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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • मोम बनूँ मैं….

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    वरद हस्त जो रहा है

    इस मस्तक पर

    हे गुरुवर!

    कठिन से कठिनतर

    पाषाण-हृदय भी

    मृदुल मोम हो गए,

     

    दुःख की आग बरसाते

    प्रचण्ड प्रभाकर भी

    शरद सोम हो गए,

    विरोध की ज्वाला से जलते

    विलोम वातावरण भी

    अनुलोम हो गए

    चेतना की समग्र सत्ता

    भय से संकोचित, मूर्च्छित थी आज तक

     

    अब वह अभय-जागृत

    पुलकित रोम-रोम हो गए

    प्रति-धाम से

    प्रति-नाम से

    मधुर-ध्वनि की तरंग आ रही है

    श्रवणों तक

    बस! वह सब

    सुखद ओम् हो गए।


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