ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के अंतिम पाद में शक्तिशाली नन्दवंश का उच्छेद कर मौर्य वंश की स्थापना करने वाले प्रधान नायक ये दोनों थे। जो गुरु-शिष्य थे। चाणक्य राजनीति विद्या-विलक्षण एवं नीति विशारद ब्राह्मण पंडित था। चन्द्रगुप्त पराक्रमी एवं तेजस्वी क्षत्रिय वीर था। इस विरल मणि-कांचन संयोग को सुगन्धित करने वाला अन्य सुयोग यह था कि वह दोनों ही अपनेअपने कुल परम्परा तथा व्यक्तिगत आस्था की दृष्टि से जैन धर्म के प्रबुद्ध अनुयायी थे।
चाणक्य का जन्म ईसा पूर्व ३७५ के लगभग चणय नामक ग्राम में हुआ था। माता का नाम चणेश्वरी एवं पिता का नाम चणक था। चणक के पुत्र होने से उनका नाम चाणक्य हुआ। यह लोग जाति की अपेक्षा ब्राह्मण थे किन्तु धर्म की दृष्टि से पापभीरु जैन श्रावक थे। शिशु चाणक्य के मुंह में जन्म से ही दाँत थे, यह देखकर लोगो को बड़ा आश्चर्य हुआ। इस लक्षण को देख भविष्य वक्ता ने इसे 'एक शक्तिशाली नरेश' होना बताया। ब्राह्मण चणक श्रावको चित क्रिया करने वाला था, संतोषी वृत्ति का धार्मिक व्यक्ति था वैसे ही उनकी सहधर्मिणी थी। राज्य वैभव को वे लोग पाप और पाप का कारण समझते थे। अतएव चणक ने शिशु के दाँत उखड़वा डाले। इस पर साधुओं ने भविष्य वाणी की, कि अब वह स्वयं राजा नहीं बनेगा, किन्तु अन्य व्यक्ति के माध्यम से राज्य शक्ति का उपयोग और संचालन करेगा। बड़े होने पर तात्कालिक ज्ञान केन्द्र तक्षशिला तथा उसके आस-पास निवास करने वाले आचार्यों से शिक्षण प्राप्त किया। तीक्ष्ण बुद्धिमान होने से समस्त विद्याओं एवं शास्त्रों में वह पारंगत हो गया। दरिद्रता धनहीनता से पीड़ित चाणक्य पाटलीपुत्र के राजा महापद्मनंद के पास पहुंचा। अपनी विद्वता से उसने राजा को प्रभावित किया एवं दान विभाग के प्रमुख का पद प्राप्त किया। किन्हीं कारणो से राजपुत्र के द्वारा किये गये अपमान से क्षुब्ध एवं कुपित चाणक्य ने भरी सभा में नंद वंश के समूल नाश की प्रतिज्ञा की और पाटलिपुत्र का परित्याग कर दिया। घूमते-घूमते वह मयूर ग्राम पहुचा, वहाँ के मुखिया की इकलौती लाड़ली पुत्री गर्भवती थी, उसी समय उसे चन्द्रपान का विलक्षण दोहला उपत्पन्न हुआ। जिसके कारण घर के लोग चिंतित थे। चाणक्य ने उसके दोहले को शांत करने का आश्वासन दिया और यह शर्त रखी कि यह लड़का हुआ तो उस पर मेरा अधिकार होगा जब चाहे उसे ले जा सकता हूँ। अन्य कोई उपाय न देखकर शर्त मान ली गई, तब चाणक्य ने एक थाली में जल भरवाकर उसमें पूर्ण चन्द्र को प्रतिबिम्बित कर गर्भिणी को इस चतुराई से पिला दिया कि उसे विश्वास हो गया की उसने चन्द्रपान किया। कुछ दिनों बाद मुखिया की पुत्री ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया। जिसका नाम चन्द्रगुप्त रखा गया। यह घटना ईसा पूर्व ३४५ के आसपास की है। विशाल साम्राज्य के स्वामी नंद वंश को नष्ट करना हँसी खेल नहीं था। यह चाणक्य जानता था फिर भी धुन का पक्का था। अतएवं धैर्य के साथ अपनी तैयारी में संलग्न हो गया। अपने कई वर्ष उसने धातु विद्या की सिद्धी एवं स्वर्ण आदि धन एकत्र में व्यतीत किये। आठ-दस वर्ष बाद पुन: चाणक्य उसी मयूर ग्राम में आया। वहाँ पर उसने खेलते हुए कुछ बालक देखे। कौतुक वश वह उनके खेल को देखने लगा। बाल राजा के अभिनय से वह अत्यन्त आकृष्ट हुआ पास जाकर उसने उस बालक को राजा बनने योग्य लक्षणों को पाया, तब मित्रों से उसका पता पूछने पर ज्ञात हुआ यह वही मुखिया का नाती है चन्द्रगुप्त तब अत्यन्त प्रसन्न होता हुआ माता-पिता को अपने वचनों का स्मरण करा राजा बनाने के उद्देश्य वश उसे ले गया। कई वर्षों तक उसने चन्द्रगुप्त को विविध अस्त्र-शस्त्रों के संचालन, युद्ध-विद्या, राजनीति तथा अन्य उपयोगी ज्ञान-विज्ञान एवं शास्त्रों की समुचित शिक्षा दी एवं धीरे-धीरे युवा वीर साथी जुटा लिये।
ई.पू. 325 के लगभग चाणक्य के पथ प्रदर्शन में मगध राज्य की सीमा पर अपना एक छोटा सा स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। कुछ दिनों पश्चात् इन्होंने छद्म भेव में नन्दों की राजधानी पाटलीपुत्र में प्रवेश कर आक्रमण कर दिया। चाणक्य के कूट कौशल के बाद भी नंदों की असीम सैन्य शक्ति के सम्मुख ये बुरी तरह पराजित हुए। औरे जैसे-तैसे प्राण बचाकर भागे। एक बार घूमते हुए रात्रि में उन्होंने एक झोपड़े में बुढ़िया की डाट सुनी कि हे पुत्र! तू भी चाणक्य के समान अधीर एवं मूर्ख है, जो गर्म-गर्म खिचडी को बीच से ही खा रहा है, हाथ न जलेगा तो क्या होगा। चाणक्य को समझ आयी कि सीधे राजधानी पर हमला बोलकर मैने गलती की फिर उन्होंने नंद साम्राज्य के सीमावर्ती प्रदेशों पर अधिकार करना प्रारंभ किया। एक के पश्चात् एक ग्राम नगर, गढ़ छल-बल कौशल से जैसे भी बना हस्तगत करते चले गये। चन्द्रगुप्त के पराक्रम, रण कौशल एवं सैन्य संचालन पटुता, चाणक्य की कूट नीति एवं सदैव सजग गिद्ध दृष्टि के परिणाम स्वरूप प्रायः सभी नन्दकुमार लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए।
वृद्ध महाराज महापद्म चाणक्य को धर्म की दुहाई दे, सपरिवार सुरक्षित अन्यत्र चले गये। नंद दुहिता राजरानी सुप्रभा का विवाह चन्द्रगुप्त के साथ हुआ और वह अग्रमहिषी बनी। इस प्रकार ई.पू. ३१७ में पाटलीपुत्र में नंदवंश का पतन और उसके स्थान पर मौर्य वंश की स्थापना हुई। व्यक्तिगत रुप से सम्राट चन्द्रगुप्त धार्मिक एवं साधु सन्तों को सम्मान करने वाला था। प्राचीन सिद्धान्त शास्त्र तिलोय पण्णक्ति में चन्द्रगुप्त को क्षत्रिय कुलोत्पन्न मुकुटबद्ध माण्डलिक सम्राटो में अंतिम कहा गया है जिन्होंने दीक्षा लेकर अंतिम जीवन जैन मुनियों के रूप में व्यतीत किया। उनके गुरु आचार्य भद्रबाहु थे। जिन्होंने श्रवण बेलगोला में समाधि मरण ग्रहण किया। उसी स्थान के एक पर्वत पर कुछ वर्ष उपरांत चन्द्रगुप्त मुनिराज ने सल्लेखना पूर्वक देह त्याग किया।
लगभग २५ वर्ष राज्य भोग करने के पश्चात् ईसा पूर्व २९८ में अपने अपने पुत्र बिम्बसार को राज्यभार सौंपकर और उसे गुरु चाणक्य के ही अभिभावकत्व में छोड़ दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया। कुछ दिनों पश्चात् चाणक्य ने भी मन्त्रित्व का भार अपने शिष्य राधागुप्त को सौंपकर मुनि दीक्षा लेकर तपश्चरण के लिए चले गये थे। अंत समय में सल्लेखना पूर्वक देह त्याग किया।