तीर्थकर अरिहन्त की अपेक्षा से अरिहन्त परमेष्ठ की ४६ मूल गुण कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं
- जन्म के दस अतिशय- १. अतिशय सुन्दर शरीर २. अत्यंत सुगंधित शरीर ३. पसीना रहित शरीर ४. मल-मूत्र रहित शरीर ५. हित-मित प्रिय वचन ६. अतुलनीय बल ७. दूध के समान सफेद खून ८. शरीर में १००८ लक्षण ९. समचतुरुत्रसंस्थान १०. वज्रवृषभ नाराच संहनन
- केवल ज्ञान के १० अतिशय - १. भगवान के चारों ओर १००-१०० योजन तक सुभिक्ष होना २. धरती से ४ अंगुल ऊपर आकाश में गमन ३. चारों दिशाओं में चार मुख का दिखना ४. अदया का अभाव ५ उपसर्ग का अभाव ६. कवलाहार का अभाव ७. समस्त विद्याओं का स्वामीपना ८. नख-केशों की वृद्धि रुक जाना ९. आँखों की पलकों का न झपकना १०. शरीर की परछाई नहीं पड़ना
- देवकृत १४ अतिशय -
- दिव्य ध्वनि का अद्धमागधी भाषारूप परिणमन
- प्राणी मात्र में प्रेम का संचार होना
- सभी दिशाओं का धूल आदि से रहित निर्मल होना
- मेघ आदि से निर्मल आकाश
- छहों ऋतुओं के फल-फूलों का एक ही समय में फलना फूलना
- पृथ्वी का दर्पण के समान निर्मल होना
- चलते समय चरणों के नीचे स्वर्ण कमल की रचना होना
- आकाश में सर्वत्र जय-जय घोष होना
- मंद-मंद सुगंधित वायु का बहना
- आकाश से सुगंधित जल की मंद-मंद वृष्टि
- पृथ्वी का कंकड़-कंटक रहित होना
- समस्त प्राणियों का आनन्दित होना
- भगवान के आगे-आगे धर्म चक्र का प्रवर्तन होना
- छत्र, चंवर, कलश, झारी, ध्वजा, पंखा, स्वस्तिक और दर्पण इन आठ मंगल द्रव्यों का साथ साथ रहना।
4. आठ महा प्रतिहार्य -
१. अशोक वृक्ष २. सिंहासन ३. भामण्डल ४. तीन छत्र ५. चर्चौवर ६. पुष्पवृष्टि ७. दुन्दुभि बाजा ८. दिव्यध्वनि
5. चार अनन्त चतुष्टय –
१. अनन्त ज्ञान २. अनन्त दर्शन ३. अनन्त सुख ४. अनन्त वीर्य
सिद्ध परमेष्ठी के आठ मूल गुण होते हैं जो इस प्रकार हैं:-
- क्षायिक ज्ञान - अनन्त पदार्थों को एक साथ जानने की शक्ति।
- क्षायिक दर्शन – अनन्त दर्शन की शक्ति ।
- क्षायिक सम्यक्र - निश्चल श्रद्धा रूप अवस्था।
- क्षायिक वीर्य - अनन्त भोगोपभोग की शक्ति।
- अव्याबाधत्व - बाधा रहित आत्मिक सुख।
- सूक्ष्मत्व – इन्द्रिय गम्य स्थूलता का अभाव।
- अगुरुलघुत्व - उच्चता एवं नीचता का अभाव ।
- अवगाहनत्व - पर्याय विशेष में रहने की परतंत्रता का अभाव।
आचार्य परमेष्ठी के छत्तीस मूल गुण होते हैं जो इस प्रकार हैं:-
- पंचाचार – ज्ञानाचार, दर्शनाचार, तपाचार, वीर्याचार, चारित्राचार ।
- बारह तप - अनशन, अवमौदर्य, वृतिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विवित्त शय्याशन, कायक्लेश, प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान।
- दस धर्म – उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम। अकिंचन, उत्तम ब्रह्मचर्य।
- तीन गुप्ति – मन गुप्ति, वचन गुप्ति, काय गुप्ति।
- छह आवश्यक - समता, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग।
उपाध्याय परमेष्ठी के पच्चीस मूल गुण होते हैं जो इस प्रकार हैं :- ११ अंग एवं १४ पूर्व
११ अंग- १. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, ३. स्थानांग, ४. समवायांग, ५.व्याख्या प्रज्ञप्ति अंग, ६. ज्ञातृधर्म कथांगा ७. उपासकाध्ययनांग, ८. अन्तकृद्दशांग, ९. अनुत्तरोपपादिक दशांग, १०. प्रश्नव्याकरणांग, ११. विपाक सूत्रांग, १२. दृष्टिवाद अंग।।
१४ पूर्व - १. उत्पाद पूर्व, २. अग्रायणी पूर्व, ३. वीर्यानुप्रवाद पूर्व, ४. अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व, ५ ज्ञान प्रवाद पूर्व ६. सत्य प्रवाद पूर्व,७. आत्म प्रवाद पूर्व, ८. कर्म प्रवाद पूर्व, ९. प्रत्याख्यान पूर्व, १०. विद्यानुप्रवाद पूर्व, ११. कल्याणवाद पूर्व, १२. प्राणवाय पूर्व, १३. क्रियाविशाल पूर्व, १४. लोक बिन्दुसार पूर्व।
साधु परमेष्ठी के अट्ठाईस मूल गुण होते हैं जो इस प्रकार हैं:-
१. पाँच महाव्रत, २. पाँच समिति, ३. पाँच इन्द्रिय विजय, ४. छह आवश्यक, ५. सात विशेष गुण।
इनका वर्णन पूर्व के अध्याय में किया जा चुका है।