जीव का किसी विवक्षित शरीर में टिके रहने की अवधि का नाम आयु है। इस आयु का निमितभूत कर्म आयुकर्म कहलाता है। आयु कर्म से अस्तित्व से प्राणी जीवित रहता है और क्षय होने प मृत्यु के मुख में चला जाता है। मृत्यु का कोई देवता (यमराज) अथवा उस जैसी कोई अन्य शक्ति नहीं है अपितु आयु कर्म के सद्भाव और क्षय पर जन्म-मृत्यु अबलंबित है।
आयु दो प्रकार की होती है - अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय।
- अपवर्तनीय आयु - विष, वेदना, रक्त क्षय, शस्त्रघात, पर्वतारोहण आदि निमित्तों के मिलने पर जिस आयु की अवधि, काल की मर्यादा में कमी हो सके, उसे अपर्वनीय आयु कहते है। इसे अकाल मरण अथवा कदलीघात मरण भी कहा जाता है। अकाल मरण को प्राप्त जीव की आत्मा अपनी आयु के शेष काल तक भटकती रहती है अथवा दूसरी पर्याय में उस आयु को पूर्ण करती है ऐसा मानना सर्वथा गलत है। क्योंकि पूर्ण आयु के क्षय होने पर ही मरण होता है। विशेषता इतनी है कि अकाल मरण को प्राप्त जीव अपनी आयु को अन्तर्मुहूर्त (कुछ समय) में ही पूर्ण कर लेता है किन्तु नवीन आयु कर्म के बंधे बिना मरण संभव नही। जेसे छिद्र सहित मटके में भरा हुआ पानी बूंद-बूंद कर टपकता हुआ पानी दो घंटे में मटके को खाली कर देता है वही मटका यदि किन्ही कारणों से फूट जाये तो एक सेकंड में ही पूरा पानी बह जाता है, उसी प्रकार आत्मा में बंधे हुए आयु कर्म के निषेक क्रमक्रम से उदय में आते है किन्तु अकालमरण की अवस्था में वे एक साथ नष्ट हो/ झड़ जाते है। अत: यह भी संभव है कि एक करोड़ वर्ष की आयु को अन्तर्मुहूर्त में ही भोग कर नष्ट कर दिया जावें।
- अनपवर्तनीय आयु - आयु क्षय के अनेक बड़े-बड़े कारण मिलने पर भी निर्धारित आयु की मर्यादा एक क्षण को भी कम न हो उसे अनपवर्तनीय आयु कहते हैं। देव-नारकी, भोग भूमि के जीव, चरम देहधारी, तीर्थकर अनपवर्तनीय आयु वाले होते हैं।
आयु कर्म का बंध सदा नहीं होता/इसके बंध का विशेष नियम है अपने जीवन की दो-तिहाई आयु व्यतीत होने पर ही आयु कर्म बंध है, वह भी अन्तर्मुहूर्त तक, इसे अपकर्ष काल कहते हैं। एक मनुष्य व तिर्यञ्च के जीवन ऐसे आठ अपकर्ष काल आते हैं जिसमें वह आयु बाँधने के योग्य होता है। इन कालों में जीव आयु का बंध कर ही लेता है अन्यथा आयु कर्म की समाप्ति के अन्तर्मुहूर्त पूर्व नियम से आगामी आयु का बंध कर लेता है। जैसे मान लिजिये किसी व्यक्ति की ८१ वर्ष की आयु हो तो वह 51 वर्ष की अवस्था तक आयु कर्म के बंध के योग्य नहीं होता। वह आयु कर्म का बंध पहली बार 51 वर्ष की अवस्था में कर सकता है यदि उस काल में न हो, तो शेष 27 वर्ष के दो तिहाई (18 वर्ष बीतने पर) यानि 72 वर्ष में आयु बंध द्वितीय बार हो सकता है। यदि इसमें भी बंध न हो पाये तो शेष बची आयु के त्रिभाग में पुन बंध काल आवेगा इसी प्रकार आठवें अपकर्ष काल में वह जीव आयु बंध कर लेता है अंतिम अपकर्ष काल 80 वर्ष 11 माह 25 दिन 13 घंटे 21 मिनट की आयु बीतने पर पड़ेगा। यदि इसमें भी आयु बंध न हो पावे तो मरण के अन्तर्मुहूर्त पूर्व आगामी आयु का बंध नियम से कर लेता है। देव, नारकी तथा भोगभूमि मनुष्य व तिर्यञ्च अपने जीवन के छह माह शेष रहने पर आयु बंध के योग्य होते हैं। इन छह माह में उनके भी आठ अपकर्ष काल होते है।