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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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लेखक - महाकवि वाणीभूषण बा. ब्र. पं. भूरामल शास्त्री 

(आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज)

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कोई भी अपने विचारों से ही भला या बुरा बनता है

कोई भी अपने विचारों से ही भला या बुरा बनता है।   "परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्य पापयो: प्रज्ञाः" ऐसा श्री पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा गया है। अर्थात मनुष्य जैसे अच्छे या बुरे विचार करता है वैसा स्वयं बना रहता है वह नि:संदेह बात है। विचार मनुष्य का सूक्ष्म जीवन है तो कार्यकरण उसका स्थूल रूप। मनुष्य का मन एक समुद्र सरीखा है, जिसमें कि विचार की तरंगे निरंतर चलती रहती हैं। पूर्व क्षण में कोई एक विचारों वाला होता है तो उत्तर क्षण में कोई और दूसरा। जैसे किसी को देखते ही विचारता है कि मैं इसे

अहिंसा की आवश्यकता

अहिंसा की आवश्यकता   जैसे पापों में सबसे मुख्य हिंसा है वैसे ही धर्माचरणों में सबसे पहला नम्बर अहिंसा का है। जिस किसी के दिल में हिंसा से परहेज या अहिंसा भाव नहीं है तो समझ लेना चाहिये कि वहां सदाचार का नामोनिशान भी नहीं है। अहिंसा का सीधा सा अर्थ है, किसी भी प्राणी का वध नहीं करना। जीना सबको प्रिय है, मरना कोई नहीं चाहता। अतः अहिंसा कम से कम अपने आपके लिये सबको अभीष्ट है। जो खुद अहिंसा को पसन्द करे परन्तु औरों के लिये हिंसामय प्रयोग करे उसे प्रकृति मंजूर नहीं करती, रूष्ट ही रहती है। ज

दान का सही तरीका

दान का सही तरीका   आपने ‘‘राजस्थान इतिहास' देखा होगा। वहां महान उदयन का वृत्तांत लिखा हुआ है। वह मननशील विद्वान था, परन्तु दरिद्रता के कारण उसके पैर जमीन पर नहीं जम सके थे। अत: वह नंगे पैर मारवाड़ के रेतीले मैदान को पार करते हुए बड़े कष्ट के साथ सिद्ध पुर पाटन तक पहुंच पाया। उसने दो दिन से कुछ भी नहीं खाया था और शरीर पर मैले तथा फटे कपड़ों को पहने हुए था। उसका नाते रिश्तेदार या परिचित तो था ही नहीं जो कि उसके सुख-दुःख की उसे पूछता। थोड़ी देर बाद वह एक जैन धर्मस्थान के द्वार पर जा बैठा।

सत्य की पूजा

सत्य की पूजा   आमतौर पर जैसा का तैसा कहने को सत्य समझा जाता है। परन्तु भगवान महावीर ने वाचनिक सत्य की अपेक्षा मानसिक सत्य को अधिक महत्त्व दिया। हम देखते हैं कि काणे को काणा कहने पर वह चिढ़ उठता है, उसके लिये काणा कहना यह सत्य नहीं, किन्तु झूठ बन जाता है क्योंकि उसमें वह अपनी अवज्ञा मानता है। है भी सचमुच ऐसा ही। जब उसे नीचा दिखाना होता है तभी कोई उसे काणा कहता है। मानो अन्धे को अन्धा कहने वाले का वचन तो सत्य होता है फिर भी मन असत्य से घिरा हुआ होता है। क्षुद्रता को लिए हुए होता है। अन्य

मनुष्य की मनुष्यता

श्री कर्तव्य पथ - प्रदर्शन   इष्ट स्तवनम् कर्तव्य पथ हम पामरों के लिए भी दिखला रहे। हो आप दिव्यालोकमय करूणानिधे गुणधाम हे॥ फिर भी रहें हम भुलते भगवान् स्वकीय कुटेव से। इस ही लिये इस घोर संकटपूर्ण भव वन में फंसे॥   मनुष्य की मनुष्यता - माता के उदर से जन्म लेते ही मनुष्य तो हो लेता है फिर भी मनुष्यता प्राप्त करने के लिये इसे प्रकृति की गोद में पलकर समाज के सम्पर्क में आना पड़ता है। वहां इसे दो प्रकार के सम्पर्क प्राप्त होते हैं- एक तो इसका बिगाड़ करने व

हम उन्न्नत कैसे बनें?

हम उन्न्नत कैसे बनें?   पानी से पूछा गया कि तुम्हारा रंग कैसा है? उत्तर मिला कि जैसा रंग का सम्पर्क मिल जावे वैसा। अर्थात् पानी पीले रंग के साथ में घुलकर पीला, तो हरे रंग के साथ में घुलकर हरा बन जाता है। ऐसा ही हाल इस मनुष्य का भी है। इसको प्रारम्भ से जैसे भले या बुरे की संगति प्राप्त होती है वैसा ही वह खुद हो जाया करता है।   अभी कुछ वर्षों पहले की बात है- लखनऊ के अस्पताल में एक प्राणी लाया गया था जो कि अपनी चाल-ढाल से भेड़िया बना हुआ था, परन्तु वस्तुत वह मनुष्य था। जो कि कच

सत्संगति का सुफल

सत्संगति का सुफल   एक बार की बात है, एक बहेलिया दो तोते लाया। उनमें से उसने एक तो किसी वेश्या को दे दिया और दूसरे को एक पण्डित जी के हाथ बेच दिया। थोड़े दिन के बाद वेश्या एक रोज महफिल करने राज दरबार में पहुंची। उसका तोता उसके हाथ में था सो पहुंचते ही राजा के सम्मुख अनेक प्रकार के भण्ड वचन सुनाने लगा। राजा को गुस्सा आया और उसने हुक्म दिया कि इसे मार डाला जावे। तोता बोला - हुजूर! मैं मारा तो जाऊँगा ही परन्तु इससे पहले मुझे मेरे भाई से मिला दीजिये। राजा ने कहा तेरा भाई कहाँ है? तोते ने कह

सुभाषित ही संजीवन है

सुभाषित ही संजीवन है   जिसको सुनकर भूला भटका हुआ आदमी ठीक मार्ग पर आ जावे और मार्ग पर लगा हुआ आदमी दृढ़ता के साथ उसे अपनाकर अपने अभीष्ट को प्राप्त करने में समर्थ बन जावे उसे सुभाषित कहते हैं। यद्यपि बिना बोले आदमी का कोई भी कार्य सुचारु नहीं होता, किन्तु अधिक बोलने से भी कार्य होने के बदले वह बिगड़ जाया करता है। समय पर न बोलने वाले को मूक कहकर उसका निरादर किया जाता है, तो अधिक या व्यर्थ बोलने वाले को भी वावदूक या वाचाल कहकर भर्त्सना ही की जाती है। तुली हुई और समयोचित बात का ही दुनिया म

व्यर्थवादी की दुर्दशा

व्यर्थवादी की दुर्दशा   जंगल में एक तालाब था, उसका जल ज्येष्ठ माह की प्रखर धूप से सूखकर नाम मात्र रह गया। उनके किनारे पर रहने वाले दो हंसों ने आपस में सलाह की कि अब यहां से किसी भी अन्य जलाशय पर चलना चाहिए, जिसको सुनकर उनके मित्र कछुवे ने कहा कि, “तुम लोग तो आकाश मार्ग से उड़कर चले जाओगे, परन्तु मैं कैसे चल सकता हूँ?" हंसों ने सोचा बात तो ठीक ही है और एक अपने मित्र को इस प्रकार विपत्ति में छोड़कर जाना भी भलमनसाहत नहीं है, अतः अपनी बुद्धिमता से एक उपाय सोच निकाला।    एक लम्बी

सत्साहित्य का प्रभाव

सत्साहित्य का प्रभाव   सुना जाता है कि महात्मा गांधी अपनी बैरिस्ट्री की दशा में एक रोज रेल से मुसाफिरी कर रहे थे। सफर पूरे बारह घण्टों का था। उनके एक अंग्रेज मित्र ने उन्हें एक पुस्तक देते हुए कहा कि आप अपने इस सफर को इस पुस्तक के पढ़ने से सफल कीजियेगा। उसको गांधीजी ने शुरू से आखिरी तक बड़े ध्यान से पढ़ा। उस पुस्तक को पढ़ने से गांधीजी के चित्त पर ऐसा असर हुआ कि उन्होंने अपनी बैरिस्ट्री छोड़कर उसी समय से सादा जीवन बिताना प्रारम्भ कर दिया।   आजकल पुस्तक पढ़ने का प्रचार आम जनता

साधु समागम

साधु समागम   अपने विचारों को निर्मल बनाने के लिए जिस प्रकार से सत्साहित्य का अध्ययन जरूरी है उसी प्रकार अपने जीवन को सुधारने के लिए मनुष्य को समीचीन साधुओं का संसर्ग प्राप्त करना उससे भी कहीं अधिक उपयोगी होता है। मनुष्य के मन के मैल को धोने के लिए उत्तम साहित्य का पठन पाठन, जल और साबुन का काम करता है। परन्तु पुनीत साधुओं का समागम तो इसके जीवन में चमत्कार लाने के लिए वह जादू का सा कार्य करता है जैसा कि लोहे के टुकड़े के लिए पारस का संसर्ग। अत: विचारशील मनुष्य को चाहिए कि साधुओं का सम्पर

सकामता के साथ निष्कामता का संघर्ष

सकामता के साथ निष्कामता का संघर्ष   माता-पिता ने सोचा इसे छोटी-सी बात कहकर मनवा लेना चाहिए, फिर तो यह खुद ही अपने दिल में आई हुई बात को भूल जावेगा। सब यही सोचकर उन्होंने कहा था कि विवाह तो करलो। इस पर जम्बू ने विचार किया कि ये माता-पिता हैं। इनका इस मेरे शरीर पर अधिकार है अतः इस साधारण सी बात के लिये नाराज करना ठीक नहीं है। वैरागी का अर्थ किसी को नाराज करना या किसी पर नाराज होना नहीं है। वह तो स्वयं आत्मावत् परमात्मा के समझा करता है। उसकी निगाहों में तो जितनी अपने आप की कीमत होती है। उ

लक्ष्मी का पति

लक्ष्मी का पति   सुना जाता है कि एक बार लक्ष्मी का स्वयंवर हो रहा था। उसमें सभी लोग अपनी शान और शौरत के साथ आ सम्मिलित हुए थे। जब स्वयंवर का समय हुआ तो लक्ष्मी आयी और बोली कि मैं उसी पुरुष को वरूँगी जो कि स्वप्न में भी मेरी इच्छा न रखता हो। इस पर सब लोग बड़े निराश और हतप्रभ हो रहे। लक्ष्मी चलते-चलते अन्त में वहां पर आयी जहां पर शेषनाग की शैय्या पर विष्णु महाराज बेफिकर सोये हुए थे। आकर उसने उनके गले में वरमाला डाल दी। विष्णु बोले कौन है? तो जवाब मिला कि लक्ष्मी हूं। फिर कहा गया कि चली ज

मनोबल ही प्रधान बल है

मनोबल ही प्रधान बल है   वैसे तो मनुष्य के पास में ज्ञानबल, धनबल, सेनाबल, अधिकार बल और तपोबल आदि अनेक तरह के बल होते हैं, जिनके सहयोग से मनुष्य अपने कर्तव्य कार्य से इस पार से उस पार पहुंच पाता है, परन्तु उन सब बलों में शरीरबल, वचनबल और मनोबल ये तीनों बल उल्लेखनीय बल हैं।   मनुष्य को अपने सभी तरह के कार्य सम्पादन करने के लिए उसे शारीरिक बल तो अनिवार्य है। जितना भी हष्ट-पुष्ट और स्वस्थ होगा वह उतना ही प्रत्येक कार्य को सुन्दरता के साथ सम्पादित कर सकेगा, यह एक साधारण नियम है। अ

मन की एकाग्रता कैसे प्राप्त हो?

मन की एकाग्रता कैसे प्राप्त हो?   मन को एकाग्र करना, शान्त बनाना बड़े महत्त्व की बात है, यह तो समझ में आता है परन्तु विचारों का गुब्बार हमारे इस पोले मन में भरा हुआ है उसे निकाल बाहर किये बिना मन की एकाग्रता हो कैसे? प्रथम तो इसके पास मैं यह खा लें, यह पी लें, फिर टहल लें और सो लू इत्यादि इतने विचार उपसंग्रहीत हैं कि उनका दूर करना सरल बात नहीं है और अगर कहीं प्रयास करके इन ऊपरी विचारों को दूर कर भी दिया तो यह तो मकड़े की भांति प्रतिक्षण नये विचारों को जन्म देता ही रहता है। सो उन भीतरी

बाल जीवन की विशेषता

बाल जीवन की विशेषता   एक नवजात बालक भी अपने जीवन में खाना पीना सो जाना आदि अपनी अवस्थोचित बात तो करता ही है परन्तु वह अपने सरल भाव से जो करता है और जब तक करता है फिर उसे छोड़ दूसरी बात करने लगता हो तो उसी में संलग्न हो जाता है। उसे उस समय फिर पहले वाली बात के बारे की कुछ भी चिन्ता नहीं रहा करती। जब भूख लगी कि माता के स्तनों को पकड़कर खुशी से चूसने लगता है, किन्तु जहां पेट भरा कि उन्हें छोड़कर खेलने लगता है या सो जाता है, फिर भूख लगी कि उठकर दूध पीहने लगता है एवं पेट भरा कि फिर मस्त। इस

दया की महत्ता

दया की महत्ता   किसी भी प्राणी का कोई भी तरह का कुछ भी बिगाड़ न होने पावे, सब लोग कुशलतापूर्वक अपना-अपना जीवन व्यतीत करें ऐसी रीति का नाम दया है। दयावान का दिल विशाल होता है, उसके मन में सबके लिये जगह होती है। वह किसी को भी वस्तुतः छोटा या बड़ा नहीं मानता, अपने पराये का भी भेदभाव उसके दिल से दूर रहता है। वह सब आत्माओं को समान समझता है। तभी तो वह दूसरे का दु:ख दूर करने के लिए अपने आपका बलिदान करने में भी नहीं हिचकिचाता है। एक बार की बात है कि हाई कोर्ट के एक जज साहब अपनी मोटर में सवार ह

जहां दया है वहां कोई दुर्गुण नहीं

जहां दया है वहां कोई दुर्गुण नहीं   जिन बातों के होने से प्राणी, प्रजा का विप्लवकारी साबित हो ऐसी हिंसा, असत्यभाषण चोरी, व्यभिचार, असन्तोष आदि को दुर्गुण समझना चाहिए। जहां दया होती है वहां पर इन दुर्गुणों का लेश मात्रा भी नहीं होता परन्तु जहां इनमें से कोई भी एक तो वहां पर फिर दया नहीं रह सकती है। हमारे यहां एक कथा आती है कि एक राजा था उस के दो लड़के थे। तो राजा के मरने पर बड़े लड़के को राजा और छोटे को युवराज बनाया गया। दोनों का समय परस्पर बड़े प्रेम से कटने लगा। परन्तु संयोगवश ऐसा हुआ

दया का सहयोग विवेक

दया का सहयोग विवेक   हाँ यह बात भी याद रखने योग्य है कि दया के साथ में भी विवेक का पुट अवश्य चाहिए। दया होगी और विवेक न होगा प्रत्युत उसके ही स्थान पर मोह होगा तो वह उस विश्व संजीवनी दया को भी संहारकारिणी बना डालेगा। मान लीजिये कि आपको बच्चे को कफ, खांसी का रोग हो गया, आप उसको आराम कराना चाहते हैं और वैद्य के पास से दवा भी दिला रहे हैं, मगर बच्चे को दही खाने का अभ्यास है, वह दही मांगता है, नहीं देते हैं तो रोता है, छटपटाता है, मानता नहीं है, तो आप उसे दही खाने को दे देंगे? अपितु नहीं द

अभिमान का दुष्परिणाम

अभिमान का दुष्परिणाम   कुछ भी न कर सकने वाला होकर भी अपने आपको करने वाला मानना अभिमान है। वस्तुतः मनुष्य कुछ नहीं कर सकता, जो कुछ होता है वह अपने-अपने कारण कलाप के द्वारा होता है। हां संसार के कितने ही कार्य ऐसे होते हैं जिनमें इतर कारणों के ही समान मनुष्य का भी उनमें हाथ होता है। एवं जिस कार्य में मनुष्य का हाथ होता है तो वह उसे अपनी विचार शक्ति के द्वारा प्रजा के लिए हानिकारक न होने देकर लाभप्रद बनाने की सोचता है, बस इसीलिये उसे उसका कर्ता कहा जाता है। फिर भी उस काम को होना, न होना य

परिस्थिति की विषमता

परिस्थिति की विषमता   किसी भी देश और प्रान्त में ही नहीं किन्तु प्रत्येक गांव तथा घर में भी आज तो प्राय: कलह, विसंवाद, ईर्षा, द्वेष आदि का आतंक छाया हुआ पाया जा रहा है। इधर से उधर चारों तरफ बुराइयों का वातावरण ही जोर पकड़ता जा रहा है, इसलिये मनुष्य अपने जीवन के चौराहे पर किकर्त्तव्यविमूढ़ हुआ खड़ा है। वह किधर जावे और क्या करे? सभी तरफ से हिंसा की भीषण ज्वालायें आकर इसे भस्म कर देना चाहती हैं। असत्य के खारे पानी से सन कर इसका कलेजा पुराने कपड़े की तरह चीर-चीर होता हुआ दीख रहा है। लूट-खस

स्वार्थपरता सर्वनाश की जड़ है

स्वार्थपरता सर्वनाश की जड़ है   ऊपर लिखा गया है कि मनुष्य का जीवन एक सहयोगी जीवन है। उसे अपने आपको उपयोगी साबित करने के लिये औरों का साथ अवश्यम्भावी है, जैसे कि धागों के साथ में मिलकर चादर कहलाता है और मूल्यवान बनता है। अकेला धागा किसी गिनती में नहीं आता, वैसे ही मनुष्य भी अन्य मनुष्यों के साथ में अपना संबंध स्थापित करके शोभावान बनता है। यानी कि अपना व्यक्तित्व सुचारू करने के लिये मनुष्य को सामाजिकता की जरूरत होती है। अत: प्रत्येक मानव का कर्तव्य हो जाता है कि वह अपने आपके लिये जितना स

श्रावक की सार्थकता

श्रावक की सार्थकता   श्रावक शब्द का सीधा सा अर्थ होता है, सुनने वाला एवं सुनने वाले तो वे सभी प्राणी हैं जिनके कान हैं। अत: ऐसा करने से कोई ठीक मतलब नहीं निकलता। हम देखते हैं कि किसी भी पंचायत या न्यायालय में कोई पुकारने वाला पुकारता है। उसकी पुकार पर ध्यानपूर्वक विचार करके यदि उसका समुचित प्रबन्ध नहीं किया जाता है तो वह कह उठता है कि यहां पर किसकी कौन सुनने वाला है? कितना भी क्यों न पुकारों। मतलब उसका यह नहीं कि वहां सभी बहरे हैं, परन्तु सुनकर उसका ठीक उपयोग नहीं, पुकारने वाले की पीड़

उपासक का प्रशमभाव

उपासक का प्रशमभाव   जैसा कि महात्माओं के मुंह से उसने सुना है, उसके अनुसार वह मानता है कि आत्मत्व के रूप में सभी जीव समान हैं, सबमें जानपना विद्यमान है। अव्यक्त रूप से सभी परमात्मत्व को लिए हुए हैं, प्रभुत्व शक्तियुक्त है एवं किसी के भी साथ में विरोध, वैमनस्य करना परमात्मा के साथ में विरोध करना कहा जाता है। परमात्मा से विरोध करना सो अपने आपके साथ ही विरोध करना है। अत: किसी के भी साथ में बैश्र विरोध करने की भावना ही उसके मन में कभी जागृत ही नहीं होती। उसके हृदय में तो सम्पूर्ण प्राणियों

संवेगभाव

संवेगभाव   महात्मा लोगों ने निर्णय कर बताया है कि शरीर भिन्न है तो शरीरी उससे भिन्न। शरीरी चेतन और अमूर्तिक है तो शरीर जड़ और मूर्तिक, पुद्गल परमाणुओं का पिंड, जिसको कि यह चेतन अपनी कार्यकुशलता दिखाने के लिए धारण किये हुए है। जैसे बढ़ई वसोला लिए हुए रहता है काठ छीलने के लिये, सो भोंटा हो जाने पर उसे पाषाण पर घिसकर तीक्ष्ण बनाता है और उसमें लगा हुआ बैंता अगर जीर्ण-शीर्ण हो गया हो तो दूसरा बदलकर रखता है। वैसे ही उपासक भी अपने इस शरीर से भगवद्भजन और समाज सेवा सरीखे कार्य किया करता है। अतः
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