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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 20अ - कर्म प्रकृतियाँ और उनका फल

       (1 review)

    संसार में अनके प्रकार के सुख दु:ख में कारण भूत कर्म कहे गये हैं। वे कर्म आठ होते हैं- १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र और ८. अन्तराय। इन कर्मों का स्वभाव, फल, कर्म बंध के कारण इत्यादि का सामान्य कथन पूर्व में किया जा चुका है अब इन कर्मों के भेद-प्रभेद का कथन करते हैं।

     

    ज्ञानावरणादि आठ कर्मों को घातिया एवं अघातिया की अपेक्षा दो भागों में विभक्त किया गया है। जो आत्मा के ज्ञानदर्शनादि गुणों का घात करते हैं ऐसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय कर्मों की घातिया कर्म संज्ञा है। तथा जो आत्मा के गुणों का घात तो नहीं करते किन्तु आत्मा के रूप को अन्य रूप (शरीरादि आकार) कर देते हैं ऐसे वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म की अघातिया कर्म संज्ञा है।

     

    ज्ञानावरणीय कर्म के पाँच, दर्शनावरणीय कर्म के नौ, मोहनीय कर्म के अट्ठाइस, वेदनीय कर्म के दो, आयु कर्म के चार, नाम कर्म के ब्यालीस, गोत्र कर्म के दो एवं अंतराय कर्म के पाँच भेद हैं। अत: आठ कर्मों के कुल प्रभेद5+9+28+2+4+42+2+5 = 97 हो जाते हैं।

     

    1.ज्ञानावरण कर्म के पाँच भेद - मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधि ज्ञानावरण, मनः पर्यय ज्ञानावरण और केवल ज्ञानावरण हैं। ये कर्म क्रमश: मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय एवं केवल ज्ञान को आवृत करते हैं, ढाक देते हैं अर्थात ज्ञान होने नहीं देते। प्रथम चार कर्म ज्ञान को पूरा नहीं ढकते जबकि केवलज्ञानावरण, केवलज्ञान को पूर्ण रूप से ढक लेता है।

    अभव्य जीव के भी मन: पर्यय ज्ञान एवं केवलज्ञान शक्ति रूप में रहता है अत: उसके भी इनका आवरण पाया जाता है।

    2.दर्शनावरण कर्म के नौ भेद - चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधि दर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्त्यान्गृद्धि है। यद्यपि आवरण कर्म प्रथम चार हैं। फिर भी निद्रा आदि पाँच दर्शनोपयोग में बाधक बनते है अत: इनकी भी दर्शनावरण में गणना करने से नौ भेद कहे।

    नेत्र इन्द्रिय को चक्षु कहते हैं इसके अलावा शेष चार इन्द्रिय व मन को अचक्षु कहते हैं जो चक्षु ज्ञान, अचक्षुज्ञान तथा अवधिज्ञान के पूर्व होने वाले सामान्य अवलोकन को न होने दे ऐसे कर्म को क्रमश: चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण एवं अवधि दर्शनावरण कर्म कहते हैं। जो केवलज्ञान के साथ होने वाले सामान्य अवलोकन को न होने दे उसे केवल दर्शनावरण कहते हैं।

    मद, खेद और परिश्रम जन्य थकावट को दूर करने के लिए नींद लेना निद्रा है, निद्रावान पुरुष सुख पूर्वक जागृत हो जाता है। निद्रा पर पुन: पुन: निद्रा लेना अथवा गहरी नींद लेना, बार बार उठाने पर बहुत कठिनता से जाग पाना निद्रा-निद्रा कर्म है। बैठे-बैठे सो जाना, कुछ जागृत रहना, नेत्र और शरीर में विकार लाने वाली ऐसी क्रिया जो आत्मा को चलायमान कर दे प्रचला है। प्रचला की पुन: पुन: आवृत्ति प्रचला-प्रचला है मुंह से लार बहने लगना, हाथ पैर चलने लगना इस प्रचला-प्रचला के लक्षण है। जिसके निमित्त से जीव सोते समय भयंकर कार्य कर ले, शक्ति विशेष प्रगट हो जाये और जागने पर कुछ स्मरण न रहे स्त्यान्गृद्धि कर्म है।

    3. वेदनीय कर्म के दो भेद - सातावेदनीय और असातावेदनीय हैं। जिस कर्म के उदय से देवादि गतियों में शरीर और मन सम्बन्धी सुख की प्राप्ति होती है उसे सातवेदनीय कर्म कहते है। जिस कर्म के उदय से शारीरिक-मानसिक अनेक प्रकार के दु:ख प्राप्त होते हैं वह असातावेदनीय कर्म है।

    4.मोहनीयके अट्ठाईस भेद - अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ, संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ ये सोलह कषाय, हास्य-रति-अरति-शोक-भय-जुगुप्सा पुरुष वेदस्त्री वेद - नपुंसक वेद ये नौ नोकषाय एवं मिथ्यात्व-सम्यक्र मिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये तीन - कुल अट्ठाईस है।

    • जो कषाय सम्यक्त्व को घातती है अथवा अनन्त मिथ्यात्व के साथ जिसका अनुबन्ध-सम्बन्ध हो उसे अनन्तानुबन्धी कहते है। जो अप्रत्याख्यान - एक देश चारित्र को प्रकट न होने दे उसे अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं। जासे प्रत्याख्यान - सकल चारित्र का घात करे उसे प्रत्याख्यानावरण कहते हैं एवं जो यथाख्यात चारित्र को प्रकट न होने दे तथा संयम के साथ प्रकाश मान रहे उसे संज्वलन कहते हैं। प्रत्येक के क्रोध-मान-माया-लोभ ये चार-चार भेद हैं कुल ये सोलह कषाय आत्मा को निरन्तर कषती रहती हैं- दु:खी करती रहती है इसलिए इन्हे कषाय वेदनीय भी कहते हैं।
    • जिसके उदय से हँसी आवे, उसे हास्य कहते हैं। जिसके उदय से स्त्री-पुत्र आदि में प्रीति रूप परिणाम होता है उसे रति कहते हैं। जिसके उदय से शत्रु आदि अनिष्ट पदार्थों में अप्रीति रूप परिणाम होते हैं उसे अरति कहते हैं। जिसके उदय से इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग में खेद रूप परिणाम होते हैं उसे शोक कहते हैं। जिसके उदय से भय रूप परिणाम होते हैं उसे भय कहते हैं। जिसके उदय से ग्लानि रूप परिणाम होता है उसे जुगुप्सा कहते हैं। जिसके उदय से स्त्री से रमने के भाव होते हैं उसे पुरुषवेद कहते हैं। जिसके उदय से पुरुष से रमने के भाव होते हैं उसे स्त्रीवेद कहते हैं। जिसके उदय से स्त्री तथा पुरुष दोनों से रमने के भाव हो उसे नपुंसक वेद कहते हैं।
    • जिसके उदय से जीव की अक्तत्व श्रद्धान रूप परिणति होती है उसे मिथ्यात्व कहते हैं। जिसके उदय से मिथ्यात्व और सम्यक्त्व के मिश्रित परिणाम होते हैं उसे सम्यक मिथ्यात्व कहते हैं। जिसके उदय से क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन में चल, मलिन और अवगाढ़ दोष लगते हैं उसे सम्यक्त्व प्रकृति कहते हैं।
    • सब तीर्थकरों की समान शक्ति होने पर भी शान्तिनाथ शान्ति के कर्ता हैं पाश्र्वनाथ रक्षा करने वाले है ऐसा भाव होना चल दोष कहलाता है। सम्यग्दर्शन में शंका-कांक्षा आदि अथवा तीन मूढ़ता आदि पच्चीस दोष लगने को मलिन दोष कहते हैं। एवं अपने द्वारा निर्मापित या प्रतिष्ठापित प्रतिमा आदि में यह मन्दिर मेरा है, यह प्रतिमा मेरी है इत्यादि प्रकार का भाव होना अवगाढ़ दोष कहलाता है।

    5. आयु कर्म के चार भेद - नरकायु, तिर्यञ्च आयु, मनुष्यायु एवं देव आयु है। जिस कर्म के उदय से यह जीव निश्चित समय तक नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव की पर्याय में (शरीर में) रुका रहे उसे उस पर्याय सम्बन्धी आयुकर्म कहते हैं।

    6. नाम कर्म के तिरानवे भेद - नाम कर्म के पिण्ड प्रकृति की अपेक्षा ब्यालीस भेद एवं सामान्य अपेक्षा से तिरानवे भेद होते हैं। गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, निर्माण बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूण्र्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास और विहायोगति तथा प्रतिपक्ष प्रकृतियों के साथ साधारण शरीर और प्रत्येक शरीर, स्थावर और त्रस, दुर्भग-सुभग, दुस्वर–सुस्वर, अशुभ-शुभ, बादर–सूक्ष्म, अपर्याप्त-पर्याप्त, अस्थिर-स्थिर, अनादेय-आदेय, अयशः कीर्ति, यश: कीर्ति एवं तीर्थकर ये ब्यालीस भेद हैं। गति आदि के उत्तर भेदों को मिलाने पर तिरानवे भेद हो जाते हैं।

    • जिस कर्म के उदय से जीव भवान्तर को जाता है वह गति नाम कर्म है। यह चार प्रकार का - नरकगति, तिर्यच्च गति, मनुष्य गति एवं देव गति है। जिस कर्म के उदय से आत्मा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पञ्चेन्द्रिय जाति में जन्म लेता है वह पाँच प्रकार का एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पञ्चेन्द्रिय जाति नाम कर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर की रचना होती है वह शरीर नाम कर्म है। वह पाँच प्रकार का है - औदारिक शरीर नाम कर्म, वैक्रियक शरीर नाम कर्म, आहारक शरीर नाम कर्म, तैजस शरीर और कार्माण शरीर नाम कर्म है। इन शरीरों का वर्णन आगे के अध्याय में किया जावेगा। जिस कर्म के उदय से अंग-उपांगो की रचना होती है उसे अंगोपांग नाम कर्म कहते हैं। इसके तीन भेद हैं :- औदारिक शरीर अंगोपांग, वैक्रियक शरीर अंगोपांग एवं आहारक शरीर अंगोपांग। जिस कर्म के उदय शरीर में अंग उपांगों की यथा स्थान, यथा आकार रचना होती है उसे निर्माण नाम कर्म कहते हैं। शरीर नाम कर्म के उदय से प्राप्त हुए पुद्गलों का अन्योन्य प्रदेश संश्लेष (बन्धन रूप अवस्था) जिसके निमित्त से होती है, वह बन्धन नाम कर्म हैं। औदारिक शरीरादि की अपेक्षा इसके भी पाँच भेद हो जाते हैं। जिस कर्म के उदय से शरीर के परमाणु परस्पर छिद्र रहित होकर मिले उसे संघात नाम कर्म कहते हैं। इसके भी औदारिक शरीर संघात आदि पाँच भेद हैं। जिसके उदय से शरीर की आकृति बनती है उसे संस्थान नाम कर्म कहते हैं। इसके 6 भेद हैं - 1. समचतुरस्र संस्थान, 2. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान, 3. स्वाति संस्थान, 4. कुब्जक संस्थान, 5. वामन संस्थान, 6. हुण्डक संस्थान। जिसके उदय से शरीर सुन्दर और सुडौल होता है उसे समचतुरस्र संस्थान कहते हैं। जिसके उदय से शरीर वट वृक्ष की तरह नीचे से पतला और ऊपर से मोटा हो उसे न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान कहते हैं। जिसके उदय से शरीर सर्पकी वाँमी की तरह नीचे मोटा (नाभि के नीचे) तथा ऊपर पतला हो उसे स्वाति संस्थान कहते हैं। जिसके उदय से जीव का शरीरा कुबड़ा हो उसे कुब्जक संस्थान कहते हैं। जिसके उदय से शरीर बौना हो उसे वामन संस्थान कहते हैं। जिसके उदय से शरीर किसी खास आकृति का न होकर विरूप (टेढ़ा-मेढ़ा) हो उसे हुण्डक संस्थान कहते हैं। जिस कर्म के उदय से शरीर के अन्दर संहनन – हड्डी की रचना तथा अस्थियों का बन्धन विशेष होता है वह संहनन नाम कर्म है। इसके 6 भेद हैं - 1. वज़वृषभनाराच संहनन, 2. वज़नाराच संहनन, 3. नाराच संहनन, 4. अर्द्धनाराच संहनन, 5.कीलिक संहन, 6. असंप्रातासूपाटिका संहनन। जिस कर्म के उदय से वृषभ (वेष्टन) नाराच (कील) और संहनन (हड्डियाँ) वज़ की हो उसे वज़वृषभनाराच संहनन कहते हैं। जिस कर्म के उदय से वज़ के हाड़, वज़ की कीलियाँ हो परन्तु वेष्टन वज़ का न हो वह वज़ नाराच संहनन है। जिस कर्म के उदय से सामान्य वेष्टन और कीली सहित हाड़ हो उसे नाराच संहनन कहते हैं। जिसके उदय से हड्डियों की संधियाँ अर्द्धकीलित हों उसे अर्द्धनाराच संहनन कहते हैं। जिसके उदय से हड्डियाँ परस्पर कीलित हों उसे कीलक संहनन कहते हैं। और जिसके उदय से जुदी-जुदी हड्डियाँ नसों से बंधी हुई हों, परस्पर कीलित नहीं हो उसे असंप्राप्ता सृपाटिका संहनन कहते हैं।

     

    जिसके उदय से शरीर में स्निग्ध-रूक्ष आदि स्पर्श हो, उसे स्पर्श नाम कर्म कहते हैं। इसके आठ भेद हैं - 1. स्निग्ध, 2. रुक्ष, 3. कोमल, 4. कठोर, 5. हल्का, 6. भारी, 7. शीत और 8. उष्ण। जिसके उदय से शरीर में खट्टा मीठा आदि रस हो उसे रस नाम कर्म कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं - 1. खट्टा 2. मीठा, 3. कडुआ, 4. कषायला और 5. चरपरा। जिसके उदय से शरीर में सुगन्ध या दुर्गन्ध उत्पन्न हो उसे गन्ध नाम कर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं- 1. सुगन्ध, 2. दुर्गन्ध। जिसके उदय से शरीर में काला-पीला आदि वर्ण उत्पन्न हो उसे वर्ण नाम कर्म कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं - 1. काला, 2. पीला, 3. नीला, 4. लाल और 5. सफेद। जिसके उदय से विग्रह गति में आत्म प्रदेशों का आकार पिछले (छोड़े हुए) शरीर के आकार का हो, वह आनुपूव्र्य नाम कर्म हैं। इसके चार भेद हैं - नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देवगत्यानुपूव्र्य। जैसे कोई मनुष्य मरकर देवगति में जा रहा है तो देवगत्युनपूव्र्य कर्म के उदय से विग्रह गति में मनुष्य का आकार बना रहेगा। इसका उदय विग्रह गति में ही होता है। जिस कर्म के उदय से ऐसा शरीर प्राप्त हो जो लोहे के गोले के समान भारी और अर्क के तूल के समान हल्का न हो उसे अगुरुलघु नाम कर्म कहते हैं। जिससे उदय से अपना ही घात करने वाले अंगोपांग हो उसे उपघात नाम कर्म कहते है। जिसके उदय से दूसरों का घात करने वाले अंगोपांग हों उसे परघात नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से ऐसा भास्वर शरीर प्राप्त हो जिसका मूल ठण्डा और प्रभा उष्ण हो उसे आतप नाम कर्म कहते हैं। इसका उदय सूर्य के विमान में रहने वाले बादर पृथ्वीकायिक जीवों के होता है। जिसके उदय से ऐसा भास्वर शरीर प्राप्त हो जिसका मूल और प्रभा दोनों शीतल हों उद्योत नाम कर्म कहलाता है। इसका उदय चन्द्र विमान में रहने वाले बादर पृथ्वीकायिक तथा जुगनू आदि के होता है। जिसके उदय से श्वासोच्छवास चलता है उसे उच्छवास नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से आकाश में गमन ही उसे विहायोगति नाम कर्म कहते हैं। इसके दो भेद प्रशस्त विहायोगति और अप्रशस्त विहायोगति। इसका उदय मात्र पक्षियों के ही नहीं होता अन्य जीवों के भी होता है। जिसके उदय से ऐसा शरीर प्राप्त हो जिसका एक जीव ही स्वामी हो उसे प्रत्येक शरीर नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से ऐसा शरीर प्राप्त हो जिसके अनेक स्वामी हो। इसका उदय वनस्पति कायिक जीव के ही होता है उसे साधारण शरीर कहते हैं। जिसके उदय से द्वीन्द्रियादि जाति में जन्म हो उसे त्रस नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से एकेन्द्रिय जाति में जन्म हो उसे स्थावर नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से विशेष रूपादि गुणों से रहित होते हुए भी जीव अन्य जनों के प्रीति स्नेह का पात्र बनता है वह सुभग नाम कर्म हैं। जिसके उदय से रूपादि गुणों से सहित होते हुए भी अन्य जनों के प्रीति, स्नेह का पात्र न बन सके, लोग द्वेष ग्लानि करे वह दुर्भग नाम कर्म है। जिसके उदय से जीव को अच्छा स्वर प्राप्त होता है उसे सुस्वर नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से अच्छा स्वर न हो उसे दु:स्वर नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से शरीर के अवयव सुन्दर हो उसे शुभ नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से शरीर के अवयव सुन्दर न हो उसे अशुभ नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से ऐसा शरीर प्राप्त हो जो न किसी से रुके और न किसी को रोक सके उसे सूक्ष्म नाम कर्म कहते हैं। यह शरीर एकेन्द्रिय जीवों के ही होता है। जिसके उदय से ऐसा शरीर हो जो स्वयं किसी से रुके तथा किसी को रोक सके उस बादर नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन इन छह पर्याप्तियों की यथायोग्य (पर्याय योग्य) पूर्णता हो उसे पर्याप्ति नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से एक भी पर्याप्ति पूर्ण न हो अर्थात् लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था हो उसे अपर्याप्ति नाम कर्म कहते हैं। इसका उदय सम्मूच्र्छन जन्म वाले मनुष्य और तिर्यञ्च में होता है। जिसके उदय से शरीर के धातु-उपधातु स्थिर रहें अर्थात् विशेष तप आदि करने पर शरीर कृश न हो उसे स्थिर नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से शरीर के धातु उपधातु स्थिर न रहे अर्थात् चलायमान होते रहे वह अस्थिर नाम कर्म हैं। जिसके उदय से शरीर विशिष्ट कांति से सहित होता है उसे आदेय नाम कर्म कहते है। जिसके उदय से शरीर विशिष्ट कान्ति रहित हो उसे अनादेय नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से जीव की संसार में कीर्ति विस्तृत हो उसे यशस्कीर्ति नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से जीव का संसार में अपयश विस्तृत हो उसे अयशस्कीर्ति नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से जीव तीर्थकर पद को प्राप्त होता है उसे तीर्थकर नाम कर्म कहते हैं। यह प्रकृति सातिशय पुण्य-प्रकृति है।

    7. गोत्र कर्म के दो भेद हैं - 1. उच्च गोत्र 2. नीच गोत्र।जिसके उदय से लोक प्रसिद्ध उच्चकुलों में जन्म होता है उच्च आचरण होता है उसे उच्चगोत्र कर्म कहते हैं। जिसके उदय से लोक निन्द्य नीच कुलों में जन्म होता है नीच आचरण होता है उसे नीच-गोत्र कर्म कहते हैं।

    8. अन्तराय कर्म के पाँच भेद हैं - 1. दानान्तराय, 2.लाभान्तराय, 3. भोगान्तराय, 4. उपभोगान्तराय और 5.वीर्यान्तराय। जिस कर्म के उदय से देने की इच्छा करता हुआ भी नहीं दे पाता वह दानान्तराय कर्म है। जिस कर्म के उदय से प्राप्त करने की इच्छा रखता हुआ भी नहीं प्राप्त करता वह लाभन्तराय कर्म है। जिसके उदय से भोगने की इच्छा करता हुआ भी नहीं भोग सकता वह भोगान्तराय कर्म है। जिसके उदय से उपभोग की इच्छा करता हुआ भी उपभोग नहीं कर सकता वह उपभोगान्तराय कर्म है। जिस कर्म के उदय से उत्साहित होने की इच्छा रखता हुआ भी उत्साहित नहीं होता है वह वीर्यान्तराय कर्म है।


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    रतन लाल

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    कर्म सिद्धांत पर अनुठी प्रस्तुति

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