जैन साहित्य में चौदहवीं शताब्दी के बाद संस्कृत महाकाव्य की विछि । श्रृंखला को जोड़ने वाले, त्याग, तपस्या, निरभिमानता उदारता, साहित्य सृजना आदि गुणों की साक्षात् मूर्ति श्री ज्ञानसागर जी महाराज हुए हैं।
राजस्थान प्रान्त के सीकर जिलान्तर्गत राणोली ग्राम में सेट सुखदेवजी रहते थे। उनके पुत्र श्री चतुर्भुज का विवाह धृतवरी देवी से हुआ। चतुर्भुज जी को छह पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई, जिनमें से पाँच जीवित रहे। सबसे बड़े पुत्र का नाम छगनलाल रखा गया। इसके पश्चात् धृतवरी देवी ने संवत् 1981 में जुड़वा पुत्रों को जन्म दिया किन्तु जन्म के कुछ ही समय बाद जीवन के लक्षण न मिलने से दोनों शिशुओं को मृत जान लिया गया। परन्तु शीघ्र ही एक शिशु में जीवन के लक्षण प्राप्त हुए पर दूसरा बालक मृत्यु को प्राप्त हुआ। जीवित बालक का नाम भूरामल रखा गया। भूरामल के तीन अनुज और हुए जिनका नाम क्रमश: गंगा प्रसाद, गौरीलाल और देवीदत्त था।
बाल्यकाल से ही भूरामल जी की अध्ययन के प्रति रुचि थी। सर्वप्रथम कुचामन के पं. श्री जिनेश्वरदास जी ने राणोली ग्राम में ही भूरामल को धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा दी। भूरामल जी की 10 वर्ष की अवस्था में ही उनके पिता जी की मृत्यु हो गई, जिससे उनकी पारिवारिक अर्थव्यवस्था बिगड़ गई। आजीविका हेतु बड़े भाई गया पहुँच गये।
गाँव में शिक्षा की व्यवस्था न होने के बाद में भूरामल जी भी गया नगर पहुँच गये। कुछ दिन पश्चात् स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी के छात्र किसी समारोह में भाग लेने के लिए गया आये। उनको देखकर भूरामल जी के मन में भी वाराणसी में विद्या ग्रहण करने की इच्छा बलवती हो आई। तब वे बड़े भाई से आज्ञा लेकर 15 वर्ष की उम्र में वाराणसी चले गये। वाराणसी में स्याद्वाद महाविद्यालय से उन्होंने संस्कृत साहित्य एवं जैनदर्शन की उच्चशिक्षा ग्रहण की। इसी बीच क्वीन्स कॉलेज काशी से उन्होंने शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की। वहाँ पर संस्कृत अध्यापक छात्रों की इच्छा होने पर भी उन्हें जैनाचार्य प्रणीत ग्रन्थों की शिक्षा नहीं देते थे। दृढ़ निश्चय के अनुसार येन केन प्रकारेण अध्यापकों से जैन ग्रन्थों की शिक्षा प्राप्त की, उस समय पं. उमराव सिंह जी महाविद्यालय में धर्मशास्त्र के अध्यापक थे। इन्हीं से भूरामल जी को जैन ग्रन्थों के अध्ययन की प्रेरणा मिली। वे अपने अध्ययन काल में भी स्वालम्बन पर ही विश्वास करते थे तथा अपने परिश्रम से उपार्जित धन से ही विद्यालय के भोजनालय में भोजन किया करते थे।
अधिक अध्ययन की भावना से आप अजैन विद्वानों के पास पहुँचे और जैन ग्रन्थों के अध्ययन करने हेतु अपना निवेदन किया-तब एक अजैन विद्वान् व्यंग्य करके बोले-जैनों के यहाँ कहाँ है ऐसा साहित्य जो मैं तुम्हें पढ़ाऊँ। ये शब्द सुनकर उनके हृदय को बहुत टीस पहुँची उन्होंने मन से संकल्प लिया कि अध्ययन के उपरान्त ऐसे साहित्य का निर्माण करूंगा जिसे देखकर जैनेतर विद्वान् दाँतों तले अंगुली दवा लेंगे। कुछ दिन पश्चात् जब जयोदय महाकाव्य की प्रति जैनेतर विद्वानों को प्राप्त हुई तो विद्वानों ने कहा - कालिदास के साहित्य से टक्कर लेने वाला यह जैन साहित्य है। आपने विवाह को जैन साहित्य के निर्माण और उनके प्रचार में बहुत बड़ी बाधा मानकर मात्र अठारह वर्ष की उम्र में ही आजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर ली थी। आपने संस्कृत हिन्दी में अनेक मौलिक रचनाएं की एवं कई ग्रन्थों की हिन्दी टीका तथा पद्यानुवाद भी किए। जो निम्नलिखित हैं -
संस्कृत साहित्य - 1. जयोदय महाकाव्य, (2 भाग), 2. वीरोदय महाकाव्य, 3. सुदर्शनोदय महाकाव्य, 4. भद्रोदय महाकाव्य, 5. दयोदय चम्पू काव्य, 6. सम्यक्त्वसार शतक, 7. मुनिमनोरञ्जनाशीति, 8. भक्ति संग्रह, 9. हित सम्पादक।
हिन्दी साहित्य - 10. भाग्य परीक्षा, 11. ऋषभ चरित्र, 12. गुण सुन्दर वृत्तान्त, 13. पवित्र मानव जीवन, 14. कर्तव्य पथ प्रदर्शन, 15. सचित विवेचन, 16. सचित विचार, 17. स्वामी कुन्दकुन्द और सनातन जैन धर्म, 18. सरल जैन विवाह विधि, 19. इतिहास के पन्ने, 20. ऋषि कैसा होता है?
टीका ग्रन्थ – 21. प्रवचनसार, 22. समयसार, 23. तत्त्वार्थसूत्र, 24. मानवधर्म।। पद्यानुवाद - 25. विवेकोदय, 26. देवागम स्तोत्र, 27. नियमसार, 28. अष्टपाहुड एवं 29. शांतिनाथ पूजन विधान।
इस प्रकार उपरोक्त अनेक ग्रन्थों के निर्माण एवं पठन-पाठन करते हुए भूरामल जी ने अपनी युवावस्था व्यतीत की। आत्मकल्याण की प्रबल भावना होने पर सन् 1947 ई (संवत् 2004) में आचार्य वीरसागरजी महाराज की आज्ञा से अजमेर नगर में ब्रह्मचर्य प्रतिमा अंगीकार की। धीरे-धीरे ब्र. भूरामल जी के मन में वैराग्य भाव और भी बढ़ा फलस्वरूप विक्रम संवत् 2012 सन् 1955 ई. में मनसुरपुर (रेनवाल) में उन्होंने वीरसागरजी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा प्राप्त कर ज्ञानभूषण नाम प्राप्त किया उसके बाद कुछ समय और ऐलक अवस्था में व्यतीत कर सन् 1959 में आचार्य शिवसागरजी महाराज से मुनि दीक्षा स्वीकार कर उनके प्रथम शिष्य मुनि ज्ञानसागर बनने का सौभाग्य प्राप्त किया।
आप संघ में रहकर साधु आर्यिका एवं श्रावक-श्राविकाओं को अध्ययन कराते रहे। कुछ समय पश्चात् धर्म प्रचार हेतु आचार्य संघ से पृथक् अनके स्थानों पर आपने विहार किया एवं अनेक आत्म कल्याण के इच्छुक भव्य जनों को संयम-व्रत प्रदान किया। श्री विवेकसागरजी के मुनिदीक्षा ग्रहण के अवसर पर जैनसमाज ने 7 फरवरी सन् 1969 ई. को मुनि ज्ञानसागरजी को आचार्य पद से सुशोभित किया।
महाकवि ज्ञानसागरजी महाराज का शरीर क्षीणता को प्राप्त हो रहा था तब उन्होंने 22 नवम्बर 1972 ई. (मार्गशीर्ष कृ.2 वि.सं. 2020) को अपना पद सुयोग्य शिष्य मुनि विद्यासागर जी को सौंप दिया एवं स्वयं पूर्णरूपेण वैराग्य, तपश्चरण एवं सल्लेखना में सन्नद्ध हो गये। इस समय उन्होंने जल और रस पर ही शरीर धारण करना शुरू कर दिया शेष खाद्य सामग्री का सदा के लिए परित्याग कर दिया। 28 मई सन् 1973 को उन्होंने सभी प्रकार के आहार का परित्याग कर दिया। अन्त में ज्येष्ठ कृष्णा 15 विक्रम संवत् 2023 शुक्रवार तदनुसार दिनांक 1 जून सन् 1973 ई. को दिन में 10 बजकर 50 मिनट पर नसीराबाद में महाकवि ज्ञानसागर जी महाराज समाधिस्थ हो गये।
श्री ज्ञानसागर जी के प्रमुख शिष्य में मुनि श्री विद्यासागर जी, मुनि श्री विवेकसागर जी, मुनि श्री विजयसागर जी, ऐलक श्री सन्मतिसागर जी, क्षुल्लक श्री स्वरूपानन्दजी, क्षुल्लक सुखसागर जी, क्षुल्लक संभवसागर जी, ब्र. जमनालाल जी एवं ब्र. लक्ष्मीनारायण जी थे।