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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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अद्भुत चर्या - 69 वां स्वर्णिम संस्मरण

जो जैसा स्वयं जीवन में जीते है,वही औरों को भी उपदेश देते हैं। उनकी कथनी हमेशा करनी से भरी होती है,जो कि हम सभी को अंदर से प्रभावित करती है उनके प्रति श्रद्धान को मजबूत बनाती है। गर्मी का समय था कुंडलपुर में ग्रीष्मकालीन वाचना प्रारंभ हो चुकी थीं। वहाँ पर विशेष रूप से चारों ओर कुंडालकर पहाड़ी होने से गर्मी ज्यादा पड़ती है,वहीं ऊपर पहाड़ पर शौच क्रिया के उपरांत आचार्य महाराज और हम कुछ महाराज पेड़ के नीचे बैठे हुए थे। चर्चा चल रही थी,चर्चा के दौरान आचार्य महाराज ने शिक्षा देते हुए कहा-ऐसे ही जंगलों में

करुणा के सागर - 68 वां स्वर्णिम संस्मरण

कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रन्थ में आचार्य कार्तिकेय स्वामी महाराज कह रहे है कि- "जीवाणं रक्खणम धम्मो"  अर्थात जीवों की रक्षा करना धर्म है और धर्म की मूल जड़ गया है। यह सारी बातें ग्रंथों से पढ़ते समय तो बहुत अच्छी लगती है लेकिन वो जीवन में उतारना बड़ा कठिन होता है। आचार्य भगवन श्री विद्यासागर जी महाराज के अंदर हमने यह करुणा और दया देखी है जिसको देख कर मन उनके प्रति श्रद्धा से भरकर प्रफुल्लित हो जाता है। सन 2000 मई जून के महीने का यह प्रसंग जब राजस्थान प्रांत में पानी की बहुत कमी होने से वहां

स्वाध्याय - 67 वां स्वर्णिम संस्मरण

श्री धवलाजी ग्रंथ की वाचना चल रही थी। आचार्य महाराज श्री ने कहा- पंडित जगन्मोहन लाल जी कटनी वालों ने एक दिन मुझे बताया कि- एक कोई व्रद्ध महान ग्रंथ को पढ़ रहे थे तो मैंने पूँछ- समज में आ रहा है, जो भी आप पढ़ रहे है। वृद्ध ने कहा ,हाँ इतना समज में आ रहा है कि-हम पढ़ रहे है, हमे तो स्वाध्याय करना है बस। गुरुदेव ने आगे बताया कि- बात सच है, जो केवलज्ञान के द्वारा जाना गया है वह हम पूर्ण नही जान सकते इसलिए यह प्रभु की वाणी है। ऐसा श्रद्धान रखकर पढ़ते जाना चाहिए क्योंकि ये तो मंत्र जैसे है। आचार्यो के प्र

वे नहीं रहे - 66 वां स्वर्णिम संस्मरण

शीतकाल में भोजपुर क्षेत्र पर सारा संघ विराजमान था। प्रकृति के बीचों- बीच श्री शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ भगवान का मंदिर है। मंदिर प्रांगण से ही लगा हुआ जंगल है, बहुत विशाल-विशाल चट्टानें है।  चारो ओर हरियाली ही हरियाली नजर आती है। वहाँ बैठते ही ध्यान लग जाता है, ध्यान लगाने की जरूरत नही पड़ती ।  वहीं जिनालय से कुछ दूरी पर एक दो  मंजिल का।महल है, जो खण्डहर हो चुका है। उसमे आज भी सुंदर कलाकृति बानी हुई है। एक दिन आचार्य महाराज उस कलाकृति को देख रहे थे, उन्होंने कहा- इतना विशाल महल, इतनी अच्छी कलाक

हितोपदेश - 65 वां स्वर्णिम संस्मरण

संसारी प्राणी सुख चाहता है, दु:ख से भयभीत होता है। दु:ख छूट जावे ऐसा भाव रखता है। लेकिन दुःख किस कारण से होता है इसका ज्ञान नही रखा जावेगा तो कभीभी दुःख से दूर नही हुआ जा सकता। आचार्य कहते हैं - कारण के बिना कोई कार्य नही होता इसलिए दुःख के कारण को छोड़ दो दुःख अपने आप  समाप्त हो जायेगा। सुख के कारणों को अपना लिया जावे तो सुख स्वतः ही उपलब्ध हो जावेगा। दुःख की यदि कोई जड़(कारण) है तो वह है परिग्रह। परिग्रह संज्ञा के वशीभूत होकर यह संसारी प्राणी संसार मे रूल रहा है, दुःखी हो रहा है। पर वस्तु को अपन

अमूल्य का क्या मूल्य - 64 वां स्वर्णिम संस्मरण

अमूल्य का अर्थ स्पष्ट है, जिसका कोई मूल्य नही आंका जा सकता उसे अमूल्य कहते है। अमूल्य वस्तु को पाना बहुत दुर्लभ होता है उसका समीचीन उपयोग कर पाना और ही दुर्लभ हुआ करता है। संसार मे प्रत्येक वस्तु का मूल्य हो सकता है लेकिन जिनके माध्यम से संसार सागर से पार उतरने की कला सीखी जाती हो वह तो अमूल्य ही होता है। देव-शास्त्र गुरु हमारे आराध्य हैं और पूज्यनीय हैं। इसलिए वे  हमारे लिए हमेशा अमूल्य हैं। जहाँ पर श्रद्धा जुड़ जाती है ,अपनत्व होता है, वहाँ कीमत वस्तु नही रह जाती है, वह अमूल्य हो जाता है। उनके

कब अस्त हो - 63 वां स्वर्णिम संस्मरण

हम सब संसार मे रहकर रोज, प्रतिदिन संसार की वस्तुओं को देखते है लेकिन हमारी दृष्टि उस ओर नाही जा पाती। ये वस्तुयें हमे संसार की नश्वरता का बोध कराती है। यदि हम चाहे तो प्रत्येक वस्तु से या घटना से कुछ सिख सकते है, वैराग्य प्राप्त कर सकते है, लेकिन हमारी दृष्टि उस वस्तु के स्वरूप की ओर जाना चाहिए तभी संभव है।    सर्वोदय तीर्थक्षेत्र अमरकण्टक 12.10.2003 रविवार की बात है में शाम को छत पर खड़ा था। सूर्य अस्त होता होता जा रहा था उसी ओर ध्यान लगाये था की इतने में आचार्य महाराज भी छत पर पधार गय

सुविधा नही संयम - 62 वां स्वर्णिम संस्मरण

गर्मी का समय था, उन दिनों में मेरी शारीरिक अस्वस्थता बानी रहती थी। मैं आचार्य महाराज के पास गया और अपनी समस्या निवेदित करते हुए कहा - आचार्य श्री जी! पेट मे दर्द(जलन)हो रहा है। आचार्य महाराज ने कहा - गर्मी बहुत पड़ रही है, गर्मी के कारण ऐसा होता है और तुम्हारा कल अंतराय हो गया था इसीलिए पानी की कमी हो गई होगी सो पेट मे जलन हो रही है कुछ रुककर गंभीर स्वर में बोले की - क्या करे यह शरीर हमेशा सुविधा ही चाहता है लेकिन इस मोक्षमार्ग में शरीर और मन की मनमानी नही चल सकती। "वहिर्दुः खेषु अचेतनः"  अर्थात्

अन्तर्जगत - 61 वां स्वर्णिम संस्मरण

किसी सज्जन ने आचार्य भगवन् से कहा - आज पुनः देश भोग से योग के ओर लौट रहा है। आज जगह जगह योग शिबीर आयोजित किये जा रहे है। योगासन के माध्यम से लोगो को रोग मुक्त किया जा रहा है। बड़ी से बड़े बीमारियों से लोगो को योगासन से लाभ मिल रहा । आज योग शिक्षा के क्षेत्र में देश बहुत ध्यान दे रहा है। आज योग का क्षेत्र अंतराष्ट्रीय हो गया है। यह सब आचार्य महाराज चुपचाप सुनते रहे फिर मुस्कुरा कर बोले क "योग का क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय नही अन्तर्जगत है" योग लगाने का अर्थ है मन-वचन-काय की प्रवृति को बाह्य जगत से हटा

प्रथम-दर्शन - 60 वां स्वर्णिम संस्मरण

मैं (क्षमासागर जी) उस दिन पहली बार आचार्य महाराज के दर्शन करने कुण्डलपुर गया था।आचार्य महाराज छोटे से कमरे में बैठे थे। इतना बड़ा व्यक्तित्व इतने छोटे स्थान में समा गया, इस बात ने मुझे चकित ही किया। उनके ठीक पीछे खुली हुई एक बड़ी सी खिड़की और उससे झाँकता आकाश, उस दिन पहली बार बहुत अच्छा लगा। खिड़की से आती रोशनी में दमकती आचार्य- महाराज की निरावरित देह से निरन्तर झरते वीतराग-सौन्दर्य ने मेरा मन मोह लिया।   क्षण भर के लिए मैं वीतरागता के आकर्षण में खो गया और कमरे के बाहर ही ठिठका खड़ा रह गया।

निर्मलता - 59 वां स्वर्णिम संस्मरण

सागर की वर्णी भवन, मोराजी में आचार्य महाराज के सानिध्य में ग्रीष्मकालीन वासना चल रही थी। गर्मी पूरे जोरों पर थी। 9:00 बजे तक इतनी कड़ी धूप हो जाती थी कि सड़क पर निकलना और नंगे पैर चलना मुश्किल हो जाता था। आहार-चर्या का यही समय था आचार्य महाराज आहार-चर्या के लिए प्रायः मोराजी भवन से बाहर निकलकर शहर में चले जाते थे। मोराजी भवन में ठहरना बहुत कम हो पाता था। पंडित पन्नालाल जी साहित्याचार्य का निवास मोराजी भवन में ही था।और वें पड़गाहन के लिए रोज खड़े होते थे। उनके यहां आने का अवसर कभी-कभी आ पाता था। 

त्याग की महत्ता - 58 वां स्वर्णिम संस्मरण

ठंड के दिन थे। दिन ढलने से पहले आचार्य महाराज संघ सहित बंडा ग्राम पहुंचे। रात्रि विश्राम के लिए मंदिर के ऊपर एक कमरे में सारा संघ ठहरा। कमरे का छप्पर लगभग टूटा था, खिड़कियां भी खूब थी और दरवाजा कांच के अभाव से खुला न खुला बराबर ही था। जैसे जैसे रात अधिक हुई ठंड भी बढ़ गई, सभी साधुओं के पास मात्र एक-एक चटाई थी, घास किसी ने ली नहीं थी। सारी रात बैठे बैठे ही गुजर गई। सुबह हुई,आचार्य वंदना के बाद आचार्य महाराज ने मुस्कुराते हुए पूछा कि - रात में ठंड ज्यादा थी, मन में क्या विचार आए बताओ ? हम सोच में

दृढ़ संकल्प - 57 वां स्वर्णिम संस्मरण

18 दिन आचार्य महाराज संघ सहित दुर्ग ठहरे। एक दिन विहार होने वाला था। महाराज जी बिहार से पहले मंदिर जी गए लोगों को बिहार का आभास हो गया सभी लोग भागे भागे मंदिर में आ गए जैसे ही महाराज जी दर्शन कर के सीढ़ियां उतरने लगे सभी ने उनके पैर पकड़ लिए कुछ लोग तो सीढ़ियों पर ही लेट गए कि हम गमन नहीं करने देंगे।   समय बीतता गया आग्रह और भीड़ निरंतर बढ़ती गई एक विद्रोही की प्रति लोगों का अनुराग उस दिन देखते ही बनता था, पर आचार्य महाराज  उस दिन बिहार के लिए दृढ़ संकल्पित थे। सो रुकना संभव नहीं था विल

प्रवचन - 56 वां स्वर्णिम संस्मरण

सागर नगर में श्री धवल जी ग्रंथ की वाचना के समय अनेक विद्वानों की उपस्थिति में, सोलहकारण भावना के अंतर्गत प्रवचन भक्ति भावना के प्रसंग को लेकर आचार्य श्री ने कहा कि - आज शास्त्रों की उचित विनय नही की जा रही है और प्रवचन के नाम पर परवचन चल रहा है। तब पास में ही बैठे पंडित कैलाश चन्द जी ने कहा कि-परवचन नही आज तो परवचन चल रहा है। परवचन का अर्थ है - दूसरों को ठगना। यह सुनकर सभी लोग हँस पड़े।   लेकिन ध्यान रहे ठगे जाना उतना नुकसान दायक नही है कि जितना नुकसान दायक है दूसरों को ठगना। क्योंकि मा

आत्मीयता - 55 वां स्वर्णिम संस्मरण

टड़ा से वापस लौटकर आचार्य महाराज की आज्ञा से महावीर जयन्ती सागर में सानंदसम्पन्न हुई, फिर आदेश मिला कि- ग्रीष्मकाल में कटनी पहुँचना है। गर्मी दिनों-दिन बढ़ रही थी। तेज धूप, और लम्बा रास्ता,पर मन मे गहरी श्रद्धा थी। गुरु के आदेश का पूरे मन से पालन करना ही शिष्यत्व की कसौटी है। आदेश मिलते ही उसी दिन दोपहर में हमने(क्षमासागर जी)विहार करने का मन बना लिया और सामायिक में बैठ गए। सामायिक से उठकर बाहर आए तो देखा कि-आकाश में बादल छा रहे है। धूप नम हो गई है। हमने तुरन्त विहार कर दिया और बड़ी आसानी से शाम होन

आज सहारा - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ४८९

आज सहारा, हाय को है हायकू कवि के लिये |   हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।   आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अप

ऊधम नहीं - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ४८८

ऊधम नहीं, उद्यम करो बनो, दमी आदमी |     हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।   आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना

वैधानिक तो - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हाइकू ४८७

वैधानिक तो, तनिक बनो फिर, अधिक धनी |   हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।   आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना

बाहर टेड़ा - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ४८६

बाहर टेड़ा, बिल में सीधा होता, भीतर जाओ |   हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।   आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अ

कचरा बनूँ - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ४८५

कचरा बनूँ, अधकचरा नहीं, खाद तो बनूँ |   हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।   आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना

कचरा डालो - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ४८४

कचरा डालो, अधकचरा नहीं, खाद तो डालो |   हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।   आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपन

पुरुष भोक्ता - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ४८३

पुरुष भोक्ता, नारी भोक्त्र ना मुक्ति, दोनों से परे |   हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।   आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके म

दोनों ना चाहो - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ४८२

दोनों ना चाहो, एक दूसरे को या, दोनों में एक |(कोई भी एक)   हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।   आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसक
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