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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 28ब - श्रावक व श्रमण का अंतिम कर्तव्य- सल्लेखना

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    सल्लेखना का स्वरूप - 

    अच्छे प्रकार से काय और कषाय का कृश करना सल्लेखना है। उपसर्ग आने पर, दुर्भिक्ष आने पर, बुढ़ापा आने पर और असाध्य रोग आने पर, धर्म की रक्षा के लिए सल्लेखना ली जाती है।

    सल्लेखना की विधि-

    जो सल्लेखना धारण करता है, वह क्षपक कहलाता है। वह क्षपक सबसे राग, द्वेष, मोह और परिग्रह को छोड़कर प्रियवचनों से स्वजन, परिजन, सबसे क्षमा माँगे एवं सबको क्षमा कर दे। अपने सम्पूर्ण जीवन के पापों की आलोचना करके, आजीवन के लिए पाँचों पापों का त्याग करें। शोक, भय, विषाद आदि को छोड़कर श्रुत रूपी अमृत का पान करे और क्रमश: इस प्रकार कषायों को कृश करता हुआ अपनी काया को कृश करने के लिए सर्वप्रथम इष्ट रस, इष्ट वस्तु का त्याग करे, पुन: गरिष्ठ रसों का त्याग करके, मोटे (ठोस) अनाज का त्याग करके पेय को बढ़ाए, फिर छाछ एवं गरम जल को ग्रहण करे, ऐसा करता हुआ जल का भी त्याग करके उपवास धारण करे एवं पञ्च नमस्कार का जाप, पाठ, ध्यान करते हुए देह का विसर्जन करे।

    सन्यास मरण के तीन भेद हैं

    1. भक्त प्रत्याख्यान - आहार का त्याग करके इसमें वैयावृत्ति स्वयं भी करता है एवं दूसरों से भी कराता है।
    2. इंगिनीमरण - इसमें वैयावृत्ति स्वयं करता है, दूसरों से नहीं कराता है।
    3. प्रायोपगमन - इसमें वैयावृत्ति न स्वयं करते हैं, न दूसरों से करवाते हैं। जिस आसन में बैठता है, उसी आसन से शरीर को छोड़ देता है।

     

    सल्लेखना एवं आत्महत्या में अंतर - आत्महत्या कषायों से प्रेरित होकर की जाती है तो सल्लेखना का मूल आधार समता है। आत्मघाती को आत्मा की अविनश्वरता का भान नहीं होता है। वह तो शरीर के नष्ट हो जाने को ही जीवन मुक्ति समझता है। जबकि सल्लेखन का प्रमुख आधार आत्मा की अमरता को समझकर अपनी परलोक यात्रा को सुधारना है। सूर्योदय की लाली सल्लेखना के समान है जो हमें प्रकाश की ओर ले जाती है एवं सूर्यास्त की लाली आत्मघात के समान है जो हमें अंधकार की ओर ले जाती है। समाधि कराने वाले आचार्य को निर्यापक आचार्य कहते हैं। आत्महत्या कषायों से प्रेरित होकर की जाती है तो सल्लेखना का मूल आधार समता है। आत्मघाती की आत्मा की अविनश्वरता का भान नहीं होता है। वह तो शरीर के नष्ट हो जाने को ही जीवन मुक्ति समझता है। जबकि सल्लेखना का प्रमुख आधार आत्मा की अमरता को समझकर अपनी परलोक यात्रा को सुधारना है। सूर्योदय की लाली सल्लेखना के समान है जो हमें प्रकाश की ओर ले जाती है एवं सूर्यास्त की लाली आत्मघात के समान है जो हमें अंधकार की ओर ले जाती है। समाधि कराने वाले आचार्य को निर्यापक आचार्य कहते हैं।

    सल्लेखना का फल - अतिचार से रहित सल्लेखना करने वाला नियम से स्वर्ग जाता है, वहाँ के सुखों को भोगकर मनुष्य होकर मोक्ष को प्राप्त होता है। जिसने एक बार सल्लेखना धारण कर मरण किया है, वह अधिक -से - अधिक ७-८ भव में एवं कम से कम २-३ भव में नियम से मोक्ष चला जाता है।


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    रतन लाल

      

    संल्लेखना पर व्याप्त भ्रांतियों को दूर करने में सक्षम

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