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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. चिर से बिछुड़े दो सज्जन मिलते हैं वृद्धावस्था में परस्पर प्रेम वार्ता होती है गले से गले मिलते हैं गद्गद् कण्ठ से, एक ने पूछा एक से तुमने क्या साधना की है पर के लिए और अपने लिए ? उत्तर मिलता है द्वैत से अद्वैत की ओर बढ़ना हो टूटे दो टुकड़ों को एक रूप देना हो तो सुनो सुई होना सीखा है ! फिर दूसरे ने भी पूछा इस दीर्घ जीवन में ऐसी कौन सी साधना की तुमने फलस्वरूप सब के स्नेह-भाजन हो, उत्तर मिलता है कि कर्म के उदय में जो कुछ होना सो होना है सो धरा - सा जरा होना सीखा है दूसरों के सम्मुख अपनी वेदना पर भला ! रोना ना सिखा है, हाँ ! दूसरा आ अपनी व्यथा - कथा सुनाता हो, रोता हो यह मन भी व्यथित हो रोता है और तत्काल उसके आँसू जरा धोना सीखा है |
  2. काया की नाव में पले हैं माया की छाँव में छले हैं हम तो ........निरे अनजान ठहरे इतने विचार कहाँ हों गहरे नहरों से पूछे या लहरों से कहाँ से आती कहाँ जाती ...... ये लहरें ? लहरों पर लहरें हैं क्या ? लहरों में लहरें
  3. उतरा धरा पर चिद्विलास मानव बन करनी कर मानव - पन .....पा मानव पनपा, तू मान वही मान प्रमाण का पात्र बना पायी..... अन्तिम शान्ति .....विश्रान्ति फिर वहाँ से लौटा कहाँ ? लौटना अशान्ति है क्लान्ति, भटकन भ्रान्ति है दुग्ध का विकास होता है घृत का विलास होता है घृत का लौटना किन्तु दुग्ध के रूप में सम्भव नहीं है
  4. शाश्वत निधि का भास्वत विधि का..... धाम हो राम, अभिराम हो क्यों बना तू! रावण सम आठों याम दीन - हीन पाप - प्रवीण, ‘है’ उसे बस लख जरा बहुत दूर जाकर चेतना में लीन हो सुधा - पीयूष बस! चख जरा।
  5. निर्गुण से मिलने का वार्ता विचार - विमर्श कर तदनु चलने का सगुण परमात्मा में भावुक - भाव उभर आया है, और इधर सघन नीलिमा ले नील-गगन नीचे की ओर उतर आया है, बीच में बाधक बनकर साधक के साधना - पथ पर तभी तो कहीं नियति ने भेजी है बाधा दूर करने अरुक अथक अविरल उठती आ रही हैं लहरों पर लहरें, इनकी ध्वनि ये ही सुन सकते जो वैषयिक क्षेत्र में बने हैं पूर्ण बहरे!
  6. सत् से जन्म ले सत् में छद्म ले हरदम होती हो हरदम खोती हो, कभी-कभी अभाव के घाव पर मरहम होती हो स्वरातीत भाव पर सरगम होती हो केन्द्र को छोड़ कर परिधि की ओर दौड़ रही हो, अनन्त को छोड़ कर अवधि की ओर मोड़ रही हो स्वयं को ओ! लहरों पर लहरें रजत राजित गरजे उत्तर दो ! इस ओर भेजकर सरलिम तरलिम नजरें!
  7. सारा का सारा यह संसार केवल है एक विशाल नाटक, तू इसमें भाँति - भाँति के भेष - धर भाग ले, तू इसे खेल कोई चिन्ता नहीं किन्तु इस बात का भी ध्यान रख इसमें तू .....कभी ....भूल कर भी... ..ना-अटक...!
  8. डाल - डाल के गाल - गाल पर लाल - लाल हैं फूल गुलाब! फूल रहे हैं लज्जा की घूँघट खोल - खोल कर अधर में डोल रहे मार्दव अधरों पर कल - कमनीयता भीतरी संवेदन रहस्यमय बोल बोल रहे हैं अनमोल रहे या मोल रहे, यह एक प्रश्न है दर्शकों के सम्मुख और उस ओर पराग प्यासा सुगन्धमोजी भ्रमर दल ने अपलक एक झलक दृष्टिपात किया बस! धन्य! इतने से ही आँखों का पेट भर गया तृप्ति का अनुभव, अपने में रूप-रंग समेट कर पलक बन्द हुए और रसना गुनगुनाती प्रारम्भ हुआ गुण - गान - कीर्तन हाव - भाव टुन.....टुन..... नर्तन, किन्तु नासा की भूख दुगुणी हुई गंध से मिलने बातचीत करने लालायित है उतावली करती - करती गम्भीर होती जा रही है जैसे कहीं विषयी उपस्थित होकर भी विषय अनुपस्थित हो, अब नासा अपनी अस्मिता पर शंकित होती कि इस समय मैं हूँ क्या नहीं ? यदि हूँ, गंध का स्वाद क्यों नहीं आता, जब कि गंधवान् उपस्थित है सम्मुख इसी बीच स्पर्शा भी इस विषय में सक्रिय होती अपनी तृषा बुझाने, जब वह छुवन हुआ स्पर्शा ने घोषणा कर दी कि यहाँ प्रकृति नहीं है मात्र प्रकृति का अभिनय है या प्रकृति का अविनय है माया छल ये फूल तो हैं पर! कागद के हैं तब तक नासा की आसा निराशता में लज्जावश डूबती चली फलस्वरूप भ्रम विभ्रम से भ्रमित हुआ भ्रमर-दल उड़ चला वहाँ से, गुनगुनाता, कहता जाता कि सत्य की कसौटी नेत्र पर नहीं संयम-नियंत्रित ज्ञान-नेत्र पर आधारित है |
  9. ओ! श्रवणा कितनी बार श्रवण किया, ओ! मनोरमा कितनी बार स्मरण किया कब से चल रहा है संगीत-गीत यह कितना काल व्यतीत हुआ भीतरी भाग भीगे नहीं दोनों अंग बहरे कहाँ हुए हरे भरे! हे! नीराग हरे! अब बोल नहीं माहोल मिले
  10. याचना का चोला पहना यातना का पहना गहना आँगन-आँगन कितने प्राँगण ? घूमा है यह सुख-सा कुछ मिलता आया और मिटता आया सुख की आस अमिट ! आज तक ! अंमित मिला नहीं अमिट मिला नहीं हे! अनन्त सन्त ! अब मोल नहीं अनमोल मिले!
  11. ओ री! कलि की सृष्टि कलि से कलुषित कलंकिनी दृष्टि ! सदा शंकिनी! अवगुण - अंकिनी! कभी-कभी तो गुण का चयन किया कर! तेरी वंकिम दृष्टि में केवल अवगुण ही झलकते हैं क्या ? यहाँ गुण भी बिखरे हैं तरतमता हो भले ही ऐसा कोई जीवन नहीं है कि जिसमें एक भी गुण नहीं मिलता हो नगर-उपनगर में पुर-गोपुर में अभ्रंलिह प्रासाद हो या कुटिया जिसके पास कम से कम एक तो प्रवेश द्वार होता अवश्य !
  12. वरद हस्त जो रहा है इस मस्तक पर हे गुरुवर! कठिन से कठिनतर पाषाण-हृदय भी मृदुल मोम हो गए, दुःख की आग बरसाते प्रचण्ड प्रभाकर भी शरद सोम हो गए, विरोध की ज्वाला से जलते विलोम वातावरण भी अनुलोम हो गए चेतना की समग्र सत्ता भय से संकोचित, मूर्च्छित थी आज तक अब वह अभय-जागृत पुलकित रोम-रोम हो गए प्रति-धाम से प्रति-नाम से मधुर-ध्वनि की तरंग आ रही है श्रवणों तक बस! वह सब सुखद ओम् हो गए।
  13. बहुतों के मुख से यही सुनता आया था विश्वस्त हो यही गुनता आया था कि सबसे नाता तोड़ना वन की ओर मुख मोड़ना संन्यास है, किन्तु आज गुरु कृपा हुई है ठीक पूर्व से विपरीत विश्वास हुआ है संन्यास का अहसास हुआ है, कि बिना भेद-भाव से बिना खेद-भाव से बस मात्र एक वेद-भाव से एक साथ सब के साथ साम्य का नाता जोड़ना और ‘मैं’ को विश्व की ओर मोड़ना ही सही संन्यास है।
  14. सम्यक् साधन हो सत् शक्ति हो समाराधन हो सद् भक्ति हो अमूर्त भी साध्य मूर्त हो उठता है अमूर्त आराध्य स्फूर्त हो उठता है, यह सदुक्ति चरितार्थ होती तब, ‘एक पंथ दो काज’ असम्भव कुछ नहीं बस! सब कुछ सम्भव है भुक्ति और मुक्ति युगपत् ताकती है उसे सत्पथ का पथिक बना है किन्तु द्विमुख-पंथी ‘सो’ पथ पर चल नहीं सकता अनन्त का फल चख नहीं सकता।
  15. खर-नखरदार जिसके पंजे हैं कभी चूहों का शिकार खेलती है, कभी प्राण प्यारे संतान झेलती है, जिन पंजों में प्यार पलता है उन्हीं पंजों में काल छलता है ऐसा लगता है किन्तु पंजे आप हिंसक हैं, न अहिंसक प्राण का पलना काल का छलना यह अन्तर घटना है बाहर अभिव्यक्ति है तरंग पंक्ति है घटना का घटक अन्दर बैठा है अव्यक्त - व्यक्ति है वह, उसी पर आधारित है यह वही विश्व को बनाता भुक्ति वही दिलाता विश्व को मुक्ति हे! भोक्ता पुरुष ! स्वयं का भोग कब करेगा ? निश्छल योग कब धरेगा ?
  16. भुक्ति की ही नहीं मुक्ति की भी चाह नहीं है इस घट में, वाह - वाह की परवाह नहीं है प्रशंसा के क्षण में दाह के प्रवाह में अवगाह करूँ पर! आह की तरंग भी कभी न उठे इस घट में ..... संकट में इसके अंग-अंग में रग - रग में विश्व का तामस आ भर जाय किन्तु विलोम - भाव से, यानी! ता....म....स....स....म....ता!
  17. वह गृहस्थ जिसके पास कौड़ी भी नहीं है कौड़ी का नहीं है, वह श्रमण जिसके पास कौड़ी भी है कौड़ी का नहीं है, एक की शोभा माया है राग - रंग और एक की मात्र काया त्याग - संग
  18. इस बात को स्वीकारना होगा कि आँख के पास श्रद्धा नहीं होती है क्योंकि जब कुछ नहीं दिखता एकान्त में आँखें भय से कंपती हैं, और! श्रद्धा!! अन्धी होती है, किन्तु श्रद्धा के पास उदारतर उर होता है जिसमें मधुरिम सुगन्धि होती है प्रभु का नाम जपती है, तभी तो सहज रूप से अज्ञेय किन्तु श्रद्धेय प्रभु से सन्धि होती है श्रद्धा! अन्धी होती है
  19. कभी-कभी आशा निराशता में घुल जाती है हे प्राणनाथ! अन्तिम ऊँचाई है वह लोक शिखर पर बसे हो, अन्तिम सिंचाई है वह अनुपम द्युति से लसे हो यह भी सत्य है, कि अन्तिम सिंचाई है वह कमल फूल से हँसे हो किन्तु तुम्हें निहार नहीं सकता ऊपर उठाकर माथा दूरी बहुत है तुम तक विहार नहीं हो सकता पद यात्री है यह इसलिए इसकी दृष्टि से ओझल हो गये हो, कारण विदित ही है इसके माथे पर चिर-संचित पाप का भार है फलस्वरूप इसके पद बोझिल हो गये हैं और तुम ओझल हो गये हो |
  20. अन्न पान से पेट की भूख जब शान्त होती है तब जागती है रसना की भूख, रस का मूल्यांकन! नासा सुवास माँगती है ललित - लावण्य की ओर आँखें भागतीं हैं, श्रवणा उतारती स्वरों की आरती है मन मस्ताना होता है सब का कपताना होता है आविष्कार कपाट का होता है अन्यथा फण - कुचली - घायल नागिन - सी बिल से बाहर निकलती नहीं हैं ये इन्द्रिय - नागिन!
  21. अन्याय की उपासना कर वासना का दास बनकर धनिक बनने की अपेक्षा न्याय-मार्ग का उपासक बन धनिक नहीं बनना भी श्रेष्ठतम है, किन्तु अकर्मण्यता मानव मात्र को अभिशाप है महा पाप है कारण ! अन्याय से जीवन बदनाम होता है न्याय से नाम होता है जीवन कृतकाम होता है जबकि! अकर्मण्य की छाँव में जीवन तमाम होता है।
  22. स्मृति का विकास विज्ञता का स्मृति का विनाश अज्ञता का प्रतीक है, यह मान्यता लौकिक है अलौकिक नहीं इसलिए यह अलीक है किन्तु स्मरण का मरण ही यथार्थ ज्ञान है
  23. बालक और पालक दो दर्शक हैं हरित - भरित मनहर परिसर है सरवर तट है श्वाँस - श्वाँस पर तरंग का प्रवास चल रहा है अंतरंग गा रहा है तरंग - रंग भा रहा है तभी तो बालक का प्रतिपल प्रयास चल रहा है बहिरंग जा रहा है तरंग पकड़ने, और निस्संग तट में फेन का बहाना है हास चल रहा है या उपहास चल रहा है बालक पर क्या ? पालक पर पता नहीं किस पर ?
  24. काया के मिलन से माया के छलन से ऊब गया है यह भटकता - भटकता विपरीत दिशा में खूब गया है यह सहचर हैं बहुत सारे पर! कैसे लूँ ? सहयोग उनसे अंधों से कंधों का सहारा मिल सकता है किन्तु पथ का दर्शन - प्रदर्शन संभव नहीं है यह भी अंधा है इसे आँख मत दो... भले ही मत दो प्रकाश किन्तु हस्तावलम्बन तो दो ! इसे ऊपर लो गर्त से और मिलन नहीं अपने आलोक में मिला लो हे सब द्वन्द्वों से अतीत! अजित! अभीत!
  25. कृति रहे संस्कृति रहे चिरकाल तक मात्र! जीवित! सहज प्रकृति का श्रृंगार - श्रीकार मनहर आकार ले जिसमें आकृत होता है, कर्ता न रहे विश्व के सम्मुख विषम विकृति का अपार संसार अहंकार का हुंकार ले जिसमें जागृत होता है और हित... ..... निराकृत होता है |
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