जल में जलचर जीवों के अलावा अन्य जीवों का ज्यादा देर तक आवास मौत का कारण बनता है। परन्तु यदि कोई अपने प्रयास से उसमें ठहरता है तो समझिएगा कि वह भव-जल से पार होकर किनारा अवश्य पाने वाला होगा। इस प्रयास में अभ्यास परम अनिवार्य है।
सदलगा में बालक विद्या के घर के पास एक बावड़ी बनी थी। उस बावड़ी में आसपास के बच्चे आदि नहाया करते थे। उसमें विद्या कभी पद्मासन लगाकर, कभी चित्त तैरकर, अपने को स्थिर करके ध्यान लगाया करते थे। आसपास के लोग समझते थे, विद्या पानी मचा देता है इसलिए एक दिन श्रीमति से मुहल्ले वालों ने शिकायत कर दी कि आपका बेटा आज फिर बावड़ी में ऊधम कर रहा है, पानी मचा रहा है। जब विद्या अपने घर वापस आये तो माँ बोली-क्यों रे! तुझे हजारों बार समझाया कि बावड़ी में मत नहाया कर, पर तू मानता क्यों नहीं ? बावड़ी में नहाने से आँखें लाल हो जाती हैं, सर्दी बनी रहती है, बुखार भी आ जाता है और बीमार अलग बना रहता है। क्यों रे! बोल तू कब सुधरेगा ? क्यों करता है हम लोगों को परेशान ? कब आयेगी तुझे अकल ? विद्या शान्त रहे शायद बावड़ी के शान्त जल की तरह। न हिले, न डुले, परन्तु जब माँ ने डाँट रूपी हवा चलायी तो विद्या रूपी जल तरंगित हो उठा एवं जवाब में बोले-मैं पानी नहीं मचाता हूँ मैं तो ध्यान लगाता हूँ। अब क्या कहती, माँ भी हो गयी शान्त सरोवर के नीर की भाँति। पर वो क्या समझे कि आज बावड़ी में ध्यान लगाने वाला कल को भव-जल में ध्यान लगाकर किनारे जाने वाला है।
वास्तव में आत्मा में ध्यान लगाने वाले परम साधक ही मूल्यवान रत्नों की प्राप्ति के अधिकारी होते हैं। आज जगत् पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जब चर्या करते हैं तो मूलाचार का पालन एवं ध्यान लगाते तो समयसार की साधना करते हैं। इस विधि से भव जल से पार पाया जा सकता है, यह उपदेशों में बताते हैं।