ओ री! कलि की सृष्टि
कलि से कलुषित
कलंकिनी दृष्टि !
सदा शंकिनी!
अवगुण - अंकिनी!
कभी-कभी तो
गुण का चयन किया कर!
तेरी वंकिम दृष्टि में
केवल अवगुण ही झलकते हैं क्या ?
यहाँ गुण भी बिखरे हैं
तरतमता हो भले ही
ऐसा कोई जीवन नहीं है
कि
जिसमें
एक भी गुण नहीं मिलता हो
नगर-उपनगर में
पुर-गोपुर में
अभ्रंलिह प्रासाद हो
या कुटिया
जिसके पास
कम से कम एक तो
प्रवेश द्वार
होता अवश्य !