महा महापुरुषों की संख्या प्रत्येक काल में ६३ ही होती है। जिनमें २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण होते हैं। तीर्थकरों के माता-पिता ४८ ९ नारद ११ रुद्र, २४ कामदेव तथा १४ कुलकर मिलाने से १६९ शलाका पुरुषा होते हैं।
तीर्थकर :- तीर्थकर नामक विशेष पुण्य प्रकृति का जिनके उदय होता है, वे तीर्थकर कहलाते हैं।
चक्रवर्ती :- एक आर्यखण्ड तथा पाँच म्लेच्छखण्ड इस प्रकार छह खण्डों का स्वामी ३२ हजार मुकुटबद्ध राजाओं का तेजस्वी अधिपति चक्रवर्ती हुआ करता है। वह १४ रत्न एवं ९ निधियों का मालिक होता है। चक्रवर्ती की ९६ हजार रानियाँ होती है। प्रतिदिन स्वादिष्ट भोजन बनाकर देने वाले ३६५ रसोईया होते हैं। चक्रवर्ती के वैभव स्वरूप- तीन करोड़ गौशालायें, एक करोड़ हल, एक करोड़ स्वर्ण थाल, ८४ लाख हाथी इतने ही रथ, १८ करोड घोड़े, ८४ करोड योद्धा एवं ४८ करोड़ पदाति होते हैं।
१४ रत्न एवं ९ निधियाँ इस प्रकार है:-
१ चक्र रत्न २. छत्त्र रत्न ३. खड्ग रत्न ४. दण्ड रत्न ५. काकिणी रत्न ६. मणि रत्न ७. चर्मरत्न ८. सेनापति रत्न ९. गृहपति रत्न १०. गज रत्न ११. अश्व रत्न १२. पुरोहित रत्न १३. स्थपित रत्न १४. युवति रत्न
निधियों
१- कालनिधि २– महाकाल ३– पाण्डु ४- मानव ५- शंख ६– पद्म ७– नैसर्प ८. पिंगल ९– नाना रत्न
बलदेव - वे नारायण के भ्राता होते हैं और उनसे प्रगाढ़ स्नेह रखते हैं। ये अतुल पराक्रम के धनी, अतिशय रूपवान और यशस्वी होते हैं। इनकी ८ हजार रानियाँ होती हैं। तथा ये पाँच रत्नों के स्वामी होते हैं।
वासुदेव (नारायण) - प्रतिवासुदेव (प्रतिनारायण) – ये दोनों समकालीन होते हैं। पूर्वभव में निदान सहित तपश्चरण कर स्वर्ग में देव होते हैं और वहाँ से च्युत होकर वासुदेव-प्रतिवासुदेव बनते हैं। दोनों अर्धचक्रवर्ती होते हैं। इनकी सोलह-सोलह हजार रानियाँ होती हैं। प्रतिनारायण (प्रतिवासुदेव) प्राय: विद्याधर होते हैं और नारायण (वासुदेव) भूमिगोचरी, इनका आपस में जन्मजात बैर होता है। इनमें किसी निमित्त से युद्ध होता है, जिसमें नारायण के द्वारा प्रतिनारायण मारा जाता है। ये दोनों निकट भव्य होते हैं, परन्तु अनुबद्ध बैर के कारण नरक में जाते हैं।
नारद - ये नारायण -प्रतिनारायण के काल में होते हैं, ये अत्यन्त कौतूहली और कलहप्रिय होते हैं। नारायण और प्रतिनारायण को आपस में लड़ाने में इनकी प्रमुख भूमिका रहती है। ये ब्रह्मचारी होते हैं और इन्हें राजर्षि का सम्मान प्राप्त होता है। ये सारे राजभवन के बेरोकटोक आते जाते रहते हैं, ये निकट भव्य होते है, परन्तु कलहप्रियता के कारण नरक में जाते हैं।
रुद्र - ये सभी अधर्मपूर्ण व्यापार में संलग्न होकर रौद्रकर्म किया करते हैं, इसलिये रुद्र कहलाते हैं। ये कुमारावस्था में जिनदीक्षा धारण कर कठोर तपस्या करते हैं। जिसके फलस्वरूप इन्हें अंगों का ज्ञान हो जाता है, किन्तु दशवें विद्यानुवाद पूर्व का अध्ययन करते समय विषयों के आधीन होकर पथभ्रष्ट हो जाते हैं। संयम और सम्यक्त्व से पतित होने के कारण सभी रुद्र नरकगामी ही होते है। तिलेायपण्णत्ति के अनुसार रुद्रों एवं नारदों की उत्पत्ति हुण्डावसर्पिणी काल में ही होती है।
कामदेव - प्रत्येक कालचक्र के दुषमासुषमा काल में चौबीस कामदेव होते हैं। ये सभी अद्वितीय रूप और लावण्य के धनी होते हैं।