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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

सत्य की पूजा


संयम स्वर्ण महोत्सव

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सत्य की पूजा

 

आमतौर पर जैसा का तैसा कहने को सत्य समझा जाता है। परन्तु भगवान महावीर ने वाचनिक सत्य की अपेक्षा मानसिक सत्य को अधिक महत्त्व दिया। हम देखते हैं कि काणे को काणा कहने पर वह चिढ़ उठता है, उसके लिये काणा कहना यह सत्य नहीं, किन्तु झूठ बन जाता है क्योंकि उसमें वह अपनी अवज्ञा मानता है। है भी सचमुच ऐसा ही। जब उसे नीचा दिखाना होता है तभी कोई उसे काणा कहता है। मानो अन्धे को अन्धा कहने वाले का वचन तो सत्य होता है फिर भी मन असत्य से घिरा हुआ होता है। क्षुद्रता को लिए हुए होता है। अन्यथा तो आइये, सूरदासजी! इन मिष्ट शब्दों में उसका आमंत्रण किया जा सकता है।

 

हाँ, वहीं कोई छोटा बच्चा बैठा हो और उसकी मां उससे कहे कि बेटा! यह अन्धा है, इसे इसकी आखों से दीखता नहीं है। इस पर फिर बच्चा कहे कि अरे यह अन्धा है? इसे इस की आंखों से दीखता नहीं है? तो यह सुनकर औरों की ही तरह उस अन्धे को भी दु:ख नहीं होगा प्रत्युत वह भी प्रसन्न ही होगा क्योंकि बच्चे के मन में फितूर नहीं किन्तु वह सरल होता है। वह तो जैसा सुनता है या देखता है वैसा ही कहना जानता है, बनावटीपन उसके पास बिल्कुल नहीं होता।

 

बालक के सरल और स्वाभाविक बोलने पर जब लोग हंसते हैं तो मेरे विचार में वह बालक उन्हें हंसते देखकर अपने विकासशील हृदय में सोचता है। कि मेरे इस बोलने में कुछ कमी है इसीलिये ये सब मेरा उपहास कर रहे हैं। बस इसीलिये वह अपने उस बोलने में धीरे-धीरे बनावटीपन लाने लगता है। मतलब यह हुआ कि सत्य बोलना तो मनुष्य को प्राकृतिक धर्म है किन्तु झूठ बोलना सीखना पड़ता है।

 

लोग कहते हैं कि दुनियादारी के आमदी का काम असत्य बोले बिना नहीं चल सकता। परन्तु उनका यह विश्वास उलटा है क्योंकि किसी के काय के होने या करने में सत्य क्यों रोड़ा अटकाने लगा, बल्कि यो कहना चाहिये कि सत्य के बिना काम नहीं चल सकता। जो लोग व्यर्थ के प्रलोभन में पड़कर असत्य के आदी बने हुए हैं, उन्हें भी अपने असत्य पर सत्य का मुलम्मा करना पड़ता है तभी गुजर होती है। फिर भी उनके मन में यह भय तो लगा ही रहता है कि कहीं हमारी पोल न खुल जावे। ऐसी हालत में फिर सत्य ही की शरण क्यों न लेनी चाहिये। जिससे कि नि:संकोच होकर चला जा सके। कुछ देर के लिये कहा जा सकता है कि इस व्यर्थ भरी दुनिया में सत्यप्रिय को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है, सो भी कब तक? जब तक लोगों को यह पता न हो जावे कि यहां पर असत्य को कोई स्थान नहीं है। लोग सोचते हैं कि दुनिया दुरंगी है और उसी दुनिया में ही यह भी रहता है। अतः उस दुरंगेपन से बच कैसे सकता है? बस इसीलिये सत्यवादी को लोग कसौटी पर कस कर देखना चाहते हैं एवं जहां वह उनकी कसौटी पर खरा उतरा कि फिर तो लोग उसका पीछा नहीं छोड़ते।

 

एक समय की बात है कि एक मारवाड़ी भाई श्री आचार्य 108 श्री वीरसागर जी महाराज के दर्शन करने के लिये आया। महाराज ने उससे पूछा क्या धन्धा करते हो? तो जवाब मिला कि आसाम में कपड़े की दुकान है। महाराज ने कहा सत्य से व्यापार करो तो अच्छा हो। इस पर वह हिचकिचाहट करने लगा महाराज ने फिर कहा, कम से कम तुम छ: महीने के लिए ऐसा करो, समझो कि बैठा खा रहा हूं। तब उसने कहा, हां, इतना तो मैं कर सकता हूं। सत्यवादी को इस बात पर ध्यान रखना होता है कि मेरे साथ में जिसका लेन-देन हो उसे अच्छा सौदा मिले वे दो पैसे कम में मिले तथा प्रेम का बर्ताव हो। बस उसने ऐसा ही करना शुरू किया। फिर भी जो कि पहले से मोल मुलाई करते जा रहे थे उन्हें एकाएक उस पर विश्वास कैसे हो सकता था?

 

अत: फिर ग्राहक लौट कर जाने लगे। मगर जब देखा कि उस दुकान से और दुकान पर हरेक चीज के एक दो पैसे अधिक ही लगते हैं तो लोगों के दिल में उसकी दुकान के प्रति प्रतिष्ठा जम गई । फिर क्या था? उत्तरोत्तर रोज अधिक से अधिक संख्या में ग्राहक आने लगे और बेबूझ होकर सौदा लेने लगे।

1 Comment


Recommended Comments

?

Sweet n Short explanation of Satya! 

 

~~~ उत्तम सत्य धर्म की जय!

~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा!

~~~ जय भारत!

2018 Sept. 18 Tue. 12:14 @ J

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