयोग।

     

    कुमति आदि ज्ञानों के साथ प्रयुक्त आत्मा का परिणाम कुमति आदि ज्ञानोपयोग कहलाता है इसे साकार उपयोग भी कहते हैं। तथा चक्षु आदि इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान के पूर्व जो सामान्य प्रतिभास होता है उसे दर्शनोपयोग कहते हैं, इसे निराकार उपयोग भी कहा जाता है। छद्मस्थ जीवों के (केवल ज्ञान उत्पन्न होने के पूर्व की दशा) पहले दर्शनोपयोग तत्पश्चात ज्ञानोपयोग होता है। किन्तु केवल ज्ञानी जीवों के दोनों उपयोग एक साथ (युगपत्) होते हैं।

     

    आत्मा का उपयोग रूप परिणाम अशुभ, शुभ और शुद्ध के भेद से तीन प्रकार का भी है। विषय-कषायों में मग्न, कुमति, कुविचार और कुसंगति में लगा, उग्र तथा उन्मार्ग में लगा हुआ उपयोग 'अशुभोपयोग' है। देव गुरु शास्त्र की पूजा, दया, दान आदि कार्यों में, उपवास आदि को में लीन शुभ परिणाम 'शुभोपयोग" है। शुभ अशुभ दोनों ही क्रियाओं में इष्ट अनिष्ट की बुद्धि से रहित एक मात्र आत्म तत्व में लीन उपयोग 'शुद्धोपयोग' कहलाता है। मिथ्या दृष्टि, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में ऊपर ऊपर मन्दता से अशुभोपयोग रहता है। इसके आगे असंयत सम्यक्त्व देश संयत तथा प्रमत संयत इन तीन गुणस्थानों में परम्परा से शुद्धोपयोग का साधक ऊपर ऊपर तारतम्य से शुभोपयोग रहता है। तदनन्तर अप्रमतादि क्षीण कषाय तक 6 गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट के भेद से विवक्षित एक देश शुद्धनय रूप शुद्धोपयोग रहता है (वर्तता है)

     

    यह उपयोग एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के सभी जीवों में हीनाधिक रूप से नियम से पाया जाता है कोई भी जीव उपयोग से रहित नहीं है।

    3. अमूर्तिक :- निश्चय से जीव में पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श नहीं है इसलिए वह अमूर्तिक है। किन्तु व्यवहार नय से कर्मबन्ध की अपेक्षा जीव मूर्तिक है।

    4. कर्ता :- आत्मा व्यवहार नय से ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता है। इसमें भी उपचरित असद्भूत व्यवहार नय से अपने से पृथक मकान भोजनादि का कर्ता है तथा अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से शरीरादि नो कर्म एवं ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता है। अशुद्ध निश्चय नय से राग-द्वेष रूप भाव कर्मों का जीव कर्ता है एवं शुद्ध निश्चय नय से केवलज्ञान, अनन्तसुख रूप शुद्ध भावों का कर्ता है।

    5. भोक्ता :- आत्मा उपचरित असद्भूत व्यवहार नय से अपने से पृथक स्त्री, मकान, आम्र आदि फलों का भोक्ता है। अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से जीव सुख दु:ख रूप कर्म फलों का भोक्ता है। तथा शुद्ध निश्चय नय से शुद्ध ज्ञान दर्शन का ही भोक्ता है।

    6. स्वदेह परिमाण :- आत्मा व्यवहार नय से समुद्घघात को छोड़कर अन्य अवस्थाओं में संकोच विस्तार के कारण छोटे-बड़े शरीर के बराबर प्रमाण की धारण करने वाला है तथा निश्चय नय से जीव असंख्यात प्रदेशी है। समुदघात - मूल शरीर को छोड़े बिना आत्मा के प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना समुद्घात कहलाता है। समुद्घात सात प्रकार का होता है :- 1. वेदना, 2. कषाय, 3. वैक्रियिक, 4. मारणान्तिक, 5. तैजस, 6. आहारक, 7. केवलि समुद्घात।

    7. संसारस्थ :- पृथ्वी कायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक ये स्थावर जीव हैं। तथा शंखादि दो, तीन, चार, पञ्चेन्द्रिय जीव त्रस है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यच्च भी संज्ञी असंज्ञी के भेद दो प्रकार के हैं। व्यवहार नय से जीव संसार की इन पर्यायों में रहता है अत: संसारस्थ है। शुद्ध निश्चय नय से सभी संसारी जीव सिद्धों के समान शुद्ध हैं।

    8. सिद्ध :- जीव स्वभाव से आठ कर्मों से रहित, आठ गुणों से सहित, अन्तिम शरीर से कुछ कम प्रमाण वाला, उत्पाद व्यय श्रीव्य युक्त, लोक के अग्रभाग में स्थित होने वाला सिद्ध है।

    9. ऊध्र्वगमन स्वामी :- जैसे दीपक की शिखा स्वभाव से ही ऊपर की ओर जाती है, वैसे शुद्ध दशा में जीव भी उध्र्वगमन स्वभाव वाला होता है। धर्म द्रव्य का अभाव होने पर वह लोक के बाहर न जाकर लोकाग्र पर ही अवस्थित हो जाता है।

     

    हेय उपादेय

    तत्व जैसे सब्जी की दुकान पर सब्जी खरीदने जाते हैं तो जो सब्जी सड़ी हो, खराब हो, उसे नहीं खरीदते लेकिन जो सब्जी भक्ष्य होती है, ताजी होती है उसे ही खरीदते हैं। ठीक इसी प्रकार जीवादि सात तत्वों में कौन से तत्व हेय हैं कौन से तत्व उपादेय हैं ये जानना जरूरी है और हेय तत्व को छोड़ना और उपादेय तत्व को ग्रहण करना चाहिए।

    1. हेय तत्व : आस्रव बंध
    2. उपादेय तत्व : जीव, संवर निर्जरा
    3. ज्ञेय तत्व : अजीव
    4. ध्येय तत्व : मोक्ष

    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    जैन सिद्धांत पर आधारित विवेचना

    • Like 1
    Link to review
    Share on other sites


×
×
  • Create New...