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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. वैराग्य मूर्ति देख के मन शान्त होता। जो भेद-ज्ञान स्वयमेव सु जाग जाता।। विश्वास है वरद हस्त हमें मिला है। संसार चक्र जिसमें भ्रमता नहीं है।। ऊँ ह्रीं श्री 108 आचार्य ज्ञान सागराय अनर्ध्यपद प्राप्तर्य अर्ध्य नि0 स्वाहा।
  2. विद्यासागरजी महाराज; (डोंगरगढ़) {10 दिसंबर 2017} चन्द्रगिरि (डोंगरगढ़) में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि नीम का वृक्ष बहुत योगी होता है। उसकी छाल से बनी जड़ी-बूटियों से बड़े से बड़े रोगों व विभिन्न बीमारियों का उपचार संभव है। वृक्ष ऑक्सीजन छोड़ते हैं और कार्बन डाई ऑक्साइड ग्रहण करते हैं जिससे हमें प्राणवायु प्राप्त होती है। नीम का फल कड़वा होता है, परंतु उसका स्वास्थ्य के लिए लाभ बहुत है। नीम की शाखाओं एवं टहनी का उपयोग दातुन आदि के लिए भी उपयोग किया जाता है। इस प्रकार नीम का वृक्ष मनुष्य एवं प्रकृति के लिए बहुत लाभकारी है जिसे पहले के लोग अपने आंगन में लगाते थे और स्वस्थ रहते थे। आज आप लोग इस ओर ध्यान नहीं देते हैं और कई छोटी-बड़ी बीमारियों से ग्रसित हो जाते हैं। गायें बहुत भोले-भाले मुख वाली होती हैं जिसे हम गैया भी कहते हैं। वे हमारे लिए अत्यंत दुर्लभ हैं, क्योंकि वे हमेशा 24 घंटे प्राणवायु ऑक्सीजन ग्रहण करती व छोड़ती हैं। उसके सींग की कीमत सोने से भी ज्यादा है। यदि आज सोना 30,000 रुपए है तो उसकी कीमत 1 लाख रुपए से भी अधिक है। गाय के दूध में स्वर्ण होता है। उसका सेवन अमृत-सम होता है। घर में गायें होने से घर का पूरा वातावरण पवित्र हो जाता है। गायों द्वारा ऐसी क्या रासायनिक क्रिया की जाती है जिससे वे प्राणवायु ऑक्सीजन ग्रहण करती व छोड़ती हैं, यह विचारणीय है। 9 एवं 10 दिसंबर 2017 को चन्द्रगिरि तीर्थ क्षेत्र में नि:शुल्क चिकित्सा शिविर का आयोजन किया गया है जिसमें सभी प्रकार के रोगों का बाहर से आए आयुर्वेदिक चिकित्सकों द्वारा इलाज किया जा रहा है एवं मरीजों के लिए नि:शुल्क भोजन की व्यवस्था की गई है। रविवार को डोंगरगढ़ से एवं आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों के सैकड़ों लोगों ने अपना इलाज करवाकर लाभ लिया जैसे बीपी, शुगर, सिरदर्द, माइग्रेन, खुजली, अस्थमा आदि बीमारियों का इलाज नि:शुल्क आयुर्वेदिक औषधि एवं योग-प्राणायाम द्वारा किया गया। यह जानकारी चन्द्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
  3. (श्री दिगम्बर जैन चन्द्रगिरि तीर्थक्षेत्र डोंगरगढ़ (छ.ग.) जून २०१७ में राष्ट्रीय चिंतक जैनाचार्य प.पू. आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज से प्रिंट मीडिया एवं दूश्य मीडिया का संवाद) पत्रकार - आचार्य श्री! देश की बात करें, छत्तीसगढ़ की बात करें, तो ये नक्सलवाद-आतंकवाद की समस्या से जूझ रहे हैं। जो आदिवासी अंचल हैं वे जल-जंगल-जमीन की लड़ाई करने की बात करते हैं। क्या अध्यात्म के माध्यम से इस समस्या को दूर कर सकते हैं? आचार्य श्री - देखिए, आपको अपनी समस्या दूर करने से पहले इनकी समस्या को दूर करने की बात पहले करना चाहिए। वो तो कर नहीं रहे हैं, मात्र समस्या दूर करने का चिंतन करते हैं। इस बारे में नेतृत्व क्या सोच रहा है? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। उनकी आवश्यकता की पूर्ति के लिए केवल शिक्षा-शिक्षा करने से कुछ नहीं होगा? वे भूखे हैं, उनके पास अनाज नहीं है, धंधा भी नहीं है, चिकित्सा नहीं है; तो उनके जीवन का जो आधार है जल-जंगल-जमीन, उसको कैसे वे छोड़ सकते हैं और क्यों छोड़ें? अनेक प्रकार की समस्याओं से जूझ रहे हैं वे लोग। इसके लिए आप क्या करना चाह रहे हैं? उनके हित का वातावरण बनाइए, उनमें हित का विश्वास पैदा कीजिए, तब वे आपकी बात मानेंगे। इस विषय में राजनीति नहीं होना चाहिए। पत्रकार - आचार्य श्री ! संसार आपको किस दिशा में जाता दिख रहा है? क्या अच्छा और क्या बुरा हो रहा है? तत्काल किसे बदलना चाहिए? आचार्य श्री - हमें संसार नहीं देखना है; जो बुरा हो रहा है उसे देखकर सम्भलना है। ७0 साल में हम इण्डिया तो आ गए और देश की क्या स्थिति है; उसको सब अनुभव कर रहे हैं। अब भारत की ओर लौटना है, जिससे सभी हाथ मजबूत बनें, सभी का जीवन सुखमय बनें। आप लोग भारत में लौटना नहीं चाहते हो; यही सब गड़बड़ हो रहा है। पत्रकार - आचार्य श्री! आपकी दीक्षा को उनन्चास साल पूरे हो गए। उनन्चास साल में आप स्वयं अध्यात्म की ओर अग्रसर हुए और दीक्षा देकर अनेकों साधु-साध्वियों को भी अध्यात्म की ओर अग्रसर किया तथा देश, समाज, संस्कृति की सेवा कार्य के लिए अनेकों को जोड़ा इस कठिन कार्य को आपने कैसे किया? आचार्य श्री - मैंने नहीं किया। यह तो होता चला गया, गुरु की कृपा थी और गुरु के संदेश से प्रेरणा लेकर हम आगे बढ़ते गए। सब कुछ गुरु की कृपा से हुआ है। पत्रकार - आचार्य श्री! मानव जीवन को आप क्या संदेश देना चाहेंगे, जिससे सबका विकास हो और सब अध्यात्म की ओर बढ़कर सेवा कार्य की ओर बढ़ें? आचार्य श्री - हमारा यही संदेश है कि सबको अपना कर्तव्य करना चाहिए। करने योग्य कार्य हम नहीं करें और दूसरे का हित चाहते रहें तो यह कभी भी संभव नहीं है। आप दूसरे के हित के बारे में सोचें और कर्तव्य करते जाएँ तो आपका प्रभाव अपने आप दूसरों के ऊपर पड़ता है और दूसरे आपके कार्य से आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सकेंगे। जैसे सूरज बहुत दूर रहता है; वह अपना कर्तव्य करता है, पर का हित होता चला जाता है इसलिए उसे देखकर सब खुश होते हैं। पत्रकार - आचार्य श्री! ऐसा देखने को मिलता है कि साधु-संत जगह-जगह घूमते हैं समाज के विकास के लिए और सरकार भी समाज हित में प्रयास करती है लेकिन बहुत बड़ा सामाजिक विकास या परिवर्तन देखने को नहीं मिलता; इस सम्बन्ध में आप क्या कहना चाहेंगे? आचार्य श्री - देखिए, समाज में परिवर्तन लाने के लिए पहले स्वयं को बदलना पड़ता है। हम बदलें नहीं और समाज को बदलना चाहें तो यह सम्भव नहीं है। इकाई के बिना समूह नहीं बनता। हम भी समाज की एक इकाई हैं। पहले इकाई तो परिवर्तित हो तब बाद में परिवर्तन की लहर चल पड़ती है। इकाई पलटे बिना समूह का पलटना कैसे सम्भव है? प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि पहले स्वयं बदले, स्वयं अपने कर्तव्यों द्वारा अपने जीवन में परिवर्तन लाए। इसमें किसी का कोई हस्तक्षेप ही नहीं सकता, किन्तु यह तो हो नहीं रहा है और इस प्रकार की शिक्षा भी नहीं दी जा रही है; अब बताओ क्या होगा? अब पूछोगे क्या करना चाहिए? तो इतिहास पढ़ना चाहिए और उससे शिक्षा लेना चाहिए। देश के हालात के बारे में सोचते हैं तो श्रम करने वाला मूल किसान है। उसके बारे में आज सही ढंग से सोचा ही नहीं जा रहा है, सोचा भी जाता है तो बीच में व्यापारी आ जाता है तो गड़बड़ होने लग जाती है। जब तक किसान के हाथ में उपज रहता है तब तक उसका मूल्य अलग रहता है। ज्यों ही व्यापारी के हाथ में आता है तो वह आसमान छूने लग जाता है। कहने का मतलब है कि किसान दुर्भाग्यशाली और व्यापारी सौभाग्यशाली बन जाता है। इस फर्क को मिटाना होगा। पत्रकार - आचार्य श्री! हम अन्तिम बात करते हैं कि हथकरघा,शिक्षा और गी सेवा के बारे में आप क्या चाहते हैं और सरकार को किस तरह मार्गदर्शन देना चाहते हैं? आचार्य श्री- हमने भोपाल में भी बताया था; अब फिर से बता देता हूँ व्यावसायिक नहीं होने देना चाहिए। इसी कारण से तो सब गड़बड़ हो रहा है और गौवंश को राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाना चाहिए क्योंकि कृषि प्रधान भारत की वह पहचान है।
  4. किसी भी काम के सम्वर्धन के लिए संरक्षण जरूरी होता है।आप अच्छे कार्यों का संरक्षण करते जाइए तो आपका कार्य गुणित पद्धति से बढ़ता जाएगा। संग्रह को सदुपयोग में लगाएँगे तो आपके कार्यों को सदियों तक याद रखा जाएगा। महापुरुषों को महान इसलिये कहा जाता है क्योकि उन्होंने सद्रकाय्र किये हैं, जनकल्याण की भावना के साथ। हथकरघा को संरक्षण और सम्वर्धन देंगे तो भावी पीढ़ी के लिए लाभदायक होगा। -१० नवम्बर २०१६, भोपाल
  5. 'शिक्षा और भारत'राष्ट्रीय परिचर्चा से पूर्व पत्रकार वार्ता ३ नबम्बर २o१६, भोपाल आयोजक-शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, नईदिल्ली एवं श्री दिगम्बर जैन पंचायत कमेटी ट्रस्ट, भोपाल पत्रकार - आज लोग भौतिक आवश्यकताओं के पराधीन हो गए हैं और सरकारों ने भी अपने मापदंड बना लिये हैं कि ऐसा विकास होगा तो ऐसा रहना चाहिए, तब ऐसी में पुरानी व्यवस्थाओं में कैसे आ पाएँगे, कैसे विकास होगा? आचार्य श्री - हम उन्हें यह कहना चाहते हैं कि विकास किसका नाम है? कौन विकसित हैं? और कौन विकासशील हैं? इन तीनों शब्दों पर एक साथ विचार करेंगे। हमारे सामने यदि कोई विकासशील है तो फिर विकसित कौन है? यदि विकसित के विना आप विकासशील के अन्तर्गत आ गए हैं या किसी के द्वारा लाया गया है, किन्तु आप विकासशील हैं नहीं। केवल अर्थव्यवस्था के कारण ऐसा अनर्थ हो रहा है। यह सब कुछ समझ में आ गया है इसलिए भारत को अपने आपको अपूर्णताशील में न गिन कर, विकसित हो करके और विकसित हो रहा है; ऐसा मानकर के चलिए और अपनी नीति को बदल दीजिए, अपनी वीथी को नहीं। वीथी का अर्थ होता है रास्ता। रास्ता हमें बदलना नहीं है क्योंकि हमें पश्चिम से पूर्व की ओर आना है। थोड़ा घूम जाओ बस। हम पश्चिम की ओर से पूरब की ओर आ जाएँगे एक सेकड में। थोड़ा घूम जाने मात्र से हम अपने भारत की ओर आ जाएँगे। हमें कहीं जाना-आना नहीं है हम तो वहीं पर ही हैं भारत में, किन्तु आज हम भारत में नहीं हैं, क्योंकि हम पश्चिम के समर्थन में उसकी नकल कर रहे हैं। हर वे अच्छे काम होने चाहिए, जिसके द्वारा सबका भला हो। लोकतंत्र अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण तंत्र है लेकिन यह ध्यान रखो कि स्वतंत्र होने के उपरांत भी स्वछंदता की ओर जा रहा है, यह देश का दुर्भाग्य है। हम यह कहना चाहते हैं कि सरकार कौन हैं? हम नहीं जान पाए। सरकार कौन है यदि जान गए होते तो यह नौबत नहीं आती। हम प्रजासता का उद्देश्य भूल रहे हैं। हम सरकार के ऊपर हैं। आज राजा है ही नहीं, फिर भी राजनीति चल रही है, यह सब गलत है। इसको मैं प्रकाशन करने योग्य नहीं समझता। जब राजा नहीं तो राजनीति क्या वस्तु है? जब प्रजातंत्र है तो स्वयं उसके हाथ में सत्ता है। आपके साथ सत्ता कहा गया और आपने मान लिया किन्तु सत्ता यदि आपके साथ होती तो जहाँ चाहे उपयोग करने के लिए स्वतंत्र हैं। हर कदम आपकी पसंद का होता, किन्तु ऐसा नहीं है। इसलिए विकासशील व्यक्ति नहीं, उत्कृष्ट कोई नहीं। भारत विकसित था अभी भी है, उधर देखने की आवश्यकता है। पत्रकार - महाराज जी देश में बहुत सारी समस्याएँ दिख रही हैं पर जाए? आचार्य श्री - इसकी उत्पत्ति की ओर भी अपने को देखना चाहिए। आपत्ति का कारण हम स्वयं भी हो सकते हैं। हमारी नीतियाँ भी हो सकतीं है। लगभग ३३ वर्ष पूर्व'मूकमाटी' महाकाव्य में थोड़ा-सा लिखा और उसकी भाषा हिंदी में ही है। उसमें आप देख सकते हैं। इसका जवाब अवश्य मिलेगा आपको कि आतंकवाद का मूल स्रोत क्या है? पत्रकार - महाराज जी! आतंकवाद का अंत हिंसा से ही होना चाहिए या अहिंसा से होना चाहिए? आचार्य श्री - हमेशा हिंसा से लड़ने के लिए हिंसा की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु अहिंसा किसी की हत्या नहीं करती, ऐसा भी नहीं है। हिंसा की हत्या करना ही तो अहिंसा है। रोग की हिंसा जब तक डॉक्टर नहीं करेगा तो रोगी-रोगी ही बना रहेगा। संक्षेप में मैं यह कहना चाहूँगा कि अहिंसा कायरता का काम है ही नहीं। कायरता के कार्य में रत होना ही शरीर का दास होना है; वही कायरता है। इसलिए अहिंसा की उपासना करने वाले कभी भी कायर नहीं होते किन्तु जो कायर-हिंसा है उसमें भी रत नहीं होते बल्कि पृथ्वीतल से उखाड़ देते हैं। भारत भूल गया; यह उसकी हिंसा का मूल कारण रहा। उसमें भी आज वह नंबर वन में आ गया है; इसको छोड़ देना चाहिए। पत्रकार - आचार्य श्री राजसत्ता और धर्मसत्ता यह हमेशा से चलते आ रहे हैं और जब राजसत्ता अपने पद से दाएँ-बाएँ हुई तो धर्मसत्ता ने उसका मार्गदर्शन किया है लेकिन उस राजसत्ता की ये इच्छा होती है कि धर्मसत्ता भी उसके अनुरूप चले; इस पर प्रकाश करें? आचार्य श्री - इसका अर्थ राजसता है, राजसत्ता नहीं। राजसता का अर्थ है तामसिक गुणों से युक्त। तीन गुण होते हैंसतोगुण रजोगुण और तमोगुण। राजसत्ता का अर्थ 'मूकमाटी' में यही लिखा है कि राजसता भी आ सकती है और राजसत्ता भी आ सकती है। राजा है ही नहीं तो आप राजसत्ता की बात क्यों कर रहे हैं? आज राजसता रौद्र ध्यान से ओतप्रोत होने के कारण सत्ता के रूप में उसका दुरुपयोग कर रहे हैं। लोकतंत्र में राजा कैसे विलुप्त हो गया? आपने लोकतंत्र को स्वीकारा और राजतंत्र को दूर कर दिया। स्वतंत्र होने के लिए क्या आवश्यकता थी? ७० साल से आप लोकतंत्र के पुजारी हैं, उसको सुरक्षित रखिए। लोकतंत्र की परिभाषा उसका स्वरूप, उसका गुणधर्म। आज तो उसके कर्तव्य किसी एक व्यक्ति के पास देखने को नहीं मिल रहे हैं फिर भी यह तंत्र चल रहा है-चलाते रहिए। पत्रकार - यह तो शिक्षा से ही संभव होगा? आचार्य श्री - बिल्कुल-बिल्कुल! शिक्षा से ही संभव है, इसीलिए तो मैंने कहा ना; आपको पूरब की ओर चलना है। पत्रकार - जिस तरीके से आप कह रहे हैं कि आज राजसत्ता में राजा नहीं है हम लोग तो देख रहे हैं जैसे आज राजशाही चल रही हो? आचार्य श्री - जैसे आप कह रहे हैं वैसे आप बदल दीजिए। जैसे को तो में मानता ही नहीं। हम तो जानते नहीं सबको, किसी को नाम से नहीं जानते। किसी व्यक्तित्व को भी नहीं, कुछ भी नहीं, हम तो इतना ही जानते हैं-यह राजसत्ता क्या है? पहले एक राजा होता था उसके हाथ में सत्ता रहती थी लेकिन वह प्रजा के बिना नहीं चलता था। यथा राजा तथा प्रजा। आज तो प्रत्येक व्यक्ति राजा है, राजा बन गए हैं आप और आपके हाथ में सत्ता है तो दूसरे को सरकार क्यों कह रहे हैं, आप थोड़ी-सी परिभाषा की ओर देखें। पत्रकार - अभी-अभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आपके दर्शन करने आए थे तो आपने उनको क्या मार्गदर्शन दिया और उनका रिस्पांस क्या रहा? आचार्य श्री - यह सब बातें आपको बता दीं पूर्व पीठिका के रूप में,इसके कई तत्व उनके पास आ गए होंगे, वो समझते हैं कि नहीं समझते मैं नहीं कह सकता। किस ढंग से उन्होंने सुना यह मैं नहीं कह सकता किन्तु यह बातें उनके पास आ गई होंगी। पत्रकार - आचार्य श्री चर्चा के दौरान आपको कुछ संकेत मिले काय? आचार्य श्री - हम इसको पहले से इसलिए नहीं खोलना चाहते हैं क्योंकि दो दिन की गोष्ठी में हम सारे के सारे राज खोलने वाले हैं। पत्रकार - आचार्य श्री आपने मतदान को लेकर कई बार मुद्वा उठाया है कि बहुत कम लोग वोट डालते हैं, सभी को वोट डालना चाहिए? क्या मतदान व्यावहारिक है? इस सम्बन्ध में आप प्रकाश डालें । आचार्य श्री - हाँ व्यावहारिक है। हमने घोषित कर दिया है और व्यवहार क्या है? अव्यवहार क्या है? मताधिकार मिला है तो अवश्य करना चाहिए। पत्रकार - अच्छा महाराज! आप यह बताएँ सत्य-अहिंसा का प्रयोग करके आजादी इस देश में आई थी किन्तु आज पूरा देश उससे दूर होता जा रहा है; ऐसे में क्या किया जाए? आचार्य श्री - देखिए! अहिंसा का लक्षण अभी समझ में नहीं आया ना और जिन्होंने स्वतंत्रता दिलाई थी उन्हें तो समझ में था किन्तु आपने शब्दों को रट लिया तो बताओ अब क्या होगा? और आप कह रहे हैं कि भारत तो विपरीत दिशा में जा रहा, आज अहिंसा है कहाँ? पत्रकार - आचार्य श्री! जो शक्तियाँ पूरब की तरफ ना ले जाकर पश्चिम की तरफ ले जा रही हैं, उनसे कैसे लड़ें? आचार्य श्री - उनका साथ मत दो, बस यही लड़ना है। आपके हाथ में सत्ता है आप उनके लिए क्यों कह रहे हो? आप तो अपनी सत्ता का उपयोग करो। तभी बच सकेगी पूरब की संस्कृति। पत्रकार - आचार्य भगवन्! जो आदमी हमको पहले बोलता है कि हम यह करेंगे, वह करेंगे और वे आज सत्ता में पहुँचने के बाद बदल जाते हैं तब क्या करें? आचार्य श्री - देखो, जब आपके हाथ में सब कुछ है, आप ही सरकार को बनाने वाले हैं, तो फिर आप लोग कहाँ जा रहे हैं, आप अपने कर्तव्य से विमुख हो रहे हैं, उसी का परिणाम है। जिस प्रकार आप लड़के को भेज देते हो किसी नगर में अध्ययन करने के लिए और वह उतीर्ण नहीं होता। तो आप एक बार, दो बार, तीन बार देखते और फिर कहते हो-बेटा, अब वापस आ जाओ। अब लाइन बदल दो। सुन रहे हैं आप?. तो फिर आप लोग.। पत्रकार - हम लोगों ने वापस नहीं बुलाया उन्हें? आचार्य श्री - हाँ! यह गलती कर दी। अब इस गलती को सुधार लीजिए आप। बस, इतना ही करना और लड़के को आप बुला लीजिए, आधे में बुला लीजिए। यदि वह दो पहिए का स्कूटर या मोटरसाइकिल चाहता है तो; कह देना-बेटा! आ जा। हम तीन पहिया वाला दे देंगे तुमको। समझ गए ना। बच्चा तो समझ जाएगा, आप समझ जाओ पहले।
  6. हमेशा अग्रिम पंक्ति में रहने वाले लोग अपने पीछे वाली पंक्ति के लोगों को विस्मृत कर देते हैं जबकि जो अधिकार आगे वालों को होते हैं वही अधिकार अंतिम पंक्ति के व्यक्ति को भी होते हैं, परन्तु आगे वाला हमेशा अपने को श्रेष्ठ साबित करने में लगा रहता है, जरूरी नहीं कि जो ज्येष्ठ हो वही श्रेष्ठ हो। श्रेष्ठता का मापदंड बड़ेपन से नहीं बल्कि बड़प्पन से माना जाता है। जो बड़े होते हुए भी कभी अपने को बड़ा सिद्ध करने की होड़ में नहीं लगते उन्हीं के भीतर से बड़प्पन झलकता है। धर्म कभी भी ये नहीं सिखाता कि अपने अधिकारों का दुरुपयोग करो बल्कि वो तो हमेशा कर्तव्यों के पालन की सीख देता है। आप सभी अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना प्रारम्भ करें तो कभी अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ेगा। समाज की अंतिम पंक्ति के योग्य व्यक्तियो को भी उतना ही सम्मान मिलना चाहिए जितना अग्रिम पंक्ति के व्यक्ति को दिया जाता है तभी समान नागरिक संहिता का सिद्धान्त लागू हो सकेगा। -३१ अक्टूबर २०१६, सोमवार, भोपाल
  7. आज प्राचीनता की जगह आधुनिक पद्धति अपनाई जा रही है। भाषा और संस्कृति को लोप कर दोगे तो भाव जागृत कहाँ से करोगे? आपने आधुनिकता के रंग में अपना घर बना लिया है उसे घर कैसे कहेंगे? अपने सहज परिणामों तक पहुँचने के लिए, अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने के लिए जीवन से खरपतवार को हटाना होगा। आप अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देना प्रारम्भ करो। आज की आहार व्यवस्था दूषित हो रही है। बच्चे का सही पोषण नहीं हो पा रहा है क्योंकि आप सजग नहीं हो खान-पान के प्रति। आप मुझसे मार्ग पूछते हो; मैं बताता हूँ, पर आप चलते नहीं हो। जब तक दया धर्म जागृत नहीं होगा और आपको चिंता नहीं होगी-हानिकारक एवं दूषित भोजन से अपनी भावी पीढ़ी को बचाने की। आज कृषि में नए प्रयोगों से मूल कृषि को लुप्त किया जा रहा है। आज गंगा तो बह रही है, परन्तु आपने विकास के नाम पर उसे काली गंगा बना दिया है। इसी प्रकार आपकी आत्मा तो गंगा की तरह शुद्ध है, परन्तु आधुनिकता के नाम पर उसे दूषित आप बना रहे हो। आधुनिकता का लबादा उतारकर अपने प्राचीन मूल स्वरूप को पहचानो। जो वस्तुएँ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं सबसे पहले उनसे दूरी बनाना प्रारम्भ करो, अपने बच्चों का सुरक्षित भविष्य चाहते हो तो उस पर ध्यान देना प्रारम्भ करो। उसे 'मोबाइल मेन' नहीं बनाओ, उसे अच्छा मेन बनाओ। -२६ अक्टूबर २०१६, बुधवार, भोपाल
  8. भारतीय किसान प्राचीन विज्ञान के हिसाब से खेती करता आया है। खेती का तरीका बदल गया, परन्तु किसान वही है। किसान कई तरह के बीजारोपण करता है। पाँच जगह एक बार में बीज जाता है यंत्र के माध्यम से। यंत्र में ऊपर ढक्कन लगा रहता है। किसान फिर भी चौकस निगाह रखता है। खेत में फसल के साथ खरपतवार भी पैदा हो जाती है जिसे किसान उखाड़कर फेंकता जाता है; साथ में कुछ अनुपयोगी और कमजोर पौधों को उखाड़कर फेंकता जाता है। खरपतवार और फसल एक जैसी दिखती है तो सावधानी से हटाना पड़ता है। इसी प्रकार आप कर्मों को करते हो तो अच्छे कर्म के साथ बुरे कर्म भी करते हो, आप भी किसान के इस विज्ञान को समझकर गुण, धर्म को सुरक्षित रखने का पराक्रम करो। पूर्व के जो भाव थे उनका आपने लोप कर दिया। संस्कार भी लुप्त हो रहे हैं, खरपतवार को भी गेहूं समझकर ले रहे हो। भारतीय संस्कृति के सभी मूलभूत मापदंडों को ध्वस्त कर दिया है आपने। पुराने पदचिहों को मिटाकर नए कदम रखना प्रारम्भ कर दिया है। आप भी गेहूं की फसल की तरह बनो, खरपतवार (बेकार की चीज) मत बनो। वरना आपको भी उखाड़कर फेंक दिया जाएगा। भारतीय संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्तों को पकड़कर रखी उसके अनुसार जीवन बनाओ-जीयो तो गेहूँ की फसल के समान मूल्यवान बने रहोगे फिर कोई फेंकेगा नहीं उपयोग करेगा। -२६ अक्टूबर २०१६, बुधवार, भोपाल
  9. अज दोपहर में पंजाब और हरियाणा के राज्यपाल श्री कप्तान सिंह सोलंकी ने आचार्य श्री को श्रीफल समर्पित कर उनका आशीष ग्रहण किया। इस अवसर पर जनहित के अनेक मुद्दों पर दोनों के मध्य १५ मिनट तक चर्चा हुई। श्री सोलंकी जी ने कहा कि आप जैसे तपस्वी और मनीषियों के मार्गदर्शन से ही सबको ऊर्जा मिलती है और कार्य सही दिशा में होते हैं। राष्ट्रधर्म का पालन करना प्रत्येक नागरिक का परम कर्तव्य है और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना शासन और प्रशासन में बैठे लोगों का कर्तव्य है। सबसे बड़ा लोकतंत्र है भारत, जहाँ भाषा, धर्म, संस्कृति की आजादी प्रत्येक व्यक्ति को है। आचार्य श्री जी ने कहा कि जब लोकतंत्र है तो जनता को उसके पूर्ण अधिकारों की प्राप्ति होनी चाहिए तभी लोकतंत्र बहाल रह सकता है। शिक्षा को सुलभ और भारतीय परम्परा के अनुरूप बनाने में आप जैसे विद्वानों को जिम्मेदारी लेनी चाहिए तभी राष्ट्र की तकदीर और तस्वीर को बेहतर बनाया जा सकेगा। -२१ अक्टूबर २०१६, भोपाल
  10. अतीत के अनुभव का पुट होना चाहिए तभी दोनों आँखों से काम सही लिया जा सकता है। जिस पदार्थ का वर्तमान में ज्ञान हो रहा है वो अतीत के अनुभव से ही द्रव्य, क्षेत्र, काल का निमित्त कराता है। आज जो ज्योतिष से जाना जाता है ये निमित्तज्ञान तो हो सकता है, नैमितिकज्ञान नहीं हो सकता है। " वर्तमान के वशीभूत न होकर अपने सूत्रधार की तरफ देखोगे तभी आपके अभिनय से दर्शक प्रभावित होंगे। आपका सूत्रधार आपका अतीत है, उस अतीत को जानने के लिए आपको वर्तमान में ज्ञान की धारा के साथ विश्वास पूर्वक बहना होगा। -१९ अक्टूबर २०१६, गुरुवार, भोपाल
  11. आज परमाणु की शक्ति जो एकत्रित की गई है वो बहुत विनाशकारी है। आज राष्ट्र को सशक्त बनाने के पहले अपने आपको सशक्त बनाएँ। -१७ अक्टूबर २०१६, सोमवार, भोपाल
  12. यदि आप दूसरे से सत्य बुलवाना चाहते हो तो आपको भी सत्य को अंगीकार करना होगा। वात्सल्य चाहते हो तो अपने हृदय को वात्सल्य से भरना होगा। आज समाचार पत्रों में गरम खबरों का चलन ज्यादा हो गया है सही खबरों का नितांत अभाव हो गया है, आज अपनी विचारधारा थोपने का चलन बढ़ता जा रहा है। सब अपने विचारों को थोपने में लगे हैं। लोकतंत्र में किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता है किसी बात को मानने के लिए परन्तु अपनी बात पूरी निष्ठा और ईमानदारी से रखना चाहिए। सबको अपनी बात रखने का अधिकार है, अपने गुणों को रखने का अधिकार है, परन्तु किसी को किसी की आलोचना का अधिकार नहीं है, समालोचना होना चाहिये। दूसरों के गुणों की जो प्रशंसा करता है समाज में उसका महत्व बढ़ जाता है। जो अपनी आलोचना करता है दुनिया कभी उसकी आलोचना नहीं करती। समालोचना से साहित्यकार को भी समाज में स्वीकार किया जाता है। समाचार पत्रों को आलोचना की खबरों से बचकर समाज को सही दिशा देने वाले समाचार देना चाहिए तभी समाज और राष्ट्र को सही दिशा मिल सकेगी। -१२ अक्टूबर २०१६, बुधवार, भोपाल
  13. मुख्यमंत्री जी, आपको जनता ने विधायक बनाया था इसलिए जनता जो शासक है उसके भले के लिए सोचकर ही आगे कदम बढ़ाएँ क्योंकि केन्द्र कोई भी हो जनता केन्द्र बिंदु है। चुनाव के समय ही नहीं, आचार संहिता हमेशा के लिए लागू होना चाहिए। ७० साल हो गए आजादी को आज, परन्तु जनता का पक्ष कमजोर हो गया है। -२ अक्टूबर २०१६, भोपाल
  14. इतिहास पहले लिखा नहीं जाता बल्कि जब इतिहास बनता है फिर लिखा जाता है और इतिहास तब बनता है जब उसके लिए पुरुषार्थ किया जाता है। सरकार को अपने इतिहास से सबक लेकर जनहित में ऐसे कार्य करना चाहिए, जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो सके। भारत का गौरवशाली इतिहास हमें बताता है कि राम के जीवन की ऐसी गाथाएँ जिनको लक्ष्य बनाकर नीतियाँ बनायी जाएँ तो सार्थक परिणाम आएँगे। नीतिगत निर्णय ही सरकार को स्थिर और नेता को स्थाई बनाते हैं। रावण के पास नीतियों का भंडार था, परन्तु अपने लिए उन नीतियों को सार्थक नहीं बनाने के कारण उसकी पराजय हो गई। इसलिए नीतियों का सदुपयोग ही आपको स्थायित्व प्रदान करता है। जो व्यक्ति दूसरों के जीवन में व्यवधान उत्पन्न करते हैं कर्म उसके जीवन को अव्यवस्थित कर देते हैं। सरकार आपके द्वारा बनाई जाती है इसलिए सरकार की अच्छी नीतियों में अपने कर्तव्यों का पालन आपको भी करना है क्योंकि आप स्थाई हो, सरकार अस्थाई होती है।सरकार को ऐसे उद्योग नहीं लगाना चाहिए जिसमें हिंसा होती हो। -१८ सितम्बर २०१६, रविवार, भोपाल
  15. जैसे बड़ी-बड़ी वस्तुएँ क्रेनों के माध्यम से उठाई जाती हैं।उसी प्रकार हिम्मत, विश्वास और ताकत से ही अपनी भूमिका के दायित्व का भार उठाया जाता है। दायित्व भी उनको ही दिया जाता है जिसके सक्षम कंधे होते हैं। दायित्व का भार अनूठा होता है। यह भार उसे ही दिया जाता है जो इस भरोसे को पूरा करने की सामथ्र्य रखता हो क्योंकि जो जिसका रसिक होता है उसका पान वह आनंद के साथ करता है। दायित्व का निर्वहन करने वाला व्यक्ति जब उसमें रम जाता है तो जिस तरह संगीत की मधुर ध्वनि होती है उसी प्रकार कार्य में आनंद की ध्वनि उत्पन्न होती है। आप सब दायित्व से न घबराएँ। अपने आदर्श पुरुषों को समक्ष रखकर कार्य प्रारम्भ करें। लोकतंत्र में जो लोक का हो जाता है अर्थात् उसके प्रति समर्पित हो जाता है वही लोकतंत्र का पालन कर पाता है। बाँटो और राज्य करो, ये नीति इतिहास का एक हिस्सा रही है। प्रजा और राज ये दो पहलू हैं। प्रजा की रक्षा के लिए राजा को दायित्व दिया जाता है। 'यथा राजा तथा प्रजा' की कहावत को सार्थक तभी किया जा सकता है जब प्रजा को संतान के रूप में राजा देखता है क्योंकि संस्कृत में प्रजा को संतान कहा गया है। जीवन में जो क्षण मिले हैं उन्हें जी भर कर जियो और ये भूल जाओ कि कोई क्या कहेगा? कहना लोगों का काम है, करना आपका काम है। जो दायित्व मिला है, किसी भी स्थिति में पूर्ण करना आपका कर्तव्य है। राजा हमेशा प्रजा के लिए समर्पित भाव से कार्य करता है तो प्रजा भी अपना दायित्व निभाने के लिए तत्पर होती है। मत का मतलब मन का अभिप्राय होता है। लोकनीति लोक संग्रह है, लोभ संग्रह नहीं। आधी रात में मंत्रणा चल रही है, संघर्ष की घड़ी है, एक पल में इतिहास पलटने को है और इसी बीच एक पक्ष से एक संदेश मिलता है। राजा सोचता है कि क्या होने वाला है? फिर राजा उस संदेशवाहक को बुलवाता है तो वह आकर पत्र देता है, राजा उसे पढ़ता है। राजा राम के समक्ष विभीषण खड़ा होता है अपना प्रस्ताव लेकर। राजा के लिए मन पर भी विश्वास करना खतरनाक होता है क्योंकि मन दगाबाज होता है। लक्ष्मण सोचते हैं-राम जी को क्या हो गया, जो दुश्मन के भाई को आधी रात को बुलाया। विभीषण ने कहा कि मुझे धरती की रक्षा का सामथ्र्य राम के भीतर दिखाई देता है इसलिए मैं उनकी शरण में आया हूँ। ये सुनकर राम की सेना में सन्नाटा छा जाता है। सब अवाक् रह जाते हैं। विभीषण ने अपनी लंका की प्रजा की रक्षा के भाव से असत्याग्रह को छोड़कर सत्याग्रही बनने का भाव प्रकट किया। -४ सितम्बर २०१६, रविवार, भोपाल
  16. शासन तो शासन होता है और प्रजातंत्र प्रजातंत्र। हमें हमारे स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस का पूरा-पूरा सम्मान करना चाहिए। कर्तव्यों के क्षणों से कभी विमुख नहीं होना चाहिए। अहिंसा धर्म का पालन करते हुए अनीति को छोड़ नीतिपूर्वक कार्य करने के लिए संकल्पबद्ध होना चाहिए; तभी सच्चा प्रजातंत्र माना जायेगा। स्वतंत्रता दिवस मनाकर सरकार हो या आम जनता; इतने स्वतन्त्र नहीं हो गए कि आप गणतंत्र दिवस को उसके गणतंत्र को अर्थात् संविधान-कानूननीति-न्याय कर्तव्यों को भूल जाएँ। -२८ अगस्त, २o१६
  17. जिस तरह प्रशासिनक वर्ग स्थाई होता है उस तरह राजनेता स्थाई नहीं होता, राजनेता सीमित समय के लिए बनते हैं, किन्तु राजनेता को जो मौका मिलता है उसे सही दिशा में लगा दे तो फिर जनता उन्हें भी स्थाई बना देते हैं। जो देशहित में उचित निर्णय ले, नि:स्वार्थ सेवाभावी हो, स्वच्छ छवि वाला हो, निष्पक्षी हो, निरहंकारी हो, संस्कृति का जानकार हो। इतनी योग्यताओं के साथ कार्य करने वाला हो। -२६ अगस्त २o१६, भोपाल
  18. जो जितना नपा-तुला होता है उसका उतना महत्व होता है।सीमा रेखा का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। जो निर्धारित मापदंड बनाए गए हैं उनका पालन होना चाहिए। जो सीमा का उल्लंघन करता है उसे दंड का भागी बनना पड़ता है। अतिथि सत्कार आपका परम धर्म है परन्तु आगंतुक अतिथि या भिक्षुक सीमा रेखा पार करे तो सावधान हो जाना चाहिए। लक्ष्मण जी सीमा रेखा बनाकर गए, उसकी मर्यादा को पार किया सीता ने; तो उसका अपहरण हो गया। वैसे ही हम यदि सरकार की सीमा रेखा का उल्लंघन करते हैं तो हमारे सुख-चैन का अपहरण हो जाता है। यदि हम प्रकृति की सीमा रेखा को तोड़ते हैं तो हमारे मानव जीवन का हरण हो जाता है। हमारी सृष्टि को नुकसान पहुँचता है। प्रत्येक क्षेत्र में सावधानी-मर्यादा को रखना अनिवार्य है चाहे परिवार हो, समाज हो, नगर हो देश हो या विश्व हो तभी वहाँ शान्ति रह सकती है। कर्म की रेखा के कारण संसार में महापुरुषों को भी बहुत कुछ भोगना पड़ता है। ये सीख हमें रामायण की कुछ घटनाओं से मिलता है। सबके जीवन में परिवर्तन पुरुषार्थ के अन्तर्गत किया जा सकता है। अपने पुरुषार्थ से कर्म के लेखे को भी परिवर्तित किया जा सकता है, परन्तु वो पुरुषार्थ तभी प्रारम्भ हो सकता है जब परमार्थ प्रारम्भ होता है। आदर्श महापुरुषों के मार्ग का अनुसरण करके हम अपने जीवन को आदर्शमयी बना सकते हैं। जब शनिवार आएगा तभी तो रविवार आएगा। कभी सोमवार के बाद रविवार नहीं आता इसलिए अच्छे समय का भी इंतजार करो क्योंकि वो भी निर्धारित समय परं आता है। समय से पहले महाप्रलय को नहीं बुलाना चाहिए, वरना अपनी आँखों के सामने अपने मानव जीवन को मिटते देख नहीं पाओगे। -२२ अगस्त २o१६, भोपाल
  19. राजा तो राजा होता है, जो कभी कर्तव्यविमुख नहीं होता,परन्तु आज राजा छोटे से संकट में भी धर्म से किनारा करने लग जाते हैं। आज इतिहास लुप्त होने के कारण हम संस्कृति को विलोपित करते जा रहे हैं। इतिहास के पुनर्जागरण की आवश्यकता है, उसे युवा शक्ति को समझने की जरूरत है। निष्ठा के अभाव में प्रतिष्ठा भी कुछ नहीं कर सकती है। नि:स्वार्थ व्यक्ति ही जीवन में प्रतिष्ठा पाने के योग्य होता है और संसार में तालियाँ भी उसी के लिए ही बजती हैं। जो आपके बारे में हित, मित और प्रिय सोचे वही सच्चा मित्र होता है और जो एक दूसरे के पूरक हों वे सच्चे दोस्त होते हैं, अगर आप सरकार और जनता एक दूसरे के पूरक बन जाएँ तो राष्ट्र-जीवन में आनंद ही आनंद हो जाए, विकास ही विकास हो जाए, देश विकसित कहलाए। -१४ अगस्त २०१६, भोपाल
  20. किसी दूसरे राष्ट्र को देखकर कोई भी राष्ट्र विकसित नहीं हो सकता। इसलिए भारत को विकासशील राष्ट्र कहना बंद करो। भारत पहले से ही विकसित राष्ट्र है। भारत अब ७० साल का हो चुका है। एक तरह से परिपक्व राष्ट्र हो चुका है। हमारे नेता आज भी भारत को विकासशील राष्ट्र कहते हैं। हम ७० साल से यही सुनते आ रहे हैं। कहा जाता है कि अमेरिका, है। दरअसल हम इसलिए विकासशील हैं कि हम दूसरे राष्ट्रों को देखकर विकास की अवधारणा बना रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और विकसित राष्ट्र है। हमें इस नीति से धर्म, सामाजिकता, संसाधन आदि को देखते हुए नीति बनाना होगी। दूसरे राष्ट्र की स्थिति-परिस्थिति पर विचार कर अपने योग्य अनुकरण करना ही समझदारी होगी। हम विकसित थे, हैं, रहेंगे, बस! पीछे देखकर चलने की जरूरत है। -११ अगस्त २०१६, भोपाल
  21. प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज; (डोंगरगढ़) {9 दिसंबर 2017} चंद्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागर महाराजजी ने कहा की समन्वय से गुणों में वृद्धि हो तो वह सार्थक है किन्तु यदि समन्वय से गुणों में कमी आये तो वह समन्वय विकृत कहलाता है। उदाहरण के माध्यम से आचार्यश्री ने समझाते हुए कहा की यदि दूध में घी मिलाया जाये तो वह उसके गुणों को बढाता है जबकि दूध में मठा मिलाते हैं (कुछ लोग कहते हैं दूध भी सफ़ेद होता है और मठा भी सफ़ेद होता है) तो वह विकृति उत्पन्न कर देता है। मठा में यदि घी मिलाया जाये तो वह अपचन कर सकता है परन्तु उसी घी का यदि बघार मठा में मिलाया जाये तो वह पाचक तो होगा ही और उसके स्वाद में भी वृद्धि हो जायेगी। इसी प्रकार सुयोग समन्वय से गुणों में वृद्धि होती है। आप लोग कहते हो डॉक्टर के पास जाना है डॉक्टर तो उपाधि होती है एलोपेथिक चिकित्सा के लिए चिकित्सक होता है और आयुर्वेदिक चिकित्सा के लिए वैद्य या वैदराज होता है जो आज कल कम सुनने को मिलता है। वर्तमान में आपकी तबियत खराब हो जाये या शरीर में कोई तकलीफ आ जाये तो आप लोग दवाइयों का सेवन करते हो जबकि पहले के लोग भोजन को ही औषधि के रूप में सेवन करते थे और उनकी दैनिक चर्या ऐसी होती थी की वे कभी बीमार ही नहीं पड़ते थे। डॉक्टर और बीमारी दोनों उनके पास आने से डरती थी। आप लोग सभी जगह आने-जाने में वाहन का उपयोग करते हो इसकी जगह यदि आप पैदल चलें तो आपकी आधी बीमारी तो यूँ ही दूर हो जायेगी। आचार्यश्री ने कहा कि ‘मन से करो, मन का मत करो’। आपको यदि स्वादानुसार अच्छा भोजन मिल जाये तो आप उसका सेवन आवश्यकता से अधिक कर लेते हैं जिससे आपका पेट कहता तो नहीं है परन्तु आपको एहसास होता है की पेट अब मना कर रहा है परन्तु आप फिर भी अतिरिक्त सेवन करते हैं तो उसे पचाना मुश्किल होता है और फिर आपको उसे पचाने के लिए पाचक चूर्ण या दवाई आदि का उपयोग करना पड़ता है। आप लोगों से अच्छे तो बच्चे हैं जो पेट भरने पर और खाने से तुरंत मन कर देते हैं। इसलिए दोहराता हूँ कि ‘मन से करो, मन का मत करो’। गृहस्थ में धर्म, अर्थ और काम होता है जबकि मोक्ष मार्ग में केवल संयम ही होता है। मुमुक्षु की सब क्रियाएं गृहस्थ के विपरीत होती है जैसे आप बैठ के भोजन लेते हैं जबकि मुमुक्षु खड़े होकर आहार लेते हैं, आप थाली में परोस कर लेते हैं, जबकि मुमुक्षु कर पात्र (दोनों हाथ मिलाकर) करपात्र में आहार लेते हैं। आपको सोने के लिए आरामदायक बिस्तर, तकिया आदि की आवश्यकता होती है जबकि मुमुक्षु लकड़ी के चारपाई, भूमि आदि में शयन करते हैं। आप लोग जब मन चाहे चट-पट जितनी बार चाहो खा सकते हो जबकि मुमुक्षु दिन में एक बार ही आहार करता है। इसी प्रकार मोक्ष मार्ग में वीतरागी देव, शास्त्र और गुरु का समन्वय आवश्यक है तभी कल्याण होना संभव है। दिनांक 09/12/2017 एवं 10/12/2017 को चंद्रगिरी तीर्थ क्षेत्र में निःशुल्क चिकित्सा शिविर का आयोजन किया गया है जिसमे सभी प्रकार के रोगों का बाहर से आये आयुर्वेदिक चिकित्सकों द्वारा ईलाज किया जा रहा है एवं मरीजों के लिए निःशुल्क भोजन की व्यवस्था की गयी है। आज डोंगरगढ़ से एवं आसपास के ग्रामीण क्षेत्र के सैकड़ों लोगों ने अपना इलाज करवाकर लाभ लिया जैसे बी.पी., शुगर, सिरदर्द, माईग्रेन, खुजली, अस्थमा आदि बिमारियों का ईलाज निःशुल्क आयुर्वेदिक औषधि एवं योग प्राणायाम के द्वारा किया गया। यह जानकारी चंद्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
  22. भारतीय संस्कृति एक सभ्य और शालीन सुसंस्कृत संस्कृति है। इस संस्कृति में वेशभूषा का अपना महत्व है। मनोविज्ञान इस बात पर प्रकाश डालता है कि व्यक्ति के कपड़ों को देखकर उसकी मानसिक स्थिति का पता लगाया जा सकता है। आजकल तो फटे कपड़े पहनना फैशन बन गया है। कपड़े फाड़-फाड़ कर पहने जा रहे हैं। समाज के प्रतिष्ठित वर्ग के बच्चे या राजनेताओं के बच्चे ऐसी वेशभूषा पहनते हैं जिनको देखकर शर्म आ जाए। २-३ जगह कपड़े को फाड़ देते हैं और उसमें या तो थिगड़ा लगा हुआ है या नहीं लगा हुआ है। उसमें कई सारे जेब होते हैं। उनको देखकर लगता है कि ये आखिर क्या दिखाना चाहते हैं? क्या करना चाहते हैं? ये तो लोकतंत्र नहीं है। निमित्तज्ञानियों ने लिखा है-इस प्रकार यदि कोई फटा हुआ कपड़ा पहनता है, तो वह मंगलकारी नहीं होता, वह दरिद्रता लाता है। भले गंदा कपड़ा पहन लेना ठीक है, किन्तु फटा हुआ तो शुभ नहीं माना गया। आप सभी यदि सज्जन हैं, सज्जनता की कोटि में बने रहना चाहते हैं, तो बच्चों को ऐसे फटे हुए कपड़े की फैशन करने से रोकें, क्योंकि यह विदेशी कूटनीति हो सकती है कि भारतीय लोग फटे हुए कपड़े पहनेंगे तो भारत नीचे गिर जाएगा। संस्कार विहीन होकर संस्कृति को खो देगा और हमारा मार्केट तैयार हो जाएगा। विदेशी शिक्षा का यही फल है। मैं किसी की आलोचना नहीं करना चाहता, किन्तु सांस्कृतिक समालोचना से अपने आपको नहीं बचा पा रहा हूँ। आज आप सब लोग संकल्प लें कि कोई भी व्यक्ति स्वयं और अपने बच्चों को फटे हुए वस्त्र; भले ही वे सस्ते क्यों न हों, या बहुत सुन्दर, बहुत अच्छे ही क्यों न हों, नहीं पहनेंगे, नहीं पहनाएँगे, क्योंकि आप सभी लोग अपना अमंगल नहीं चाहते हैं। अष्टांग निमित्त में फटे हुए वस्त्र भी एक निमित्त हैं। भारतीय वेशभूषा अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। कमर में यदि दर्द हो तो कमर कसो जैसे गांधी जी धोती पहनते थे। वे कहते थे भारत को भारत ही रहने दीजिए, उसको विदेश न बनाया जाए। आज जो कुछ भी बचाखुचा रह गया है उसको फैकफाक करके भारतीयता की ओर दृष्टिपात करें। मैंने जो कुछ भी कहा वह श्रुति के निमित से कहा। आप जागृत हो जाएँ। -३१ जुलाई २०१६, भोपाल
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