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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. हे परमात्मन्! यह सब आपके प्रसाद का ही परिपाक है पावन, कि पाँच खण्ड का प्रासाद ..... पास है अप्सरा - सी भी प्यारी पत्नी प्रमदा होकर भी पति की सेवा में अप्रमदा है प्रतिपल! प्राण-प्यारे दो-दो पुत्र भोग-उपभोग सम्पदा! सम्पन्न हूँ.....सानन्द... किन्तु एक ही आकुलता है कि पड़ोसी का दस खण्ड का महा भवन! (मन में खटकता है रात-दिन...!)
  2. मानस का कूल है समता का प्रकाश अन्तिम विकास तामसता का विलास अन्तिम ......हास...! परस्पर प्रतिकूल दो तत्त्व एक बिन्दु पर स्थित हैं दोनों शुभ्र! बाहर से क्षीर-नीर-विवेक धीर ..... गम्भीर... एक टेक जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है इनका एक का तत्त्व-चिन्तन के साथ और एक का विषय-चिन्ता के साथ एक साधु है एक स्वादु...
  3. साधना 1- रत्नत्रय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
  4. वही अधिष्ठान है सुख का मृदु नवनीत जिसका पुनः मथन नहीं है, वही विज्ञान है ..... ज्ञान .....है निज रीत जिसका पुनः कथन नहीं है, वही उत्थान है ..... थान है प्रिय संगीत जिसका पुनः पतन नहीं है |
  5. यह सतयुग नहीं है कलि-युग है, भीतर ही भीतर अहं को रस मिलता है आज ! लक्ष्मी का हाथ ऊपर उठा है अभय बाँट रहा है परसाद के रूप में और नीचे है जिसके चरणों में शरण की अभिलाष ली लजीली-सी लचीली-सी नतनयना गतवयना सती सरस्वती प्रणिपात के रूप में |
  6. पथ और पाथेय का परिचय क्या दूँ ? प्रायः परिचित हैं नियम से जो आदेय दिखाते, पथ अभी भले ही दूर हो अपरिमित...! परवाह नहीं किन्तु कहीं ऐसा न हो कि आस्था के गवाक्ष में से गन्तव्य दिख जाने से इसके तरुण चरणों की पीर कम पड़ जाय।
  7. प्रभु के प्रति किस में ? इस में... प्रीति का वास है प्रतीति पास है पर्याप्त है यह, अब इसकी नयन-ज्योति चली भी जाय कोई चिन्ता नहीं, किन्तु कहीं ऐसा न हो, ........कि प्रभु-स्तुति से पूर्व प्रभु-नुति से पूर्व इसके करुण-नयनों में नीर कम पड़ जाय |
  8. स्पर्श की स्थूल परिणति से स्थिति से औ इति से भी बहुत दूर ऊपर उठे सूक्ष्मता में अवतरण समावतरण अपरिचित के परिचय का अर्घावतरण मौन एकान्त विजन में जाति जरा मरण आवरण करते हैं निरावरण का अनावरण का वरण अनुसरण स्वयं बन कर शरण आवरण की शरण का अपहरण! अकाय! असहाय! इस काय की छुवन में अब नहीं आ सकते मत आओ... कौन कहता कि आओ ? फिर भी कहाँ बसोगे...? कहाँ लसोगे...? अपने लावण्य लेकर इसी भुवन में ना...! आनंदित अभिनंदित स्वतन्त्र स्वाश्रित सौम्य सुगन्धित चन्दन वन में नन्दन वन में ना...! हे निरावण! हे अनावरण ! दुःख निवारण कर दो अकारण इसने सावरण का कर लिया है वरण भूल से उतावली के कारण अनन्तकाल से सहता आया जनन जरा मरण किन्तु अब सुकृत हुआ है जागरण करके एकीकरण त्रिकरण कर रहा मात्र आपके नामोच्चरण होने तुम सा... निरा! निरामय नीराग... निरावरण!
  9. अनुचरों सहचरों औ अग्रेचरों के विकासोन्मुखी विविध गुणों की सुरभि-सुगंधि की जो अपनी धीमी गति से सुगंधित करती वातावरण को फैल रही... ...उपहासिका नहीं बने किन्तु... सुगंधि को सूँघती हुई पूर्ण रूपेण सादर / सविनय अपने चारों ओर बिखरे हुए घिरे हुए काँटों को भी खुल खिल हँसने जगने मृदुतम बनने की प्रेरणा देती हुई सकल दलों सहित उत्फुल्ल फूलों-सी फूली न समाये यह मम नासिका बने...ध्रुव गुण उपासिका ऐसी दो आसिका गुणावभासिका हे अविकल्पी अमूर्त शिल्प के शिल्पी...!
  10. चाँदी की चूरणी छिड़की चाँदनी की रात है चिदानन्द गंध से घम घम गंधित सौम्य सुगंधित उपवन की बात है जिसमें सहज सुखासीन निज में लीन यथाजात जिसकी गात है सुगन्ध निधि निशिगंधा अन्य दुर्लभा अपनी सुरभि से वातावरण के कण कण को सुवासित सुरभित करती निवेदन करती आज विलम्ब हुआ अपराध क्षम्य हो!... ओ री नासा...! नैवेद्य प्रस्तुत है पारिजात स्तुत है स्वीकृत हो...! अनुगृहीत करो उत्तर के रूप में बोध भरित सम्बोधन मौन भावों से कुछ भाव अभिव्यंजित हुए माना तू गंधवती है किन्तु इस ज्ञान कली में भी सुगंधि फूटी है फूली महक रही है कि तू केवल ज्ञेया भोग्या ‘गंधवती’ है ‘गंधमती’ नहीं मैं स्वयं गंधमती तू बोध विहीना क्षणिका नहीं जानती सुखमय जीवन जीना पुरुष के साथ ऐक्य होकर सुरभिका दुरभिका... ...सृजन कहाँ होता है स्रोत किस निगूढ़ में है इसका स्रजक / जनक कौन है वह...? मौन कार्यरत है वही ज्ञातव्य है यही प्राप्तव्य है इसलिए मौन वेषिका बन गवेषिका अनिमेषिका अज्ञात पुरुष की गवेषणा को सफलता की पूरी आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वस्त हो हुई हूँ उद्यमशीला मैं इसी बीच...! दाहिनी ओर से लचक चाल की मदन मोहिनी रति-सी मृदुल मालती मुख खोल कुछ बोल बोलती अधर डोलती कि नामानुसार काम कर रही है आज!... इच्छा वांछा तृष्णा आशा की छाया तक नहीं तेरी नासा की अनी पर विराग की साक्षात् प्रतिमा-सी ओ नासा...! मतकर मुझे निराश / उदास तनिक सा... पल भर... कपाट खोल मृदु बोल बोल परम पुरुष महादेव को तृप्त परितृप्त करूँ यह दुर्लभ सुरभि श्रद्धा समेत लाई हूँ... ये कई बार … विगत में मेरी सुगंध सुरभि में स्नपित स्नात हुए हैं शान्त हुए हैं। नितान्त....! प्रभु....! संक्षेप समास में सांकेतिक ध्वनि ध्वनित हुई वे अन्तर्धान हैं निर्व्यान हैं मौन निगूढ़ में तेरी ही क्या...मेरी भी अब उन्हें रही नहीं अपेक्षा विश्व उपेक्षा ही अपेक्षित निरालम्ब....स्वावलम्ब शून्याकाश प्रकाशपुंज जिस अनुभव के धरातल पर प्रतिपल फलित हो रहा है बहना...बहना...बहना.. वह ना... वह ना... वह ना ... नव नवीन नित नूतन होकर भी तुलना अन्तर विशेष नहीं सहज सामान्य शेष भेद नहीं अभेद वेद नहीं अवेद खण्ड नहीं / द्वैत नहीं अखण्ड अद्वैत अविभाज्य स्वराज्य चल रहा है स्वयं किसी इतर चालक से चालित नहीं गंध...गंध...गंध...! केवल गंध ! सुगंध कहना भी अभिशाप है पाप है अब अनुतापित करना है स्वयं को वृथा संज्ञा बन कर सूँघना नहीं मूर्छित ऊँघना नहीं प्रज्ञा बनकर सुँघना ही वरदान....! मतिमती मैं नासिका ध्रुव गुण की उपासिका प्रकाश की छाया प्रकाशिका न दुर्गंध से न सुगंध से प्रभाविता भाविता गंध से.. गंधवती गंधमती गंधातीता बंधातीता मेरा भोक्ता गंध से परे अगंध पुरुष!... मैं भोग्या योग्या कामपुरुष की आई हूँ आशातीता मैं नासा चरणों में मात्र मिले बस! चिरवासा... सहवासा...!
  11. शारीर - सेहत के सर्वांगीण विकास के लिए महेत्वपूर्ण स्वर्ण धातुयुक्त वेक्सीन शारीरिक प्रतिरोधक क्षमता को बढाने वाला शरीर की कांति में निखर लाने वाला एलर्जी समस्याओं से छुटकारा देने वाला पाचन शक्ति को विकसित करने वाला अद्वितीय मेघा, बुद्धि को बढाने वाला
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