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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 18अ - श्रावक का प्रथम कर्तव्य - जिनपूजा

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    देवाधिदेव चरणे परिचरणं सर्व दुःख निर्हरणम्।

    कामदुहि कामदाहिनि, परिचिनुया दादूतो नित्यम।

     

    श्रावकों के कर्तव्यों का वर्णन करते हुए आचार्य श्री समन्तभद्र जी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखा है - देवों के भी देव ऐसे जिनेन्द्र देव के चरणों की नित्य ही पूजा करना चाहिए। कैसी है वह पूजा? सभी दु:खों को हरण/नष्ट करने वाली, मनवांछित फल को देने वाली एवं तृष्णा को जलाने वाली है। ऐसी परमोपकारी जिन-पूजा के अंग, जिन-पूजा की विधी, प्रकार, जिन पूजक आदि के विषय की इस अध्याय में जानकारी प्राप्त करेंगे।

     

    पूजा शब्द का अर्थ होता है आराधना करना, अर्चना, स्वागत-सम्मान करना। अत:पूज्य की आराधना में मन, वचन और काय पूर्वक समर्पित होना पूजा है।

     

    जैन दर्शन में व्यक्ति की पूजा नहीं बल्कि व्यक्तित्व (गुणों) की पूजा की जाती है अर्थात् जिनके पास वीतरागता हो ऐसे पंचपरमेष्ठी जिनधर्म, जिनगम, जिनचैत्य और जिनचैत्यालय ये नव देवता ही अष्ट द्रव्य से पूजनीय है अन्य कोई नहीं। सम्यक्र दृष्टि देवी-देवता सम्मान, जय जिनेन्द्र आदि व्यवहार करने योग्य तो हो सकते हैं किन्तु पूज्यनीय नहीं।

     

    पूजा के मुख्यत: दो भेद हैं - द्रव्य पूजा और भाव पूजा। जल, चन्दनादि अष्ट द्रव्यों से भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र देव की पूजा करना 'द्रव्य पूजा' है। बिना द्रव्य के मात्र निर्मल भावों के द्वारा जिनेन्द्र देव की स्तुति, भक्ति करना 'भाव पूजा' है। द्रव्य पूजा में भाव सहित मन-वचन-काय की प्रवृत्ति की मुख्यता होती है, बाह्य पदार्थों का अवलम्बन होता है जबकि भाव पूजा में निवृत्ति की मुख्यता के साथ-साथ निरालम्बता रहती है।

     

    कुछ व्यक्ति धर्म के अर्थ हिंसा करने से तो महापाप होता है, अन्यत्र करने से थोड़ा पाप लगता है ऐसा कहते है सो यह आगम का/सिद्धान्त का वचन नहीं है। गृहस्थ की भूमिका में मात्र संकल्पी हिंसा का त्याग होता है, आरंभी, विरोधी और उद्योगी हिंसा का नहीं। दीपक जलाते समय, धूप खेते समय सावधानी रखें तो त्रस जीवों के घात से बच सकते हैं। आचार्यों ने जिन पूजा आदि में होने वाले सावद्य को अल्पदोष कारक एवं बहुपुण्य राशि को देने वाला माना है। मधुर जल से भरे तालाब में नमक की कणिका के समान ही पूजा आदि कार्यों में पाप कर अल्प बन्ध होता है।

     

    आचार्यों ने पूजन के छह अंग कहे हैं- १. अभिषेक, २. आहवानन, ३. स्थापन, ४. सन्निधीकरण, ५. पूजन ६ विसर्जन। किन्ही किन्ही आचार्यों ने अभिषेक की क्रिया का पृथक वर्णन करते हुए पूजा के पाँच अंग भी माने हैं।

     

    अभिषेक

    पूरी जिन-प्रतिमा जल से सिंचित हो इस प्रकार जल की धारा भगवान के ऊपर करना 'अभिषेक' है। अभिषेक पूजा का अनिवार्य अंग है इसके बिना पूजा अधूरी अथवा गलत है।

     

    अभिषेक प्रतिमा की स्वच्छता के उद्देश्य से नहीं अपितु साक्षात् प्रभु का स्पर्शन, परिणामों की विशुद्धता, पापों के क्षय के लिए किया जाता है। जिनबिम्ब से स्पर्शित जल 'गन्धोदक' कहा जाता है। यह गंधोदक विश्व की आधि - व्याधि समूह का हर्ता, विष एवं ज्वरों का विनाशक एवं मोक्ष लक्ष्मी का प्रदाता है।

     

    आहवानन, स्थापन एवं सन्निधीकरण

    पूजन के अंग रूप आहवानन, स्थापन एवं सन्निधीकरण क्रिया वीतरागी अहन्त प्रभु के प्रति भावनात्मक समर्पण की क्रिया है। आहवानन का अर्थ - भाव सहित उल्लास पूर्वक त्रिलोकी नाथ को आमन्त्रित (अवतरित) करने का विनय भाव। यद्यपि जिन्होंने सिद्ध दशा को प्राप्त कर लिया वे प्रभु कभी लौटकर आते नहीं। फिर भी पूजक विनय प्रदर्शन हेतु मंत्र और मुद्रा के द्वारा आहवानन क्रिया को संपन्न करता है। दोनों हाथों को जोड़कर एक साथ मिलाकर फैलाना, फिर दोनों अंगूठे, दोनों अनामिकाओं के मूल स्थान में रखना, इससे जो आकृति बनती है, वह आहवानन मुद्रा कहलाती है। इसे आकर्षणी मुद्रा भी कहते हैं।

     

    स्थापन का अर्थ - सजग/ सतर्क होकर भगवान से ठहरने का आग्रह भाव यहाँ स्थापना का अर्थ पीले चावल आदि में भगवान की स्थापना करने का नहीं है। स्थापनी मुद्रा के द्वारा यह क्रिया संपन्न की जाती है। आकर्षिणी मुद्रा में जो दोनो हथेली उध्र्वमुख थी उन्हे अधोमुख कर देने पर, जो आकृति होती है उसे स्थापनी मुद्रा कहते हैं। सन्निधीकरण का अर्थ भगवान को हृदय कमल पर विराजमान होने का अनुरोध/श्रद्धा पूर्वक साक्षात् जिनेन्द्र भगवान से निकटता प्राप्त करने का भाव / समर्पण का भाव।

     

    सन्निधीकरण मुद्रा के द्वारा यह क्रिया संपन्न की जाती है। दोनो हाथों की मुट्ठी बांधकर रखने से सन्निधीकरण मुद्रा होती है। सन्निधीकरण मुद्रा से हृदय स्पर्श और नमस्कार करना चाहिए।

     

    आहवानन, स्थापन एवं सन्निधीकरण करने के पूर्व दृष्टि जिन प्रतिमा की ओर रहे एवं मन्त्र पढ़ने तक हाथ जोड़े तत्पश्चात् मुद्रा बनाते हुए क्रिया का भाव करें। अर्थात् क्रमश: प्रत्येक क्रिया पूर्ण करने के पश्चात् पुन: हाथ जोड़कर अगली क्रिया, मन्त्र पढ़ते हुए प्रारम्भ करें।

     

    आह्वानन – ॐ ह्रीं श्री देव शास्त्र गुरु समूहः (सम्बोधनं) अत्र अवतर अवतर संवौषट्र (आकर्षण मन्त्र) आहूवान्मू (आह्वानन मुद्रा)

    स्थापन — ऊँ हीं श्री देव शास्त्र गुरु समूह (सम्बोधन) अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: (स्तम्भन मंत्र) स्थापनम् (स्थापनी मुद्रा)

    सन्निधीकरण - ऊँहीं श्री देव शास्त्र गुरु समूह (सम्बोधन) अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (वशीकरण मन्त्र) सन्निधिकरणम् (सन्निधी करण मुद्रा)

     

    इसके बाद पूजा करने का संकल्प करने हेतु ठोने में 'संकल्प पुष्प' क्षेपण करना चाहिए। तीन, पाँच, सात आदि पुष्पों की संख्या का कोई विकल्प नहीं करना चाहिए। क्योंकि हम भगवान की पूजा का संकल्प करके संकल्प पुष्प ठोने पर क्षेपण कर रहे हैं, भगवान को नहीं। बैठकर के पूजन करने वालो को भी आहवानन आदि क्रिया खड़े होकर करनी चाहिए।

     

    पूजन

    जिनेन्द्र भगवान के अनन्त गुणों का स्मरण करके (गुणानुवाद) अष्ट द्रव्य को संकल्प पूर्वक जिनेन्द्र चरणों में समर्पित करना पूजा कहलाती है। पूजन में प्रयोग की जाने वाली अष्ट द्रव्य एवं उसका प्रयोजन क्रमश: निम्न प्रकार है

    1. जल - संसार में परिभ्रमण कराने वाले जन्म-जरा-मृत्यु के क्षय के लिए।
    2. चन्दन - संसार का आताप / दुःख मिटाने के लिए।
    3. अक्षत - कभी नष्ट न होने वाले ऐसे अक्षय पद की प्राप्ति के लिए।
    4. पुष्प - कामवासना के नष्ट करने हेतु।
    5. नैवेद्य - क्षुधा रोग के क्षय / विनाश के लिए।
    6. दीप - महा मोह रूपी अन्धकार के विनाश हेतु।
    7. धूप - अष्ट कर्म के दहन हेतु।
    8. फल - महा मोक्ष फल की प्राप्ति हेतु ।

    आठों द्रव्य को मिलाने से अर्घ बन जाता है। जिसे अमूल्य शिव पद की प्राप्ति हेतु जिनेन्द्र देव के चरणों के समक्ष चढ़ाया जाता है। द्रव्य चढ़ाने का मन्त्र -ॐ  हीं श्री..................निर्वपामीति स्वाहा।

    बीजाक्षरों का अर्थ -

    ऊँ - पञ्च परमेष्ठी का वाचक

    हीं - चौबीस तीर्थकर का वाचक

    श्री - लक्ष्मी, अनन्त चतुष्टय का वाचक

    निर्वपामीति - सम्पूर्ण रूप से समर्पित करना

    स्वाहा - पाप नाशक, मंगल कारक, आत्मा की आन्तरिक शक्ति उद्घाटित करने वाला बीजाक्षर।

    भावार्थ - पञ्च परमेष्ठी, चौबीस तीर्थकरों को साक्षी मानकर अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति के लिए, संसार परिभ्रमण के कारण दुष्कर्मों को नष्ट करने के लिए मैं यह द्रव्य सम्पूर्ण रूप से समर्पित करता हूँ। इस प्रकार जिनेन्द्र गुणों की प्राप्ति ही पूजा का उद्देश्य है। पूजा ही परम्परा से मोक्ष का कारण है।

    विसर्जन

    विश्व शान्ति की मंगल कामना के साथ शान्ति पाठ पढ़कर, पूजा में होने वाली अशुद्धियों, ज्ञाताज्ञात त्रुटियों की क्षमा याचना पूर्वक पूजा कार्य की समाप्ति करना विसर्जन है। विसर्जन का तात्पर्य पूजा संकल्प के विसर्जन से है न कि देवताओं के विसर्जन से।

     

    विनय पूर्वक हाथ जोड़कर भगवान की ओर दृष्टि करते हुए जितने पुष्प हाथ में आये उन्हें ठोने में क्षेपण करना चाहिए। तत्पश्चात् ठोने के संकल्प पुष्पों को निर्माल्य की थाली में ही डाल देना चाहिए। उन्हें अग्नि में नहीं जलाना चाहिए।


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    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    आज के अंध श्रावकों के लिए बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति

    • Thanks 1
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