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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

अहिंसा की आवश्यकता


संयम स्वर्ण महोत्सव

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अहिंसा की आवश्यकता

 

जैसे पापों में सबसे मुख्य हिंसा है वैसे ही धर्माचरणों में सबसे पहला नम्बर अहिंसा का है। जिस किसी के दिल में हिंसा से परहेज या अहिंसा भाव नहीं है तो समझ लेना चाहिये कि वहां सदाचार का नामोनिशान भी नहीं है। अहिंसा का सीधा सा अर्थ है, किसी भी प्राणी का वध नहीं करना। जीना सबको प्रिय है, मरना कोई नहीं चाहता। अतः अहिंसा कम से कम अपने आपके लिये सबको अभीष्ट है। जो खुद अहिंसा को पसन्द करे परन्तु औरों के लिये हिंसामय प्रयोग करे उसे प्रकृति मंजूर नहीं करती, रूष्ट ही रहती है। जिससे कि विप्लव मचाता है जैसा कि प्रायः आजकल देखने में आ रहा है।

 

आज का अधिकांश मानव स्वार्थ के वश होकर दूसरों को बरबाद करने की ही सोचता रहता है। किसी ने तो टेलीफोन का उद्घाटन करके हलकारे की रोजी पर कुठाराघात किया है तो कोई खरादि के पुतलों द्वारा लिखा पढ़ी का काम लेना बताकर क्लर्क लोगों की आजीविका का मूलोच्छेद करने जा रहा है। किसी ने कूकर चूल्हा खड़ा करके अपने आप खाना बनाना बताकर पूंजीवादियों की पीठ ठोकते हुये बिचारे खाना बनाने वाले रसोईदारों का बेकार बनाने पर कमर कसली है। इसी प्रकार रोज एक से एक नई तजबीज खड़ी की जा रही है। जिनसे गरीबों के धन्धे छिनते जा रहे है और धनवान लोग फैशनबाज आराम-तलब एवं लापरवाह होते जा रहे हैं।

 

बन्धुओं ! जरा आप ही सोचकर कहिये कि उपर्युक्त बातों का और फिर हाल ही क्या होता है? किस लिए ऐसा किया जाता है या होता है? क्या काम करने वाले लोगों की कमी है? किन्तु नहीं। क्योंकि किसी प्रकार के काम करने वाले की बाबत आप आवश्यकता निकाल कर देखिये कि आपके पास एक नहीं बल्कि पचासों प्रार्थना-पत्र आ पहुंचेंगे कि आपके यहां अमुक कार्य करने मैं आ रहा हूं, सिर्फ आपकी आज्ञा आ जानी चाहिये इत्यादि। हां, यह जरूर कहा जा, सकता है कि नये-नये आविष्कारों को जन्म दिये बिना विज्ञान की तरक्की नहीं हो सकती, परन्तु वह विज्ञान भी किस काम का जो समाज को भूखों मारने का कारण बन कर घातक सिद्ध हो रहा हो। वह जंगली जीवन भी अच्छा जहां कि कम से कम और कुछ भी नहीं तो फल फूल तो खाने को मिल जावें तथा वृक्षों के पत्ते तन ढांकने को मिल जावें।

 

वह महलों का निवास किस काम का जहां पर चकाचौंध में डालने वाले अनेक प्रकार के दृश्य होकर भी भूखे के लिये पानी नदारत हो, बल्कि जहां अपना खाना ले जाकर भी खाया जाता हो तो महल मैला हो जाने के भय से छीन कर फेंक दिया जावे। मेरी समझ में आज का विज्ञान भी ऐसा ही है जो हमें अनेक प्रकार की आश्चर्यकारी चीजें तो अवश्य देता है, परन्तु इसने आम जनता की रोटियां छीन ली हैं ओर छीनता ही जा रहा है।

 

कहीं राकेट बनाकर उड़ाने में समय खोया जा रहा है तो कहीं अणुबम के परीक्षण में जनता के धन और जीवन को बरबाद किया जा रहा है। सुना है कि एक अणुबम को तैयार करने में सत्रह अरब रुपया खर्च होता है। जिसका कि निर्माण जन-संहार के लिये होता है। द्वितीय महायुद्ध के समय अमेरिका ने जापान पर अणुबम का प्रयोग किया था। जिसकी सताई हुई जनता आज तक भी नहीं पनप पाई है। अभी-अभी परीक्षण के हेतु एक बम समुद्र में डाला गया जिससे ऋतु वैपरीत्य होकर कितनी बरबादी हो रही है, यह पाठकों के समक्ष में है। मतलब यह है कि विज्ञान के साथ-साथ अगर अहिंसा की भावना भी बढ़ती रहे तब तो विज्ञान गुणकारी हो किन्तु आज तो परस्पर विद्वेषभाव अहंकार आदि की बढ़वारी होती जा रही है। अत: विज्ञान तरक्की पर होकर भी घातक होता जा रहा है।

1 Comment


Recommended Comments

आचार्य भगवन्त का चिन्तन बहुत ही सुंदर है जो संसार के  समस्त प्राणियो के लिए हितकार और सुखमयी होता है। मै पूरी कोशिश करूँगी कि ऐसी अहिंसा की भावना मेरे भीतर भी आऐ और ये मै अपना सौभाग्य समझती हूँ कि हमे हमारे जीवन मे आचार्य भगवन्त मिले जो हमे हमेशा सही राह दिखाते है। सारी दुनिया एक तरफ और आचार्र श्री एक तरफ। आचार्य श्री जैसे कोई नही है इस संसार मे। बारम्बार नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु आचार्य भगवन्त🙏🙏🙏 जयकारा गुरूदेव का जय जय गुरूदेव🙏🙏🙏

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