जिससे शारीरिक – मानसिक पोषक तत्व प्राप्त हों, जिसमें भूख मिटें उसे आहार कहते हैं। संसार में आहार को मुख्यत: दो भागों में बाँटा गया हैं
- शाकाहार
- मांसाहार
शाकाहार का अर्थ - शोधे हुये अनाज, दालें, चावल, सूखे फल - मेवे, ताजे कच्चे पके फल, साग - भाजी, दूध – दही और इनसे बने मर्यादित पदार्थों का आहार है। ऐसे भोजन से मनुष्य में दीर्घायु, उत्तम स्वास्थ्य, बलवान शरीर, दया, सरलता, पारस्परिक सहयोग और अहिंसा आदि शुभ भाव उत्पन्न होते हैं।
मांसाहार का अर्थ - प्राणियों की हत्या करके (अथवा मृत प्राणि शरीर से) उसके शारीरिक अवयवों (माँस - कलेजी - हड्डियाँ आदि), अण्डे, वासी, रसहीन - अधपके, दुर्गन्धित, सड़े या सड़ाये गये अपवित्र नशीले आदि पदार्थों का सेवन मांसाहार हैं। यह मनुष्य की बुद्धि - विवेक को भ्रष्ट कर उसे कुसंस्कारों की ओर ले जाता है, इससे शरीर दुर्गन्धित व भारी हो जाता है। प्राय: मनुष्य क्रोधी, क्रूर और अनाचारी बन जाते हैं।
मांसाहारी जीवों की शारीरिक बनावट
प्राकृतिक रुप से मनुष्य शाकाहारी है उसकी शरीर-रचना मांसाहारी जीवों से भिन्न है। मांसाहारी जीव औधेरे में देख सकते हैं, उनके जबड़े अलग प्रकार के होते हैं, उनके दांत, पंजे, चोंच बहुत नुकीले होते हैं, वे मांसाहार करने के कारण प्राय: जीभ से पानी पीते हैं। उनकी सूघने की विलक्षण क्षमता होती है, उनकी आंतो की बनावट भी अलग प्रकार की होती है। इन स्पष्ट भेदों के बाद भी प्रकृति से शाकाहारी मनुष्य अज्ञानता, धर्मान्धता, जीभ की लोलुपता, मांसाहारियों की संगति और आग्रह तथा स्वयं को आधुनिक दिखाने के चक्कर में मांसाहारी बनता जा रहा है। कुछ लोग मांसाहार को गर्व के साथ आधुनिकता से जोड़ते हैं। यह मांसाहार ही आज संसार की अशान्ति और दुर्गति का बड़ा कारण बन गया है।
वनस्पति और मांस में अन्तर
एक इन्द्रिय जीव वनस्पति और मांस में बहुत अन्तर होता है। प्रथम तो मांस का उत्पादन ही पंचेन्द्रिय आदि जीवों की हत्या से होता है फिर मांस वनस्पति की तरह अग्नि संस्कार से प्रासुक नहीं होता उसमें निरन्तर तजाति निगोदिया जीव उत्पन्न होते रहते हैं। मांस पूर्णत: अभक्ष्य है। लौकिक व्यवहार में भी एक पेड़ काटने पर उतना दण्ड नहीं दिया जाता जितना एक मनुष्य की हत्या करने पर। अनाज फल साग - भाजी आदि देख कर किसी को भी ग्लानि नहीं होती है जब कि मांस की दुकानों पर लटका या रखा हुआ मांस देखकर अधिकांश लोगो को घृणा होती है। वहाँ की दुर्गन्ध से लोग नाक बंद कर लेते हैं।
मांस को शक्तिवर्धक मानना एक भ्रान्त धारणा है, सृष्टि के प्राय: सभी बलशाली, परिश्रमी और सहनशील प्राणी जैसे हाथी, घोड़ा, ऊँट और बैल आदि पूर्णत: शाकाहारी है। शाकाहार से जहाँ शक्ति बढ़ती है वहाँ मांसाहार से उत्तेजना और क्रूरता। मांसाहार की अपेक्षा कई गुने अधिक शरीर - पोषक तत्व शाकाहारी पदार्थों में पाये जाते हैं कुछ उदाहरण निम्नानुसार हैं -
- बकरे के मांस में प्रोटीन 21.4% है तो सोयाबीन में 43.3% है।
- मांस में कार्बोहाइड्रेड नहीं है जबकि गेहू में 63.4% है।
- मांस में फैट 3.6% है। जबकि नारियल में 62.3% है।
- फाइबर मांस में नहीं जबकि अमरुद में 5.2% है।
- मांस में मिनरल 1.1% है। जबकि चावल में 6.6% है।
- मांस में कैलोरी 118 है जबकि मूंगफली में 570 है।
प्रकृति का संतुलन
"यदि पशुओं को ना खाया जाये तो पृथ्वी उनसे भर जायेगी।" यह मानना निराधार हैं क्योंकि पशुओं का संतुलन प्राकृतिक रूप से बना रहता है। उनकी कामेच्छा और प्रजनन का समय भी सहज निर्धारित रहता है। फिर जिन प्राणियों का मांस नहीं खाया जाता, क्या उनकी संख्या बढ़ी है? जैसे शेर, हाथी, कुत्ता, बिल्ली अर्थात नहीं बढ़ी बल्कि कहीं कहीं तो हाथी, शेर आदि की प्रजाति लुप्त होने के कगार पर पहुँच रही है यदि कृत्रिम रुप से प्रजनन न कराया जावे तो उनकी भी संख्या नहीं बढ़ेगी।
शाकाहार आर्थिक दृष्टि में
"यदि मांस न खाकर केवल अन्न ही खाया जाय तो देश में अन्न की कमी पड़ जायेगी।" ऐसा सोचना भी ठीक नहीं है, क्योंकि देश में अन्न की पेदावार पर्याप्त मात्रा में होती है। दूसरी ओर अकेले अमेरिका में अधिक मांस प्राप्ति के लिए पशुओं को जितना अन्न खिलाया जाता है उतने से विश्व की आधी आबादी का पेट भर सकता है वहां औसत एक किलो मांस के लिए सोलह किलो अन्न खिलाया जाना है। अत: आर्थिक दृष्टि से भी शाकाहार सस्ता व श्रेष्ठ है।
दूध का पूर्ण सत्य
आजकल कुछ चिंतक - वैज्ञानिक दूध को 'पतले - मांस" की संज्ञा देने लगे हैं। यह उनकी अल्पज्ञता का सूचक है। दूध पूर्णत: शाकाहारी, शुद्ध एवं सम्पूर्ण आहार है।
दही अभक्ष्य नहीं हैं। अच्छी तरह उबले हुए (प्रासुक) दूध से बने दही में २४ घंटे तक वैक्टीरिया (जीवाणु) पैदा नहीं होते। जैनाचायों ने प्रासुक दूध, दही, पनीर आदि को जीवाणु रहित होने से सेवन योग्य कहा है।
प्रासुक - जीव जिसमें निकल गए हैं अथवा निकाल दिये गये ऐसे पदार्थ प्रासुक कहे जाते हैं।
मर्यादित पदार्थ – जिसमें त्रस जीवों की उत्पत्ति न हुई हो, जो सड़ी-गली, विकृत, दुर्गन्ध युक्त न हो। ऐसी वस्तुएँ मर्यादित कहलाती हैं।
जैन दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त ग्रन्थ - षट्खण्डागम
- कषाय पाहुड़ के बाद षट्खण्डागम ही दिगम्बर आम्नाय का द्वितीय महनीय ग्रन्थ है। जीव स्थान आदि छह खण्डों में विभक्त होने के कारण इसका 'षट्खण्डागम' नाम प्रसिद्ध हुआ। यह कर्म सिद्धान्त विषयक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के छह खण्डों में पहले खण्ड के सूत्र पुष्पदन्त आचार्य (ई. १०६-१३६) के बनाये हुए है। बाद में उनका शरीरान्त हो जाने के कारण शेष चार खण्डों के पूरे सूत्र आचार्य भूतबलि जी (ई. १३६-१५६) ने बनाये थे। छठवाँ खण्ड सविस्तार रूप से आचार्य भूतबलि जी द्वारा बनाया गया है।
- यह ग्रन्थ छह खण्डों में विभक्त है -
१ जीवट्ठाण (जीवस्थान) - इस प्रथम खण्ड में जीव के गुण-धर्म और नाना अवस्थाओं का वर्णन आठ प्ररूपणाओं में किया गया है।
२. खुद्धाबन्ध(क्षुद्र बन्ध) - इसमें मार्गणा स्थानों के अनुसार कौन जीव बन्धक है और कौन अबन्धक का विवेचन किया है। इस खण्ड में १५८२ सूत्र हैं।
३. बंध सामित विचय (बन्ध स्वामित्व विचय) - इस तृतीय खण्ड में कर्मों की विभिन्न प्रकृतियों के बन्ध करने वाले स्वामियों का विचार किया गया है। इस खण्ड में कुल ३२४ सूत्र हैं।
४. वेदना खण्ड - कृति और वेदना नामक प्रथम दो अनुयोगों का नाम वंदना खण्ड है। इस खण्ड में कुल १४४९ सूत्रों(के द्वारा किया) है।
५. वर्गणा खण्ड - इसमें स्पर्श, कर्म और प्रकृति नामक तीन अनुयोग द्वारों का प्रतिपादन किया गया है। कुल ७९१ सूत्रों का वर्णन है।
६. महाबन्ध - प्रकृति बन्ध, प्रदेश बन्ध, स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध का विवेचन इस खण्ड में २४ अनुयोग द्वारों में विस्तार पूर्वक किया है।
समग्र जिनागम का प्रतिपादक सूत्र ग्रन्थ - तत्वार्थ – सूत्र
- आचार्य उमास्वामि (द्वितीय शताब्दी) द्वारा रचित संस्कृत भाषा में सूत्र-शैली का यह प्रथम सूत्र ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का प्राचीन नाम 'तत्वार्थ' था। सूत्र शैली में निबद्ध होने से उत्तर काल में इसका तत्वार्थ सूत्र नाम पड़ा। इस ग्रन्थ में जिनागम के मूल तत्वों को बहुत ही संक्षेप में निबद्ध किया है। इसमें कुल दस अध्याय और ३५७ सूत्र है इसे मोक्षशास्त्र भी कहते है।
- इस महान ग्रन्थ में करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग का सार समाहित है। साम्प्रदायिकता से रहित होने के कारण यह दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही साम्प्रदायों में कुछ पाठ भेद को छोड़कर समान रूप से प्रिय है। इसके मात्र श्रवण अथवा पाठ का फल एक उपवास बताया है।
वर्तमान में इस ग्रन्थ को जैन परम्परा में वही स्थान प्राप्त है, जो हिन्दु धर्म में 'भगवद्गीता' को, इस्लाम धर्म में 'कुरान' को और ईसाई धर्म में 'बाइबिल' को प्राप्त है। इससे पूर्व प्राकृत भाषा में ही जैन ग्रन्थों की रचना की जाती थी। इस प्रकार तत्वार्थ सूत्र का वण्र्य विषय जैन धर्म के मूल भूत समस्त सिद्धान्तों से सम्बद्ध है। इसे जैन सिद्धान्त की कुंजी कहा जा सकता है।