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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 29ब - कर्म निर्जरा का साधन - परीषह जय

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    मार्ग से च्युत न होने के लिए तथा कर्मो की निर्जरा के लिए क्षुधादि वेदना के होने पर जो सहा जाय वह परीषह है दु:ख आने पर भी संक्लेश परिणाम न होना, शांत भाव  से सहन करना,  परीषह का जीतना परीषह जय हिया | परीषह बाईस होते है वे इस प्रकार है :-

    १. क्षुधा, २. तुषा, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. दशमशक, ६. नाग्न्य, ७. अरति, ८. स्त्री, ਬ १०.निषद्या, ११. शय्या, १२. आक्रोश, १३.वध, १४. याचना, १५. आलाभ, १६ रोग, १७. तृण स्पर्श, १८. मल, १९. सत्कार–पुरस्कार, २०. प्रज्ञा, २१. अज्ञान २२ अदर्शन परिषह।

     

    1. आहार न मिलने पर, अन्तराय - उपवास होने पर उत्पन्न क्षुधा वेदना को समता पूर्वक सहन करना 'क्षुधा परीषह जय' है।
    2.  ग्रीष्म कालीन तपन से, अंतराय आ जाने पर उत्पन्न प्यास की वेदना को शान्त भाव से सह लेना 'तृषा परीषह जय' हे।
    3. बंदरों के भी मद को नष्ट करने वाली भयंकर सर्दी पड़ने पर, शीत लहर चलने पर संतोष रूपी कम्बल को धारण कर शीत वेदना को सहना 'शीत परिषह जय' है।
    4. ग्रीष्म ऋतु में गरम-गरम हवाओं के चलने पर, विहार में मार्ग तप जाने, गले और तालू सूख जाने पर भी प्राणियों की रक्षा का विचार करते हुए कष्टों को सहन करना 'उष्ण परीषह जय' है।
    5. डांस, मच्छर, मक्खी, खटमल, बिच्छु आदि डसने वाले जन्तु आदि के काटने पर उत्पन्न पीड़ा को अशुभ कर्मों का उदय मानकर शान्त भाव से सहन करना 'दंशमशक परीषह' है।
    6. वस्त्र रहित जिनलिंग को देखकर अज्ञानियों द्वारा उपहास करने पर, लोगों द्वारा अपशब्द कहने पर मन में किसी प्रकार का विकार नहीं लाना, खेद नहीं करना 'नाग्न्य परीषह जय' है।
    7. प्रतिकूल वसतिका, क्षेत्रादि मिलने पर, भूख-प्यास की वेदना होने पर संयम के प्रति अप्रीति नहीं करना, पूर्व में भीगे हुए सुखों का स्मरण नहीं करना 'अरति परीषह जय' है।
    8. एकान्त स्थान में स्त्रियों द्वारा अनेक कुचेष्टाएं करने पर, रिझाने का प्रयास करने पर उनके राग में नहीं फंसना 'स्त्री परीषह जय' है।
    9. गमन करते समय कांटा चुभने पर, छाले पड़ने पर, पैर छिल जाने पर, कंकड़ आदि चुभने पर भी प्रमाद रहित ईर्यापथ का पालन करते हुए खेद खिन्न नहीं होना 'चर्या परीषह जय' है।
    10. भयंकर श्मशान, वन पहाड़, गुफा आदि में बैठकर ध्यान करते समय नियमित काल पर्यन्त स्वीकृत आसन से विचलित नहीं होना 'निषद्या परीषह जय' है।
    11. छह आवश्यक कर्म, स्वाध्याय, ध्यान आदि करने से उत्पन्न थकान दूर करने के लिए कठोर कंकरीले आदि स्थानों पर एक करवट से निद्रा लेना, उपसर्ग आने पर भी शरीर को चलायमान नहीं करना 'शय्या परीषह जय' है।
    12. क्रोधादि के निमित्त मिलने पर, प्रतीकार की क्षमता होते हुए भी क्षमा धारण करते हुए शान्त रहना 'आक्रोश परीषह जय' है।
    13. तलवार आदि शस्त्रों के द्वारा, कंकड़ पत्थर द्वारा, शरीर पर प्रहार करने वालों से भी द्वेष नहीं करना शान्त रहना 'वध परीषह जय' है।
    14. शरीर कृश होने पर, औषध आदि की आवश्यकता होने पर दीन वचनों से, मुख म्लानता, हाथ के संकेत से औषधादि नहीं माँगना ' याचना परीषह जय' है।
    15. कई दिनों तक आहार न मिलने पर भी संतोष धारण करना, 'अलाभ परीषह जय' है।
    16. अनेक प्रकार की व्याधि कुष्ट रोग, जलोदर रोग आदि होने पर उनके उपशम करने की सामथ्र्य होने पर भी उसका इलाज नहीं करना, कर्म विनाश की इच्छा से सहन करना ' रोग परीषह जय ' है।
    17. कठोर स्पर्श वाले तृण, काष्ठ फलक आदि पर बैठना, शयन करना, उसमें उत्पन्न पीड़ा को सहन करना 'तृष स्पर्श परीषह जय' है।
    18.  शरीर पर मैल, पसीना जम जाने पर उसे दूर करने का विचार नहीं करना 'मल परीषह जय" है।
    19. अपने गुणों में अधिकता होने पर भी यदि कोई सत्कार न करे, आगे आगे न करे, प्रशंसा न करे तो भी चित्त में व्याकुलता नहीं होना तथा प्रशंसा होने पर भी प्रसन्न न होना 'सत्कार पुरस्कार परीषह जय' है। 
    20. बार-बार अभ्यास करते हुए भी ज्ञान की उपलब्धि न होने पर लोगों के द्वारा किए गए तिरस्कार को समता पूर्वक सहन करना ' अज्ञान परीषह जय' है।
    21. बहुत समय तक कठोर तपस्या करने पर भी विशेष ज्ञान या ऋद्धियाँ प्राप्त नहीं होने पर भी दर्शन के प्रति अश्रद्धा भाव नहीं रखना 'अदर्शन परीषह जय' है।

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    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    परिषह पर विशद अध्ययन

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