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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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आत्मीयता - 55 वां स्वर्णिम संस्मरण


संयम स्वर्ण महोत्सव

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टड़ा से वापस लौटकर आचार्य महाराज की आज्ञा से महावीर जयन्ती सागर में सानंदसम्पन्न हुई, फिर आदेश मिला कि- ग्रीष्मकाल में कटनी पहुँचना है। गर्मी दिनों-दिन बढ़ रही थी। तेज धूप, और लम्बा रास्ता,पर मन मे गहरी श्रद्धा थी। गुरु के आदेश का पूरे मन से पालन करना ही शिष्यत्व की कसौटी है। आदेश मिलते ही उसी दिन दोपहर में हमने(क्षमासागर जी)विहार करने का मन बना लिया और सामायिक में बैठ गए। सामायिक से उठकर बाहर आए तो देखा कि-आकाश में बादल छा रहे है। धूप नम हो गई है। हमने तुरन्त विहार कर दिया और बड़ी आसानी से शाम होने से पहले लगभग बीस किलोमीटर रास्ता तय कर लिया। फिर तो प्रतिदिन ऐसा ही हुआ। कटनी पहुँचने तक प्रतिदिन दोपहर में बादल छा जाते और हमारी यात्रा आसान हो जाती।

 

कटनी पहुँचकर जब हमें मालूम पड़ा कि आचार्य महाराज ने दो-तीन बार चिन्ता व्यक्त की ति कि "आदेश तो हमने दे दिया, पर मई का महीना है, धूप बहुत कड़ी है, विहार में मुश्किल न हों।" तब हम विस्मय और आनन्द से भर गए। इतनी दूर रहकर भी अपने शिष्यों के प्रति आचार्य महाराज की आत्मीयता इतनी सघन है कि पथ में छाया बनकर वही हमे सँभलती व शीतलता देती रहती। उनकी अनुकम्पा अपरम्पार है।

कटनी (1989)

आत्मान्वेशी पुस्तक से साभार

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