आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी ( ईसा सन्की द्वितीय शताब्दी ) दिगम्बर साहित्य के महान प्रणेता थे। यह समयसार ग्रन्थ आपकी सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक कृति है। यहाँ समय शब्द के दो अर्थ विवक्षित है- समस्त पदार्थ और आत्मा। जिस ग्रन्थ में समस्त पदार्थों अथवा आत्मा का सार वर्णित हो, वह समयसार है। यह ग्रन्थ दश अधिकारों में विभक्त है
१. जीवाधिकार २. कर्ताकर्म अधिकार ३. पुण्यपाप अधिकार ४. आस्रव अधिकार ५. संवर अधिकार ६. निर्जरा अधिकार ७. बन्ध अधिकार ८. मोक्ष अधिकार ९. सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार १०. स्याद्वाद अधिकार
प्रथम जीवाधिकार में स्व-समय, पर-समय, शुद्धनय, आत्मभावना और सम्यकत्वका प्ररूपण है। जीव को कामभोग विषयक बन्धकथा ही सुलभ है। किन्तु आत्मा का एकत्व दुर्लभ है। एकत्व-विभक्त आत्मा को निजानुभूति द्वारा ही जाना जाता है। जीव प्रमत्त, अप्रमत्त दोनों दशाओं से पृथक ज्ञायकभावमात्र है। ज्ञानी के दर्शन, ज्ञान, चारित्र व्यवहार से कहे जाते हैं, निश्चय से नहीं। निश्चय से ज्ञानी एक शुद्ध ज्ञायकमात्र ही है। इस अधिकार में व्यवहार नय को अभूतार्थ और निश्चय को भूतार्थ कहा है।
दूसरे कर्ताकर्माधिकार में आस्रव, बन्ध आदि की पर्यायों का विवेचन किया गया है। आत्मा के मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति ये तीन परिणाम अनादि से हैं। जब इन तीन प्रकार के परिणामों का कर्तृत्व होता है, तब पुदगलद्रव्य स्वयं कर्मरूप परिणमन करता है। परद्रव्य के भाव का जीव कभी भी कर्ता नहीं होता है।
तीसरे पुण्य-पाप अधिकार में शुभाशुभ कर्मस्वभाव वर्णित है। अज्ञानपूर्वक किये गये व्रत, नियम,शील और तप मोक्ष के कारण नहीं हैं। जीवादि पदार्थों का श्रद्धान, उनका अधिगम और रागादि भाव का त्याग मोक्ष का मार्ग बतलाया है।
चौथे आस्रवाधिकार में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग और कषाय आस्रव बतलाये गये हैं। वस्तुत: राग, द्वेष, मोहरूप परिणाम ही आस्त्रव हैं। ज्ञानी के आस्त्रव का अभाव रहता है। अत: राग-द्वेष-मोहरूप परिणाम के उत्पन्न न होने से आस्त्रव प्रत्ययों का अभाव कहा जाता है।
पाँचवें संवर अधिकार में संवर का मूल भेदविज्ञान बताया है। इस अधिकार में संवर के क्रम का भी वर्णन है।
छठवे निर्जरा अधिकार में द्रव्य, भावरूप निर्जरा का विस्तारपूर्वक निरूपण किया है। ज्ञानी व्यक्ति कर्मों के बीच रहने पर भी कर्मों से लिप्त नहीं होता है, पर अज्ञानी कर्म रज से लिप्त रहता है।
सातवें बन्धाधिकार में बन्ध के कारण रागादि का विवेचन किया है।
आठवें मोक्षाधिकार में मोक्ष का स्वरूप और नववें सर्व विशुद्ध ज्ञानाधिकार में आत्मा का विशुद्ध ज्ञान की दृष्टि से अकर्तृत्व आदि सिद्ध किया है।
अन्तिम दशम अधिकार में स्याद्वाद की दृष्टि से आत्मस्वरूप का विवेचन किया है। इस ग्रंथ में आचार्य अमृतचन्द्र जी का टीकानुसार ४१५ गाथायें और जयसेनाचार्य जी की टीका के अनुसार ४३९ गाथायें हैं। शुद्ध आत्मा का इतना सुन्दर और व्यवस्थित विवेचन अन्यत्र दुर्लभ है।