कोई भी अपने विचारों से ही भला या बुरा बनता है
कोई भी अपने विचारों से ही भला या बुरा बनता है।
"परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्य पापयो: प्रज्ञाः" ऐसा श्री पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा गया है। अर्थात मनुष्य जैसे अच्छे या बुरे विचार करता है वैसा स्वयं बना रहता है वह नि:संदेह बात है। विचार मनुष्य का सूक्ष्म जीवन है तो कार्यकरण उसका स्थूल रूप। मनुष्य का मन एक समुद्र सरीखा है, जिसमें कि विचार की तरंगे निरंतर चलती रहती हैं। पूर्व क्षण में कोई एक विचारों वाला होता है तो उत्तर क्षण में कोई और दूसरा। जैसे किसी को देखते ही विचारता है कि मैं इसे मार डालू परन्तु उत्तरण क्षण में विचार सकता है कि अरे मैं इसे क्यों मारूं- इसने मेरा क्या बिगाड़ किया है? यह अपने रास्ते है तो कर्तव्य पथ प्रदर्शन मैं अपने रास्ते इत्यादि हां, जबकि यह बुरा है, काला है, देखने में भद्दा है, मेरे सामने क्यों आया? यह मारा जाना चाहिये, ऐसी अनेक क्षणस्थायी एकसी विचारधारा बनी रहती है, तब उसी के अनुसार बाह्य चेष्टा भी होने लगती है। आंखे लाल हो जाती हैं, शरीर कांपने लगता है। वचन से कहता है इसे मारो, पकड़ो, भागने न पावे एवं स्वयं उसे मारने में प्रवृत्त होता है तो आम लोगों कहने लगते हैं कि यह हिंसक है, हत्यारा है, इस बेचारे रास्ते चलते को मारने लग रहा है।
हां, यदि कहीं वही चित्त कोमलता के सम्मुख हुआ तो उपर्युक्त विचारों के बदले वहां इस प्रकार के विचार हो सकते हैं कि अहो ! देखो यह कैसा गरीब है, जिसके कि पास खाने को अन्न ओर पहनने को कपड़ा भी नहीं है। जिससे कि इसकी यह दयनीय दशा हो रही है। मैंने तो अभी खाया है, ये रोटियां बची हुई है इसे दे देता हूं ताकि यह खाकर पानी पी ले। तथा मेरे पास अनेक धोती और कुरते हैं उनमें से एक-एक इसे दे दें, सो पहन ले तो अच्छा ही है एवं मैंने तो नया खांचा बना ही लिया है, वह पुराना खांचा जो पड़ा है इसे दे दें।
पानी की बाढ़ आ जाने से सड़क पर गड्ढे पड़ गये हैं, जिससे आने जाने वालों को कष्ट होता देखकर सरकार की तरफ से उसकी मरम्मत का काम चालू है जहां कि काम करने को मैं जाया करता हूं वहीं इसे भी ले चलू, ताकि यह भी धन्धे पर लग जावे तो ठीक ही है। यद्यपि इन विचारों को कार्यान्वित करने में प्रासंगिक प्राणी वध होना संभव ही नहीं बल्कि अवश्यम्भावी है फिर भी ऐसा करने वाला हिंसक नहीं किन्तु दयालु है। क्योंकि वह अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है अपने से होने योग्य एक गरीब भाई की मदद कर रहा है। उसके कष्ट को दूर करने में समुचित सहयोग दे रहा है। प्राणि वध तो उसके ऐसा करम में होता है सो होता है वह क्या करें? वह उसका उत्तरदायी नहीं है। मनुष्य अपने करने योग्य कार्य करे। उसमें भी जो जीव वध हो उसके द्वारा भी यदि हिंसक माना जावे तब तो फिर कोई भी अहिंसक हो ही नहीं सकता। क्योंकि आहार निहार और विहार जैसा क्रिया तो जब तक छद्मस्थ अवस्था रहती है तब तक साधु महात्मा लोगों को भी करनी ही पड़ती है। जिसमें जीव वध हुए बिना नहीं रहता अत: यही मानना पड़ता है कि जहां जिसके विचार जीव मारने के हैं, वहीं वह हिंसक, हत्यारा या पापी है, किन्तु जिसके विचार किसी को मारने के नहीं है और उसके समुचित आवश्यक कार्य करने में कोई जीव यदि मर भी जाता है तो वह हिंसक नहीं है।
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