Jump to content
सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 30ब - एक अदभुत प्रक्रिया - समुदधात

       (1 review)

    अपने मूल शरीर को न छोड़कर, तैजस और कार्मण शरीर के प्रदेशों सहित, आत्मा के प्रदेशों का शरीर के बाहर निकलना समुद्धात कहलाता है। समुद्वात सात प्रकार के होते हैं - १. वेदना समुद्वात, २. कषाय समुद्वात, ३. विक्रिया समुद्वात, ४. मारणान्तिक समुद्धात, ५. तैजस समुद्धात, ६. आहारक समुद्धात, ७. केवली समुद्धात ।

     

    वात, पितादि विकार जनित रोग या विषपान आदि की तीव्रवेदना से मूल शरीर को छोड़े बिना आत्म प्रदेशों का बाहर निकलना वेदना समुद्धात है। कषाय की तीव्रता से आत्म प्रदेशों का अपने शरीर से तिगुने प्रमाण फैलने को कषाय समुद्धात कहते हैं। जैसे-संग्राम में योद्धा लोग क्रोध में आकर लाल-लाल आँखें करके अपने शत्रुओं को देखते हैं, यह प्रत्यक्ष देखा जाता है। यही समुद्धात का रूप है।

     

    शरीर या शरीर के अङ्ग बढ़ाने के लिए अथवा अन्य शरीर बनाने के लिए आत्मप्रदेशों का मूल शरीर को न छोड़कर बाहर निकल जाना विक्रिया समुद्वात है। विक्रिया समुद्वात देव व नारकियों के तो होता ही है, किन्तु विक्रियाऋद्धिधारी मुनीश्वरों के तथा भोगभूमियाँ जीव अथवा चक्रवर्ती आदि के भी विक्रिया समुद्धांत होता है। तिर्यच्चों में भी विक्रिया समुद्धात होता है। अग्निकायिक, वायुकायिक जीवों में भी विक्रिया समुद्धात होता है।

     

    मरण के अन्तर्मुहूर्त पहले, मूल शरीर को न छोड़कर, जहाँ उत्पन्न होना है, उस क्षेत्र का स्पर्श करने के लिए आत्म प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना मारणान्तिक समुद्धात है। जैसे- सर्विस करने वालों का ट्रांसफर हो गया है तो जहाँ जाना है वहाँ पहले जाकर मकान, आफिस आदि देखकर वापस आ जाते हैं, फिर परिवार सहित सामान लेकर चले जाते हैं।

     

    संयमी महामुनि के विशिष्ट दया उत्पन्न होने पर अथवा तीव्र क्रोध उत्पन्न होने पर उनके दाएँ अथवा बाएँ कंधे से तैजस शरीर का एक पुतला निकलता है, उसके साथ आत्मप्रदेशों का बाहर निकलना तैजस समुद्धात कहलाता है। तैजस समुद्धात दो प्रकार का होता है - शुभ तैजस समुद्धात एवं अशुभ तैजस समुद्धांत। जगत् को रोग दुर्भिक्ष आदि से दु:खित देखकर जिनको दया उत्पन्न हुई है, ऐसे महामुनि के मूल शरीर को न छोड़कर दाहिने कंधे से सौम्य आकार वाला सफेद रंग का एक पुतला निकलता है, जो १२ योजन में फैले हुए दुर्भिक्ष, रोग आदि को दूर करके वापस आ जाता है। तपोनिधान महामुनि के क्रोध उत्पन्न होने पर मन में विचार की हुई विरुद्ध वस्तु को भस्म करके और फिर उस ही संयमी मुनि को भस्म करके नष्ट हो जाता है। यह मुनि के बाएँ कंधे से सिंदूर की तरह लाल रंग का बिलाव के आकार का, बारह योजन लंबा, सूच्यंगुल के संख्यात भाग प्रमाण मूल विस्तार और नौ योजन चौड़ा रहता है।

     

    आहारक ऋद्धि वाले मुनि को जब तत्व सम्बन्धी तीव्र जिज्ञासा होती है, तब उस जिज्ञासा के समाधान के लिए उनके मस्तक से एक हाथ ऊँचा सफेद रंग का पुतला निकलता है, जो केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में जाकर, विनय से पूछकर अपनी जिज्ञासा शांतकर मूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। यह तीर्थवंदना आदि के लिए भी जाता है।

     

    जब केवली भगवान् की आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रहती है एवं शेष ३ अघातिया कर्मों की स्थिति अधिक हो तो आयुकर्म के बराबर स्थिति करने के लिए आत्मप्रदेशों का दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण के माध्यम से बाहर निकलना होता है, उसे केवली समुद्धात कहते हैं। जैसे-गीली धोती (पंचा)फैला देने से जल्दी सूख जाती है एवं बिना फैलाए जल्दी नहीं सूखती है। वैसे ही आत्मप्रदेश फैलाने से कर्म कम स्थिति वाला हो जाता है, बिना फैलाए उनकी स्थिति घटती नहीं है।

     

    केवली समुद्धात चार प्रकार से होता है

    १. दण्ड समुद्धात, २. कपाट समुद्धात, ३. प्रतर समुद्धात, ४. लोकपूर्ण समुद्धात 


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now


×
×
  • Create New...