बहुतों के मुख से यही सुनता आया था
विश्वस्त हो यही गुनता आया था
कि
सबसे नाता तोड़ना
वन की ओर मुख मोड़ना
संन्यास है,
किन्तु आज
गुरु कृपा हुई है
ठीक पूर्व से विपरीत
विश्वास हुआ है
संन्यास का अहसास हुआ है,
कि
बिना भेद-भाव से
बिना खेद-भाव से
बस मात्र
एक वेद-भाव से
एक साथ
सब के साथ
साम्य का नाता जोड़ना
और ‘मैं’ को
विश्व की ओर मोड़ना ही
सही संन्यास है।