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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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लेखक - महाकवि वाणीभूषण बा. ब्र. पं. भूरामल शास्त्री 

(आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज)

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दूसरे की कमाई खाना गृहस्थ के लिए कंलक है।

दूसरे की कमाई खाना गृहस्थ के लिए कंलक है।   यह बात है कि ठीक क्योंकि कमाई करने के योग्य होकर भी जो दूसरों की ही कमाई खाता है वह औरों को भी ऐसा ही करने का पाठ सिखाता है एवं जब और सब लोग भी ऐसा ही करने लग जावें तो फिर कमाने वाला कौन रहे? ऐसी हालत में फिर सभी भूखे मरें, निर्वाह कैसे हो? इसीलिये न्यायवृत्ति वाला महानुभाव औरों की कमाई की तो बात ही क्या खुद अपने पिता की कमाई पर भी निर्भर होकर रहना अपने लिये कलंक की बात मानता है। जैसा कि   उत्तमं स्वार्जित वित्त मध्यमम् पितुरर्जितं

जैन वीरों की देशभक्ति

जैन वीरों की देशभक्ति   मुसलमानों ने गुजरात पर आक्रमण कर दिया। वहां के सेनापति आबूव्रती श्रावक थे। जो कि नित्य नियमपूर्वक प्रतिक्रमण किया करते थे। शत्रुओं से लड़ते-लड़ते उनके प्रतिक्रमण का समय हो गया जिसके लिए उन्होंने एकान्त स्थान पर जाना चाहा, परन्तु मुसलमानों की जबरदस्त सेना के सामने अपनी मुट्ठी भर फौज के पांव उखड़ते देखकर राष्ट्रीय सेवा के कारण रणभूमि को छोड़ना उचित न जाना और दोनों हाथों में तलवार लिए हौदे पर बैठे हुए बोलने लगें- ‘जे मे जीवा विराहिया एकगिन्दिया वा बे इन्दिया वा' इत

व्यर्थवादी की दुर्दशा

व्यर्थवादी की दुर्दशा   जंगल में एक तालाब था, उसका जल ज्येष्ठ माह की प्रखर धूप से सूखकर नाम मात्र रह गया। उनके किनारे पर रहने वाले दो हंसों ने आपस में सलाह की कि अब यहां से किसी भी अन्य जलाशय पर चलना चाहिए, जिसको सुनकर उनके मित्र कछुवे ने कहा कि, “तुम लोग तो आकाश मार्ग से उड़कर चले जाओगे, परन्तु मैं कैसे चल सकता हूँ?" हंसों ने सोचा बात तो ठीक ही है और एक अपने मित्र को इस प्रकार विपत्ति में छोड़कर जाना भी भलमनसाहत नहीं है, अतः अपनी बुद्धिमता से एक उपाय सोच निकाला।    एक लम्बी

मौत क्या चीज है?

मौत क्या चीज है?   एक सेठ था जिसके पूर्वोपार्जित पुण्य के उदय से ऐहिक सुख की सब तरह की साधन-सामग्री मौजूद थी। अतः उसे यह भी पता नहीं था कि कष्ट क्या चीज होती है? उसका प्रत्येक क्षण अमन चैन से बीत रहा था। अब एक रोज उसके पड़ोसी के यहां पुत्र जन्म की खुशी में गीत गाये जाने लगे जो कि बड़े ही सुहावने थे, जिन्हें सुनकर उस सेठ का दिल भी बड़ा खुश हुआ। परन्तु संयोगवंश थोड़ी देर बाद ही वह बच्चा मर गया तो वहां पर गाने के स्थान पर छाती और मूड कूट-कूट कर रोया जाने लगा। जिसे सुनकर सेठ के मन में आश्च

अभिमान का दुष्परिणाम

अभिमान का दुष्परिणाम   कुछ भी न कर सकने वाला होकर भी अपने आपको करने वाला मानना अभिमान है। वस्तुतः मनुष्य कुछ नहीं कर सकता, जो कुछ होता है वह अपने-अपने कारण कलाप के द्वारा होता है। हां संसार के कितने ही कार्य ऐसे होते हैं जिनमें इतर कारणों के ही समान मनुष्य का भी उनमें हाथ होता है। एवं जिस कार्य में मनुष्य का हाथ होता है तो वह उसे अपनी विचार शक्ति के द्वारा प्रजा के लिए हानिकारक न होने देकर लाभप्रद बनाने की सोचता है, बस इसीलिये उसे उसका कर्ता कहा जाता है। फिर भी उस काम को होना, न होना य

हम उन्न्नत कैसे बनें?

हम उन्न्नत कैसे बनें?   पानी से पूछा गया कि तुम्हारा रंग कैसा है? उत्तर मिला कि जैसा रंग का सम्पर्क मिल जावे वैसा। अर्थात् पानी पीले रंग के साथ में घुलकर पीला, तो हरे रंग के साथ में घुलकर हरा बन जाता है। ऐसा ही हाल इस मनुष्य का भी है। इसको प्रारम्भ से जैसे भले या बुरे की संगति प्राप्त होती है वैसा ही वह खुद हो जाया करता है।   अभी कुछ वर्षों पहले की बात है- लखनऊ के अस्पताल में एक प्राणी लाया गया था जो कि अपनी चाल-ढाल से भेड़िया बना हुआ था, परन्तु वस्तुत वह मनुष्य था। जो कि कच

अनर्थदण्ड के प्रकार

अनर्थदण्ड के प्रकार   बात ही बात में यदि ऐसा कहा जाता है कि देखो हमारे भारत वर्ष में गेहूं बीस रुपये मन है और सोना सौ रुपये तोले से बिक रहा है परन्तु हम से पन्द्रह बीस कोस दूर पर ही पाकिस्तान आ जाता है जहां कि गेहूं तीस रुपये मन में बिक रहे हैं तो सोना पचहत्तर रुपये तोला पर मिल जाता है। यदि कोई भी व्यक्ति यहां से वहां तक यातायात की दक्षता प्राप्त कर ले तो उसे कितना लाभ हो। इस बात को सुनते ही कार-व्यापार करने वाले का या किसान को सहसा अनुचित प्रोत्साहन मिल जाता है जिससे कि वह ऐसा करने मे

मनुष्य की मनुष्यता

श्री कर्तव्य पथ - प्रदर्शन   इष्ट स्तवनम् कर्तव्य पथ हम पामरों के लिए भी दिखला रहे। हो आप दिव्यालोकमय करूणानिधे गुणधाम हे॥ फिर भी रहें हम भुलते भगवान् स्वकीय कुटेव से। इस ही लिये इस घोर संकटपूर्ण भव वन में फंसे॥   मनुष्य की मनुष्यता - माता के उदर से जन्म लेते ही मनुष्य तो हो लेता है फिर भी मनुष्यता प्राप्त करने के लिये इसे प्रकृति की गोद में पलकर समाज के सम्पर्क में आना पड़ता है। वहां इसे दो प्रकार के सम्पर्क प्राप्त होते हैं- एक तो इसका बिगाड़ करने व

अन्याय के धन का दुष्परिणाम

अन्याय के धन का दुष्परिणाम   एक दर्जी के दो लड़के थे जो कि एक-एक टोपी रोजाना बनाया करते थे, उनमें से एक जो संतोषी था वह तो अपनी टोपी के दो पैसों में से एक पैसा तो खुद खाता था और एक पैसा किसी गरीब को दे देता था। एक रोज दो दिन का भूखा एक आदमी उसके आगे आ खड़ा हुआ उस दर्जी ने जो टोपी तैयार की थी उसके दो पैसे उसके पास आये तो उनमें के एक पैसा उसने उस पास में खड़े गरीब को दे दिया। गरीब ने उस पैसे के चने लेकर खा लिये और पानी पी लिया। अब उसके दिल में विचार आया कि देखों यह दर्जी का लड़का एक टोपी

बाल जीवन की विशेषता

बाल जीवन की विशेषता   एक नवजात बालक भी अपने जीवन में खाना पीना सो जाना आदि अपनी अवस्थोचित बात तो करता ही है परन्तु वह अपने सरल भाव से जो करता है और जब तक करता है फिर उसे छोड़ दूसरी बात करने लगता हो तो उसी में संलग्न हो जाता है। उसे उस समय फिर पहले वाली बात के बारे की कुछ भी चिन्ता नहीं रहा करती। जब भूख लगी कि माता के स्तनों को पकड़कर खुशी से चूसने लगता है, किन्तु जहां पेट भरा कि उन्हें छोड़कर खेलने लगता है या सो जाता है, फिर भूख लगी कि उठकर दूध पीहने लगता है एवं पेट भरा कि फिर मस्त। इस

कर्त्तव्य और कार्य

कर्त्तव्य और कार्य   शरीर के भरण-पोषण के लिये जो किया जाता है ऐसा खाना पीना, सोना, उठना वगैरह कार्य कहलाता है जिससे संसारी प्राणी चाह पूर्वक अनायास रूप से किया करता है। जो आत्मोन्नति के लिए प्रयत्नपूर्वक किया जाता है ऐसा भगवद्भजन, परोपकार आदि कर्तव्य होता है। कार्य तो इतर प्राणियों की भांति नामधारी मानव भी लगन के साथ करता है मगर वह कर्त्तव्य को सर्वथा भूले हुये रहता है। उसके विचार में कर्तव्य का कोई मूल्य नहीं होता परन्तु वही जब मानवता की ओर ढलता है तो कर्तव्य को भी पहिचानने लगता है। य

मानवपन नपा तुला होना चाहिये

मानवपन नपा तुला होना चाहिये   मनुष्य जीवन पानी की तरह होता है। पानी बहता न होकर अगर एक ही जगह पड़ा रहे तो सड़ जाये। हां, वही बहता होकर भी बगल के दोनों तटों को तोड़-फोड़ कर इधर-उधर तितर बितर हो जाये तो भी शीघ्र ही नष्ट हो रहे। मनुष्य भी निकम्मा हो कर पड़ा रहे तो शोभा नहीं पा सकता। उसे भी कुछ न कुछ करते ही रहना चाहिये। उचितार्जन और त्यागरूप दोनों तटों के बीच में होकर नदी की भांति बहते रहना चाहिये। यह तो मानी हुई बात है कि खाने के लिये कमाना भी पड़ता ही है परन्तु कोई यदि विष ही कमाने

शिल्प कला

शिल्प कला   यद्यपि खाने पीने और पहनने ओढ़ने वगैरह की, हमारे जीवन निर्वाह योग्य चीजें सब खेती करने से प्राप्त होती हैं, जमीन जोतकर पैदा कर ली जाती है, फिर भी इतने मात्र से ही वे सब हमारे काम में आने लायक हो रहती हों सो बात नहीं, किन्तु उन्हें रूपान्तर करने से उपयोग में लाई जाती हैं, जैसे कि खेत मैं उत्पन्न हुए अन्न को पीसकर उसकी रोटियां बनाकर खाई जाती हैं अथवा उसे भूनकर चबाया जाता है। कपास को चरखी में से निकालकर उसे पींजकर फिर उसे चरखें से कातकर सूत बनाया जाता है और बाद में उसका कर्मे क

दान का सही तरीका

दान का सही तरीका   आपने ‘‘राजस्थान इतिहास' देखा होगा। वहां महान उदयन का वृत्तांत लिखा हुआ है। वह मननशील विद्वान था, परन्तु दरिद्रता के कारण उसके पैर जमीन पर नहीं जम सके थे। अत: वह नंगे पैर मारवाड़ के रेतीले मैदान को पार करते हुए बड़े कष्ट के साथ सिद्ध पुर पाटन तक पहुंच पाया। उसने दो दिन से कुछ भी नहीं खाया था और शरीर पर मैले तथा फटे कपड़ों को पहने हुए था। उसका नाते रिश्तेदार या परिचित तो था ही नहीं जो कि उसके सुख-दुःख की उसे पूछता। थोड़ी देर बाद वह एक जैन धर्मस्थान के द्वार पर जा बैठा।

रात्रि में भोजन करना मनुष्य के लिए अप्राकृतिक है

रात्रि में भोजन करना मनुष्य के लिए अप्राकृतिक है   शारीरिक शास्त्र जो कि मनुष्य स्वास्थ्य को दृष्टि में रख कर बना उसका कहना है कि दिन में पित्त प्रधान रहता है तो रात्रि में कफ। एवं भोजन को पचाना पित्त का कार्य है अतः मनुष्य को दिन में ही भोजन करना चाहिये। इसलिये वैद्य लोग अपने रोगी को लंघन कराने के अनन्तर जो पथ्य देते हैं वह कर्तव्य पथ प्रदर्शन रात्रि में कभी भी न देकर दिन में ही देते हैं। दिन में भी सूर्योदय से एक डेढ़ घण्टे बाद से लगातार मध्यान्ह के बारह बजे से पहले ही पथ्य देने का आ

महाराजा रामसिंह

महाराजा रामसिंह   महाराजा रामसिंह जयपुर स्टेट के एक प्रसिद्ध भूपाल हो गये हैं। जो कि एक बार घोड़े पर बैठकर अकेले ही घूमने को निकल पड़े। घूमते-घूमते बहुत दूर जंगल में पहुँच गये तो दोपहर की गर्मी से उन्हें प्यास लग आई। एक कुटिया के समीप पहुँचे जिसमें बुढ़िया अपनी टूटी सी चारपाई पर लेटी हुयी थी। बुढ़िया ने जब उन्हें अपने द्वार पर आया हुआ देखा तो वह उनके स्वागत के लिए उठ बैठी और उन्हें आदर के साथ चारपाई पर बैठाया। राजा बोले कि माताजी मुझे बड़ी जोर से प्यास लग रही है अत: थोड़ा पानी हो तो पि

ज्ञानाष्टक

ज्ञानाष्टक   इस भद्र भारतवर्ष में, थे ज्ञान में नेता गुरू। इस लोक में सबसे अधिक, स्वाधीनता रखते गुरू॥ स्वाधीनता ही सन्त का, भूषण बना इस लोक में। इस लोक में परलोक में, सब लोक में दिखते गुरू ॥१॥   थे ज्ञानासागर पूज्य गुरुवर, आन जिनकी ज्ञान थी। उन ज्ञान ने उस ज्ञान से, ज्योति जगायी ज्ञान थी। जिस ज्योति ने लाखों जगायी, ज्योतियाँ अब ज्ञान की। जलती रहेगी ज्योति नित, अब ज्ञान की उर ध्यान की ॥ २ ॥   जिनके न मन में राग था, न द्वेष रखते थे कभी

रात्रि में भोजन करने से हानि

रात्रि में भोजन करने से हानि   अकबर बादशाह कौम से मुसलमान थे किन्तु हिन्दुओं के साथ भी उनका अच्छा संपर्क था। उनका प्रधानमंत्री बीरबल भी ब्राह्मण था। उनके पास और भी भले-भले हिन्दू रहते थे। एक दिन, दिन में खाने वाले किसी विचारशील हिन्दू आदमी ने उनसे कहा कि हुजूर! आप रात्रि में खाना खाते हैं यह ठीक नहीं कर रहे हैं। बादशाह बोले क्यों क्या हानि है? जवाब मिला कि हानि तो बहुत है। सबसे पहली हानि तो यही है कि रात्रि में अंधकार की वजह से भोजन में क्या है और क्या नहीं है यही ठीक नहीं पता चला करता

साधक का कार्य क्षेत्र

साधक का कार्य क्षेत्र   भूमितल बहुत विशाल है और इसमें नाना विचारों के आदमी निवास करते हैं, कोई बुरी आदत वाला आदमी है तो कोई कुछ अच्छी आदत वाला। एवं मनुष्य का हिसाब ही कुछ ऐसा है कि यह जैसे की संगति में रहता है तो प्रायः आप भी वैसा ही हो रहता है जिसमें भी अच्छे के पास में रह कर अच्छाई को बहुत कम पकड़ पाता है किन्तु बुरे के पास में होकर बुराई को बहुत शीघ्र ले लेता है जैसे कि उजला कपड़ा कोयलों पर गिरते ही मैला हो जाता है परन्तु फिर वही साबुन पर गिर कर उजला बन जाता है, सो बात नहीं कर्

समाधिकरण

समाधिकरण   जिसने भी जन्म पाया है, जो भी पैदा हुआ है उसे मरना अवश्य होगा, यह एक अटल नियम है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक लोग इस पर परिश्रम कर के थक लिये कि कोई भी जन्म लेता है तो ठीक, मगर मरता क्यों हैं? मरना नहीं चाहिये। फिर भी इस में सफल हुआ हो ऐसा एक भी आदमी इस भूतल पर नहीं दिख पड़ा रहा है। धन्वन्तरिजी वैष्णवों के चौबीस अवतारों में से एक अवतार माने गये हैं। कहा जाता है कि जहां वे खड़े हो जाते थे, वहां की जड़ी बूटियां भी पुकार-पुकारकर कहने लगती थीं कि मैं इस बीमारी में काम आती हूं, मैं अमुक र

उपवास का महत्व

उपवास का महत्व   यह कोई नई बात नहीं है कि शरीर को स्थिर करने के लिए आहार की खास आवश्यकता होती है। जो कुछ हम भोजन करते हैं उसका रस रक्तादि बन कर हमारे शरीर को बनाये रखने में सहायक होते हैं। परन्तु वह भोजन भी प्राकृतिक और मितमात्रा में तथा समुचित रीति से खाया जाना चाहिये, नहीं तो वही भोजन लाभ के स्थान पर हानिकारक हो जाता है। भोजन शरीर का साधन है इसीलिये यह शरीरधारी भी भोजन का आदी बना है और इसीलिये हो सके जहां तक अच्छे से अच्छा स्वादिष्ट रूचिकर भोजन बनाकर खाया करता है। भोजन रूचिकर होने से

मनोबल ही प्रधान बल है

मनोबल ही प्रधान बल है   वैसे तो मनुष्य के पास में ज्ञानबल, धनबल, सेनाबल, अधिकार बल और तपोबल आदि अनेक तरह के बल होते हैं, जिनके सहयोग से मनुष्य अपने कर्तव्य कार्य से इस पार से उस पार पहुंच पाता है, परन्तु उन सब बलों में शरीरबल, वचनबल और मनोबल ये तीनों बल उल्लेखनीय बल हैं।   मनुष्य को अपने सभी तरह के कार्य सम्पादन करने के लिए उसे शारीरिक बल तो अनिवार्य है। जितना भी हष्ट-पुष्ट और स्वस्थ होगा वह उतना ही प्रत्येक कार्य को सुन्दरता के साथ सम्पादित कर सकेगा, यह एक साधारण नियम है। अ

बड़ा दान

बड़ा दान   यद्यपि आमतौर पर लोग एक रूपया देने वाले की अपेक्षा पांच रूपये देने वाले को और पांच देने वाले की अपेक्षा पचास तथा पांच सौ देने वाले को महान दानी कहकर उसके दान की बड़ाई किया करते हैं। मगर समझदार लोगों की निगाह में ऐसी बात नहीं है क्योंकि एक आदमी करोड़पति, अरबपति जिसकी अपने खर्च के बाद भी हजारों रूपये रोजाना की आमदनी है वह आड़े हाथ भी किसी को यदि सौ रूपये दे देता है तो उसके लिए ऐसा करना कौनसी बड़ी बात है। हां, कोई गरीब भाई दिन भर मेहनत मजदूरी करके बड़ी मुश्किल से कही अपना पेट पा

पर्यालोचन

पर्यालोचन   मनुष्य विस्मरणशील होता है और उसके जुम्मे अपने शरीर को संभाल कर रखना, बाल बच्चों का लालन-पालन करना, अभ्यागतों का सत्कार करना, बुजुर्गों का टहल करना, दीन-दु:खियों की सेवा करना, मित्र दोस्तों के साथ प्रेम से सम्भाषण करना, भगवद्भभजन करना आदि अनेक तरह के कार्य लगे हुए होते हैं। उनमें से कौन-सा कार्य किस प्रकार से आज मुझे सम्पादित करना चाहिये, कौन से कार्य सम्पादित करने में मैंने क्या गलती खाई है, कहीं मैंने मेरे तन-मन-वचन और धन के घमण्ड में आकर कोई न करने योग्य अनुचित बर्ताव तो

राजनीति और धर्मनीति

राजनीति और धर्मनीति   इन दोनों में परस्पर विरोध है। क्योंकि धर्म तो अहिंसा का पालन करने एवं इसे अन्त तक अक्षुण्ण रूप निभा दिखलाने को कहते हैं। परन्तु राजाओं का काम अपने राज्य शासन को बनाये रखना होता है। अत: उसके लिए येनकेन रूपेण अपने पक्ष को प्रबल बनाते चले जाना और अपने विरोधियों का का दमन करते रहना होता है। इसलिए राज्यसत्ता हिंसापूर्ण पापमय हुआ करती है। ऐसा कुछ लोग समझ बैठे हैं, किन्तु विचार करने पर यह ठीक प्रतीत नहीं होता है क्योंकि धर्म जो कि विश्व के कल्याण की चीज है उसे अपने जीवन
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