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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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त्याग की महत्ता - 58 वां स्वर्णिम संस्मरण


संयम स्वर्ण महोत्सव

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ठंड के दिन थे। दिन ढलने से पहले आचार्य महाराज संघ सहित बंडा ग्राम पहुंचे। रात्रि विश्राम के लिए मंदिर के ऊपर एक कमरे में सारा संघ ठहरा। कमरे का छप्पर लगभग टूटा था, खिड़कियां भी खूब थी और दरवाजा कांच के अभाव से खुला न खुला बराबर ही था। जैसे जैसे रात अधिक हुई ठंड भी बढ़ गई, सभी साधुओं के पास मात्र एक-एक चटाई थी, घास किसी ने ली नहीं थी। सारी रात बैठे बैठे ही गुजर गई। सुबह हुई,आचार्य वंदना के बाद आचार्य महाराज ने मुस्कुराते हुए पूछा कि - रात में ठंड ज्यादा थी, मन में क्या विचार आए बताओ ? हम सोच में पड़ गए कि क्या कहें, पर साहस करके तत्काल कहा कि - महाराज जी ठंड बहुत थी, मन में विचार आ रहा था कि एक चटाई और होती तो ठीक रहता। इतना सुनते ही उनके चेहरे पर हर्ष छा गया। बोले - देखो त्याग का यही महत्व है। तुम सभी के मन में शीत से बचने के लिए त्यागी हुई वस्तुओं को ग्रहण करने का विचार भी नहीं आया। मुझे तुम सब से यही आशा थी, हमेशा त्याग के प्रति सजग रहना त्यागी गई वस्तु के ग्रहण का भाव मन में ना आए यह सावधानी रखना।
 

उनका यह उद्बोधन हमें जीवन भर संभालता रहेगा। वास्तव में सच्चा त्याग वही है, जो एक बार हम वस्तु को त्याग दे फिर उसे दोबारा ग्रहण करने का भाव भी न आये, यही सच्चे त्याग की परिभाषा है।

(बण्डा 1982) आत्मान्वेशी पुस्तक से साभार

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