कभी-कभी
आशा निराशता में
घुल जाती है
हे प्राणनाथ!
अन्तिम ऊँचाई है वह
लोक शिखर पर बसे हो,
अन्तिम सिंचाई है वह
अनुपम द्युति से लसे हो
यह भी सत्य है, कि
अन्तिम सिंचाई है वह
कमल फूल से हँसे हो
किन्तु तुम्हें
निहार नहीं सकता
ऊपर उठाकर माथा
दूरी बहुत है
तुम तक विहार नहीं हो सकता
पद यात्री है यह
इसलिए
इसकी दृष्टि से
ओझल हो गये हो,
कारण विदित ही है
इसके माथे पर
चिर-संचित पाप का भार है
फलस्वरूप
इसके पद बोझिल हो गये हैं
और तुम
ओझल हो गये हो |