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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 17अ - श्रावक के विकास का क्रम- प्रतिमा विज्ञान

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    आत्म कल्याण का इच्छुक कोई व्यक्ति जब गुरु के पास पहुँचता है तब सर्वप्रथम गुरु उसे पाँच पापों के पूर्ण त्यागरूप महाव्रतों का उपदेश देते हैं। वह भव्यात्मा शक्तिहीनता तथा चारित्रमोहनीय कर्म के उदय वशीभूत हो यदि सकल संयम धारण नहीं कर पाता है तो उसे श्रावक के योग्य व्रतों / धर्म का उपदेश दिया जाता है।

    श्रावक शब्द तीन अक्षरों के योग से बना है श्र, व, क । इसमें 'श्र' शब्द श्रद्धा का, 'व' विवेक का तथा 'क' कर्तव्य का प्रतीक है अर्थात जो श्रद्धालु और विवेकी होने के साथ - साथ कर्तव्य निष्ठ हो वह श्रावक है।

    श्रावक के तीन भेद कहे गये है -

    1. पाक्षिक
    2. व्रतिक अथवा नैष्ठिक
    3. साधक

     

    पाक्षिक श्रावक

    जो पाक्षिक श्रावक असि, मसि, कृषि, शिल्प, सेवा और वाणिज्य रूप गृहस्थों के योग्य कार्यों को करता हुआ जिनेन्द्र भगवान का पक्ष रखता है, शक्ति को न छिपाते हुए पाँच पाँपों के त्याग का अभ्यास करता है, सप्त व्यसन का त्याग करता है, अष्टमूलगुणों को धारण करता है तथा कुलाचार का पालन करता हुआ रात्रि भोजन का त्याग करता है पानी छानकर पीता है एवं प्रतिदिन देव दर्शन करता है। किसी भी निमित से 'संकल्प पूर्वक त्रस जीवों की हिंसा नहीं करूंगा" इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके मैत्री, प्रमोद आदि भावनाओं से सहित होते हुए हिंसा का त्याग करना पक्ष है और इस पक्ष सहित श्रावक पाक्षिक श्रावक कहलाता है।

     

    व्रतिक अथवा नैष्ठिक श्रावक

    व्रतधारी श्रावक नैष्ठिक श्रावक कहलाता है। पूरी निष्ठा से व्रतों का पालन करने वाला, श्रावक की दार्शनिक आदि ग्यारह प्रतिमाओं (संयम स्थान) को धारण करने वाला पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या से युक्त श्रावक, नैष्ठिक श्रावक' कहा जाता है।

     

    ग्यारह प्रतिमा उत्तरोत्तर विकास की श्रेणियाँ हैं जिनके नाम क्रमश: दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित विरत, दिवा मैथुन त्याग अथवा रात्रि भुक्ति विरत, ब्रह्मचर्य, आरम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग तथा उद्दिष्ट त्याग है।

    1. दर्शन प्रतिमा - पाक्षिक श्रावक के आचरणों के संस्कार से निश्चल और निर्दोष हो गया है सम्यग्दर्शन जिसका ऐसा संसार, शरीर भोगों से अथवा संसार के कारणभूत भोगों से विरक्त, पज्चपरमेष्ठी के चरणों का भक्त, मूलगुणों में से अतिचारों का दूर करने वाला, व्रतिक आदि पदों को धारण करने में उत्सुक तथा शरीर को स्थिर रखने के लिए न्यायाकूल आजीविका को करने वाला व्यक्ति दर्शन प्रतिमाधारी माना गया है।
    2. व्रत प्रतिमा - पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का निरतिचार पालन करने वाला व्रत प्रतिमा धारी श्रावक कहलाता है। इस प्रकार बारह व्रतों का पालन द्वितीय व्रत प्रतिमा से प्रारम्भ होता है। बारह व्रतों का वर्णन आगे किया जायोगाद्ध
    3. सामायिक प्रतिमा - पूर्वग्रहीत व्रतों के साथ तीनों सन्ध्याओं में कम से कम 48 मिनट तक सर्व संकल्प विकल्पों को छोड़ कर आत्म चिन्तन करने वाला सामायिक प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है।
    4. प्रोषधोपवास प्रतिमा - पूर्व की तरह पर्व के दिनों में उपवास को व्रत के रूप में करने वाला श्रावक प्रोषधोपवास प्रतिमाधारी कहलाता है। पूर्व में वह व्रत को अभ्यास के रूप में करता था।
    5. सचित विरति - सचित पदार्थों का त्याग कर साग सब्जी आदि वनस्पति को अग्नि से संस्कारित करके खाने वाला पंचम प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है। यह पानी को भी उबालकर ही पीता है।
    6. रात्रि भुक्ति त्यागी अथवा दिवा मैथुन त्यागी - छटवीं प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक मन-वचन-काय से रात्रि भोजन का त्याग करता है तथा रात्रि भोजन की अनुमोदना भी नहीं करता। अथवा दिन में मन-वचन काय से स्त्री मात्र के संसर्ग का त्याग करता है।
    7. ब्रह्मचर्य प्रतिमा - पूर्वोक्त संयम के माध्यम से अपने मन को वश में करता हुआ मन-वचन-काय से स्त्री मात्र के संसर्ग का त्याग करने वाला श्रावक ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी कहलाता है।
    8. आरम्भ विरत प्रतिमा - ब्रह्मचारी बन जाने के बाद संसार के कार्यों से उदासीन होता हुआ सभी प्रकार के व्यापार, कृषि कार्य, आरम्भ आदि का त्याग करने वाला आरम्भ विरती श्रावक कहलाता है।
    9. परिग्रह विरत प्रतिमा - पहले की आठ प्रतिमाओं का पालन करने वाला श्रावक जब अपनी जमीन-जायजाद से अपना स्वामित्व छोड़ देता है, उद्योग धन्धा पुत्रों को सौप कर गृहस्थ सम्बन्धी दायित्व से मुक्त हो जाता है। वह परिग्रह विरत प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है। यह श्रावक घर में रहता हुआ, पुत्रों द्वारा सलाह मांगने पर उन्हें सलाइ दे सकता है।
    10. अनुमति - विरत प्रतिमा घर-गृहस्थी एवं व्यापार कार्यों में किसी भी प्रकार के परामर्श, अनुमति देने का त्याग करने वाला अनुमति-विरत श्रावक कहलाता है। वह प्राय: घर में न रहकर मंदिर चैत्यालय में रहता है और अपना समय स्वाध्याय चिन्तन आदि में ही व्ययतीत करता है तथा अपने घर एवं अन्य किसी साधर्मी बन्धु का निमन्त्रण मिलने पर ही भोजन ग्रहण करता है।
    11. उद्दिष्ट त्याग - यह श्रावक की सर्वोत्कृष्ट भूमिका है। इस भूमिका वाला साधक गृह त्याग कर मुनियों के पास रहने लगता है तथा भिक्षावृत्ति से भोजन करता हुआ, जीवन यापन करता है। इस प्रतिमाधारी के दो भेद कहे गये हैं - क्षुल्लक व ऐलक।

    इस प्रकार दार्शनिक से लेकर उद्दिष्ट त्यागी तक नैष्ठिक श्रावक के ग्यारह भेद हैं। पहली से छटवीं प्रतिमा तक के श्रावक जघन्य, सातवीं से नवमीं तक मध्यम एवं दशवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं। ३. साधक श्रावक –

     

    जीवन के अन्त में मरण काल सम्मुख उपस्थित होने पर भोजन पानादि का त्याग कर विशेष प्रकार की साधनाओं द्वारा सल्लेखना पूर्वक देह-त्याग करने वाले श्रावक साधक श्रावक कहलाते हैं। सल्लेखना में क्रमश: शरीर और कषायों को कृश किया जाता है।

     

    इस प्रकार श्रावक क्रमश: पापों से बचता हुआ धर्म मार्ग में प्रवृत होकर अन्त में समाधिमरण को प्राप्त होता हुआ सोलह स्वर्गों के वैभव को प्राप्त होता है। तथा वहाँ पर प्रभुभक्ति एवं सम्यम्त्व की आराधना करता हुआ काल व्यतीत कर पुन: मनुष्य जन्म धारण करता है। एवं आत्म शक्ति को संचित कर मुनिव्रत को स्वीकारता हुआ समस्त कर्मों का क्षय कर मुक्ति प्राप्त करता है।


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