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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 28द - दिग. जैन मुनि की चर्या का प्रतिपादक ग्रन्थ- मूलाचार

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    वट्टकेरस्वामीकृत मूलाचार दिगम्बर सम्प्रदाय में मुनिधर्म के लिये सर्वोपरि प्रमाण माना जाता है। कहीं-कहीं यह ग्रन्थ कुन्द कुन्दाचार्यकृत भी कहा गया है। इसमें १२ अधिकार और १२५२ गाथायें है।

    १.मूलगुण अधिकार २. बृहत् प्रत्याख्यान संस्तव अधिकार ३. प्रत्याख्यान अधिकार ४. सम्यक्आचार अधिकार ५. पंचाचार अधिकार ६. पिण्ड शुद्धी अधिकार ७. षट् आवश्यक अधिकार ८. अनगार भावना अधिकार ९. द्वादशानुप्रेक्षा अधिकार १०. समयसार अधिकार ११. षट्पर्याप्ति अधिकार १२. शीलगुण अधिकार।

     

    पहले मूलगण अधिकार में मुनि के अट्ठाईस मूलगुणों का निरूपण किया है।

    बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तव अधिकार में दर्शनाराधना आदि चार आराधनाओं का कथन किया गया है।

    प्रत्याख्यानाधिकार में सिंह, व्याघ्र आदि के द्वारा आकस्मिक मृत्यु उपस्थित होने पर कषाय और आहार का त्यागकर समताभाव धारण करने का निर्देश किया है।

    सम्यक्आचाराधिकार में दश प्रकार के आचारों का वर्णन है। आर्यिकाओं के लिये भी विशेष नियम वर्णित है।

    पंचाचाराधिकार में दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पाँच आचारों और उनके प्रभेदों का विस्तार सहित वर्णन है।

    पिण्डशुद्धि अधिकार में एषणा समिति, आहारयोग्य काल, भिक्षार्थगमन करने की प्रवृत्ति-विशेष आदि का भी वर्णन आया है।

    सप्तम पडावश्यकाधिकार में कृति कर्म, कार्यात्सर्ग के दोष आदि का वर्णन है।

    आठवें अनगारभावनाधिकार में लिंग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा, ज्ञान, शरीर, संस्कारत्याग, वाक्य, तप और ध्यानसंबंधी शुद्धियों के पालन पर जोर दिया गया है। 

    नवम द्वादशानुप्रेक्षाधिकार में अनित्य आदि अनुप्रक्षाओं के चिन्तन का वर्णन है।

    दशम समयसाराधिकार में तप, ध्यान, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखनक्रिया विभिन्न प्रकार की शुद्धियों का निरुपण आया है।

    बारहवें शीलगुणाधिकार में शीलों के उत्पत्ति क्रम आलोचना के दोष, गुणों की उत्पत्ति प्रकार संख्या और प्रस्तार के निकालने की विधि का विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। इस महाग्रन्थ में मुनि के आचार का बहुत ही विस्तृत एवं सुन्दर वर्णन किया गया है। यतिधर्म को अवगत करने के लिये एक स्थान पर इससे अधिक सामग्री का मिलना दुष्कर है।

     

    दिग. जैन श्रावक की चर्या का प्रतिपादक ग्रन्थ- रत्नकरण्डश्रावकाचार

    ईसा की द्वितीय शताब्दी में आचार्य समन्तभद्र स्वामी द्वारा श्रावक के जीवन और आचार की व्याख्या करते हुए १५० पद्यों की रचना संस्कृत भाषा में की गई। इस ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्र का विवेचन करते हुए सलेखना को भी श्रावकों के व्रतों में स्थान दिया है। इसका दूसरा नाम समीचीन धर्मशास्त्र भी है। इस ग्रन्थ पर प्रभाचन्द्र आचार्य द्वारा संस्कृत टीका एवं अनेक विद्वानों द्वारा हिन्दी टीका भी लिखी गई है।


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