किसी ग्राम में संसार, शरीर, भोगों से भयभीत एक शिवभूति नाम का पुरुष रहा करता था। नगर के निकट ही मुनि संघ को आया सुन वह उनके दर्शनार्थ पहुँचा। दर्शन के पश्चात् उसने आचार्य श्री से दु:खों से मुक्ति का उपाय पूछा- तब आचार्य श्री बोले हे भव्य प्राणी यदि तुम दु:खों से मुक्त होना चाहते हो तो श्रमणत्व / मुनित्व को अंगीकार करो। परम वैराग्य युक्त हो उसने मुनि दीक्षा ग्रहण की।
ज्ञान का क्षयोपशम कम होने के कारण गुरु जो भी पढ़ाते थे वह शीघ्र ही भूल जाते थे। अत: गुरु ने तुष मास भिन्न इन अक्षरों का ही पाठ करने का उपदेश दिया। जिसे वे शिवभूति मुनिराज दिन-रात रटते थे। वे आत्मा को शरीर तथा कर्मों के समूह से भिन्न जानते। किन्तु शब्द ज्ञान उनके पास नहीं था। एक दिवस वे आहारचर्या को निकले किन्तु रास्ते में गुरु वाक्य भूल गये तथा देखा कि एक महिला दाल रूप परिणत उड़दों को पानी में डुबाकर तुसों (छिलकों) को पृथक् कर रही है। देखकर उन्होंने पूछा आप यह क्या कर रही हों? उन्होंने बताया मैं दाल और छिलकों को पृथक् कर रही हूँ क्योंकि दाल पृथक् है और छिलता पृथक् है। इतना सुनते ही बोध हो गया। इसी प्रकार मेरी आत्मा पृथक् है और शरीर पृथक् है। वे वापस अपने स्थान में लौट आए और आत्मध्यान में लीन हो गए। कुछ ही क्षणों में उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। गुरु से पहले ही भावों की निर्मलता से शिष्य ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। केवलज्ञानी हो अनेक भव्य जीवों को धर्म का उपदेश प्रदान कर मोक्ष चले गये।
सारांश : चारित्र के प्रति सच्ची आस्था होने पर निश्चित सुख की उपलब्धि होती है। भले ही ज्ञान कम हो। आचार्य श्री कहते हैं - चारित्र में निर्मलता होने पर ज्ञान स्वयमेव प्रकट हो जाता है।