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  1. अब अवधिज्ञान का विषय बतलाते हैं- रूपिष्ववधेः॥२७॥ अर्थ - अवधिज्ञान के विषय का नियम रूपी पदार्थों में है। English - (The scope) of clairvoyance is that which has form. यहाँ पूर्व सूत्र से ‘असर्वपर्यायेषु' पद ले लेना चाहिए। तथा ‘रूपी' शब्द से पुद्गल द्रव्य लेना चाहिए, क्योंकि एक पुद्गल द्रव्य ही वास्तव में रूपी है। अतः अवधिज्ञान पुद्गल द्रव्य की कुछ पर्यायों को जानता है। इतना विशेष है कि पुद्गल द्रव्य से सम्बद्ध जीव द्रव्य की भी कुछ पर्यायों को जानता है; क्योंकि संसारी जीव कर्मों से बँधा होने से मूर्तिक जैसा ही हो रहा है। किन्तु मुक्त जीव को तथा अन्य अमूर्तिक द्रव्यों को अवधिज्ञान नहीं जानता। वह तो अपने योग्य सूक्ष्म अथवा स्थूल पुद्गल द्रव्य की त्रिकालवर्ती कुछ पर्यायों को ही जानता है।
  2. अब क्रमानुसार तो केवलज्ञान का लक्षण कहना चाहिए, किन्तु केवलज्ञान का स्वरूप आगे दसवें अध्याय में कहेंगे। अतः ज्ञानों का विषय बतलाते हुए प्रथम मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय बतलाते हैं- मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्व-पर्यायेषु ॥२६॥ अर्थ - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के विषय का नियम द्रव्यों की कुछ पर्यायों में हैं। अर्थात् ये दोनों ज्ञान द्रव्यों की कुछ पर्यायों को जानते हैं, सब पर्यायों को नहीं जानते। English - The range of sensory knowledge and scriptural knowledge extends to all the six substances but not to all their modes. विशेषार्थ - इस सूत्र में ‘विषय' शब्द नहीं है, अतः ‘विशुद्धि क्षेत्र आदि सूत्र से ‘विषय' शब्द ले लेना चाहिए। तथा ‘द्रव्येषु' शब्द बहुवचन का रूप हैं इसलिए जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल सभी द्रव्यों का ग्रहण करना चाहिए। इन द्रव्यों में से एक-एक द्रव्य की अनन्त पर्यायें होती हैं। उनमें से कुछ पर्यायों को ही मति, श्रुत ज्ञान जानते हैं। शंका - धर्म, अधर्म आदि द्रव्य तो अमूर्तिक हैं। वे मतिज्ञान के विषय नहीं हो सकते । अतः सब द्रव्यों को मतिज्ञान जानता है, ऐसा कहना ठीक नहीं है ? समाधान - यह आपत्ति ठीक नहीं है, क्योंकि मन की सहायता से होने वाला मतिज्ञान अमूर्तिक द्रव्यों में भी प्रवृत्ति कर सकता है और मनपूर्वक अवग्रह आदि ज्ञान होने पर पीछे श्रुतज्ञान भी अपने योग्य पर्यायों को जान लेता है। अतः कोई दोष नहीं है।
  3. आगे अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान में विशेषता बतलाते हैं- विशुद्धि-क्षेत्र-स्वामि-विषयेभ्योऽवधि मन:पर्यययोः॥२५॥ अर्थ - अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान में विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय की अपेक्षा से अन्तर है। English - Telepathy (manah paryaha) and clairvoyance (avadhi) differ with regard to purity, space, knower, and objects. विशेषार्थ - इसका खुलासा इस प्रकार है - अवधिज्ञान जिस रूपी द्रव्य को जानता है, उसके अनन्तवें भाग सूक्ष्म रूपी द्रव्य को मनःपर्यय ज्ञान जानता है। अतः अवधिज्ञान से मन:पर्यय ज्ञान विशुद्ध है। अवधिज्ञान की उत्पत्ति का क्षेत्र समस्त त्रसनाड़ी है, किन्तु मन:पर्यय ज्ञान मनुष्य लोक में ही उत्पन्न होता है। अवधिज्ञान के विषय का क्षेत्र समस्त लोक है, किन्तु मन:पर्यय ज्ञान के विषय का क्षेत्र पैंतालीस लाख योजन विस्तार प्रमाण ही है। इतने क्षेत्र में स्थित अपने योग्य विषय को ही ये ज्ञान जानते हैं। तथा अवधिज्ञान चारों गतियों के सैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के होता है, किन्तु मन:पर्यय ज्ञान कर्मभूमि के गर्भज मनुष्यों के ही होता है, उनमें भी संयमियों के ही होता है। संयमियों में भी वर्धमान चरित्र वालों के ही होता है, हीयमान चरित्र वालों के नहीं होता। वर्धमान चरित्र वालों में भी सात प्रकार की ऋद्धियों में से एक दो ऋद्धियों के धारी मुनियों के ही होता है। और ऋद्धिधारियों में भी किसी के ही होता है, सभी के नहीं होता। विषय की अपेक्षा भेद आगे सूत्रकार स्वयं कहेंगे। इस तरह अवधि और मन:पर्यय ज्ञान में विशुद्धि वगैरह की अपेक्षा भेद जानना चाहिए।
  4. अब मन:पर्यय के दोनों भेदों में विशेषता बतलाते हैं- विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः॥२४॥ अर्थ - ऋजुमति और विपुलमति में विशुद्धि और अप्रतिपात की अपेक्षा से विशेषता है। English - The differences between the two are due to purity and infallibility. मन:पर्यय ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से जो आत्मा में उज्वलता होती है, वह विशुद्धि है और संयम परिणाम की वृद्धि होने से गिरावट का न होना अप्रतिपात है। ऋजुमति से विपुलमति अधिक विशुद्ध होता है। तथा ऋजुमति होकर छूट भी जाता है, किन्तु विपुलमति । वाले का चरित्र वर्धमान ही होता है, अतः वह केवलज्ञान उत्पन्न होने तक बराबर बना रहता है।
  5. अब मन:पर्यय ज्ञान का कथन करते हैं- ऋजुविपुलमती मन:पर्ययः॥२३॥ अर्थ - मनःपर्ययज्ञान के दो भेद हैं - ऋजुमति और विपुलमति दूसरे के मन में सरल रूप में स्थित रूपी पदार्थ को जो ज्ञान प्रत्यक्ष जानता है, उसे ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान कहते हैं और दूसरे के मन में सरल अथवा जटिल रूप में स्थित रूपी पदार्थ को जो ज्ञान प्रत्यक्ष जानता है, उसे विपुलमति मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। English - Rjumati, and vipulamati are the two kinds of telepathy (manahpayaya). विशेषार्थ - देव, मनुष्य, तिर्यञ्च, सभी के मन में स्थित विचार को मन:पर्यय ज्ञान जानता है, किन्तु वह विचार रूपी पदार्थ अथवा संसारी जीव के विषय में होना चाहिए। अमूर्तिक द्रव्यों और मुक्तात्माओं के विषय में जो चिन्तन किया गया होगा, उसे मन:पर्यय नहीं जान सकता। तथा उन्हीं जीवों के मन की बात जान सकता है, जो मनुष्य लोक की सीमा के अन्दर हों। इतना विशेष है कि मनुष्यलोक तो गोलाकार है, किन्तु मन:पर्यय ज्ञान का क्षेत्र गोलाकार न होकर पैंतालीस लाख योजन लम्बा चौड़ा चौकोर है। उसके दो भेदों में से ऋजुमति तो केवल उसी वस्तु को जान सकता है, जिसके बारे में स्पष्ट विचार किया गया हो अथवा मन, वचन और काय की चेष्टा के द्वारा जिसे स्पष्ट कर दिया गया हो, किन्तु विपुलमति मनःपर्यय चिन्तित, अचिन्तित और अर्ध-चिन्तित को भी जान लेता है।
  6. आगे क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान किसके होता है, यह बतलाते हैं- क्षयोपशम-निमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्॥२२॥ अर्थ - क्षयोपशम निमित्त नामक अवधिज्ञान छह प्रकार का होता है। और वह मनुष्य और तिर्यञ्चों के होता है। English - Clairvoyance from destruction-cum-subsidence (i. e. arising from the lifting of the veil) is of six kinds. It is acquired by the rest (namely human - beings and animals). विशेषार्थ - अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम जिसमें निमित्त है, उसे क्षयोपशम निमित्त अवधिज्ञान कहते हैं। यद्यपि सभी अवधिज्ञान क्षयोपशम के निमित्त से होते हैं, फिर भी इस अवधिज्ञान का नाम क्षयोपशम निमित्त इसलिए रखा गया कि इसके होने में क्षयोपशम ही प्रधान कारण है, भव नहीं। इसी से इसे गुणप्रत्यय भी कहते हैं। इसके छह भेद हैं - अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित। जो अवधिज्ञान अपने स्वामी जीव के साथ-साथ जाता है, उसे अनुगामी कहते हैं। इसके तीन भेद हैं - क्षेत्रानुगामी, भवानुगामी और उभयानुगामी। जिस जीव के जिस क्षेत्र में अवधिज्ञान प्रकट हुआ वह जीव यदि दूसरे क्षेत्र में जाये तो उसके साथ जाये और छूटे नहीं, उसे क्षेत्रानुगामी कहते हैं। जो अवधिज्ञान परलोक में भी अपने स्वामी जीव के साथ जाता है, वह भवानुगामी है। जो अवधिज्ञान अन्य क्षेत्र में भी साथ जाता है और अन्य भव में भी साथ जाता है, वह उभयानुगामी है। जो अवधिज्ञान अपने स्वामी जीव के साथ नहीं जाता, वह अननुगामी है। इसके भी तीन भेद हैं जो पूर्वोक्त तीन भेदों से उल्टे हैं। विशुद्ध परिणामों की वृद्धि होने से जो अवधिज्ञान बढ़ता ही जाता है, उसे वर्धमान कहते हैं। संक्लेश परिणामों की वृद्धि होने से जो अवधिज्ञान घटता ही जाता है, उसे हीयमान कहते हैं। जो अवधिज्ञान जिस मर्यादा को लेकर उत्पन्न हुआ हो, उसी मर्यादा में रहे, न घटे और न बढ़े, उसे अवस्थित कहते हैं और जो घटे-बढ़े, उसे अनवस्थित कहते हैं।
  7. उनमें से प्रथम भवप्रत्यय अवधिज्ञान के स्वामी बतलाते हैं- भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्॥२१॥ अर्थ - भवप्रत्थय अवधिज्ञान देवों और नारकियों के होता है। English - Clairvoyance (avadhi) based on birth is possessed by celestial and infernal beings. विशेषार्थ - अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरण कर्म और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होता है और क्षयोपशम व्रत, नियम वगैरह के आचरण से होता है। किन्तु देवों और नारकियों में व्रत, नियम वगैरह नहीं होते। अतः उनमें देव और नारकी का भव पाना ही क्षयोपशम के होने में कारण होता है। इसी से उनमें होने वाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय (जिसके होने में भव ही कारण है) कहा जाता है। अर्थात् जो देव और नारकियों में जन्म लेता है, उसके अवधि ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम हो ही जाता है। अत: वहाँ क्षयोपशम के होने में भव ही मुख्य कारण है। इतना विशेष है कि सम्यग्दृष्टियों के अवधिज्ञान होता है और मिथ्यादृष्टियों के कुअवधि ज्ञान होता है।
  8. अब श्रुतज्ञान का स्वरूप कहते हैं- श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेक-द्वादशभेदम्॥२०॥ अर्थ - श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है। उसके दो भेद हैं। उनमें से एक भेद के अनेक भेद हैं और दूसरे भेद के बारह भेद हैं। English - Scriptural knowledge preceded by sensory knowledge is of two kinds, which are of twelve and many subdivisions. विशेषार्थ - पहले मतिज्ञान होता है। उसके बाद श्रुतज्ञान होता है। बिना मतिज्ञान हुए श्रुतज्ञान नहीं होता। यह बात दूसरी है कि श्रुतज्ञान होने के बाद फिर श्रुतज्ञान हो, किन्तु पहला श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही होता है। उस श्रुतज्ञान के दो भेद हैं- अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट। अंगबाह्य के तो अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं - आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ज्ञातृधर्मकथा अंग, उपासकाध्ययन अंग, अन्त:कृतदशांग, अनुत्तरौपपादिक अंग, प्रश्नव्याकरण अंग, विपाकसूत्र, दृष्टिप्रवाद अंग। भगवान् तीर्थंकर ने केवलज्ञान के द्वारा सब पदार्थों को जानकर दिव्यध्वनि के द्वारा उपदेश दिया। उनके साक्षात् शिष्य गणधर ने उस उपदेश को अपनी स्मृति में रखकर बारह अंगों में संकलित कर दिया। यह अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान कहा जाता है। किन्तु ये अंग ग्रन्थ महान् और गम्भीर होते हैं। अतः आचार्यों ने अल्पबुद्धि शिष्यों पर दया करके उनके आधार पर जो ग्रंथ रचे, वे अंगबाह्य कहलाते हैं। ये सब अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के भेद हैं। श्रुतज्ञान में उसी की मुख्यता है। परोक्ष प्रमाण का कथन समाप्त हुआ। अब प्रत्यक्ष प्रमाण का वर्णन करते हुए सबसे प्रथम अवधिज्ञान का कथन करते हैं। अवधिज्ञान के दो भेद हैं - भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्त।
  9. आगे बतलाते हैं कि जैसे अर्थावग्रह, ईहा वगैरह ज्ञान सभी इन्द्रियों से होते हैं, वैसे व्यञ्जनावग्रह सभी इन्द्रियों से नहीं होता- न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्॥१९॥ अर्थ - चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता; क्योंकि चक्षु और मन पदार्थ को दूर से ही जानते हैं, English - Indistinct apprehension does not arise by means of the eyes and the mind. उससे भिड़ कर नहीं जानते। जैसे चक्षु आँख में लगे अंजन को नहीं देख सकती, किन्तु दूरवर्ती को देख सकती है। इसी तरह मन भी जिन पदार्थों का विचार करता है, वे उससे दूर ही होते हैं। इसी से जैन सिद्धान्त में चक्षु और मन को अप्राप्यकारी कहा है। शेष चारों इन्द्रियाँ अपने विषय को उससे भिड़ कर ही जानती हैं। अतः व्यञ्जनावग्रह चार ही इन्द्रियों से होता है। इस तरह बहु, बहुविध आदि बारह विषयों की अपेक्षा व्यंजनावग्रह के ४८ भेद होते हैं। तथा पहले गिनाये हुए २८८ भेदों में इन ४८ भेदों को मिला देने से मतिज्ञान के ३३६ भेद होते हैं। इस तरह मतिज्ञान का स्वरूप कहा।
  10. आगे बतलाते हैं कि सभी पदार्थों के अवग्रह आदि चारों ज्ञान होते हैं या उसमें कुछ अन्तर है- व्यञ्जनस्यावग्रहः॥१८॥ अर्थ - व्यञ्जन अर्थात् अस्पष्ट शब्द वगैरह का केवल अवग्रह ही होता है, ईहा आदि नहीं होते। English - (There is only) apprehension of indistinct things. विशेषार्थ - स्पष्ट पदार्थ के अवग्रह को अर्थावग्रह कहते हैं और अस्पष्ट पदार्थ के अवग्रह को व्यञ्जनावग्रह कहते हैं। जैसे श्रोत्र इन्द्रिय में एक हल्की-सी आवाज का मामूली-सा भान होकर रह गया। उसके बाद फिर कुछ भी नहीं जान पड़ा कि क्या था ? ऐसी अवस्था में केवल व्यञ्जनावग्रह ही होकर रह जाता है। किन्तु यदि धीरे धीरे वह आवाज स्पष्ट हो जाती है, तो व्यञ्जनावग्रह के बाद अर्थावग्रह और फिर ईहा आदि ज्ञान भी होते हैं। अत: अस्पष्ट पदार्थ का केवल अवग्रह ज्ञान ही होता है। और स्पष्ट पदार्थ के चारों ज्ञान होते हैं।
  11. आगे बतलाते हैं कि ये बहु, बहुविध आदि किसके विशेषण हैं- अर्थस्य॥१७॥ अर्थ - ये बहु, बहुविध आदि पदार्थ के विशेषण हैं। English - (These are attributes) of substance (objects). अर्थात् बहु यानि बहुत से पदार्थ, बहुविध यानि बहुत तरह के पदार्थ । इस तरह बारहों भेद पदार्थ के विशेषण हैं ? शंका - इसके कहने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि बहु, बहुविध तो पदार्थ ही हो सकता है, अन्य नहीं हो सकता, उसी के अवग्रह, ईहा आदि ज्ञान होते हैं। समाधान - आपकी शंका ठीक है; किन्तु मतावलम्बियों के मत का निराकरण करने के लिए ‘अर्थस्य सूत्र कहना पड़ा है। कुछ मतावलम्बी ऐसा मानते हैं कि इन्द्रियों का सम्बन्ध पदार्थ के साथ नहीं होता, किन्तु पदार्थ में रहने वाले रूप, रस आदि गुणों के साथ ही होता है। अतः इन्द्रियाँ गुणों को ही ग्रहण करती हैं, पदार्थ को नहीं। किन्तु ऐसा मानना ठीक नहीं है; क्योंकि वे लोग गुणों को अमूर्तिक मानते हैं और इन्द्रियों के साथ अमूर्तिक का सन्निकर्ष नहीं हो सकता। शंका - तो फिर लोक में ऐसा क्यों हो जाता है - मैंने रूप देखा, मैंने गंध सूँघी ? समाधान - इसका कारण यह है कि इन्द्रियों के साथ तो पदार्थ का ही सम्बन्ध होता है, किन्तु चूंकि रूप आदि गुण पदार्थ में ही रहते हैं, अतः ऐसा कह दिया जाता है। वास्तव में तो इन्द्रियाँ पदार्थ को ही जानती हैं।
  12. आगे इन अवग्रह आदि ज्ञानों के अन्य भेद बतलाने के लिए पहले उनके विषय बतलाते हैं- बहु-बहुविध-क्षिप्रानि:सृतानुक्त-धुवाणां सेतराणाम्॥१६॥ अर्थ - बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिसृत, अनुक्त, ध्रुव और इनके प्रतिपक्षी अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त, अध्रुव इन बारहों के अवग्रह आदि ज्ञान होते हैं। English - (The subdivision of each of these are) more, many kinds, quick, hidden, unexpressed, lasting and their opposites. अथवा अवग्रह आदि से इन बारहों का ज्ञान होता है। बहुत वस्तुओं के ग्रहण करने को बहुज्ञान कहते हैं। बहुत तरह की वस्तुओं के ग्रहण करने को बहुविधज्ञान कहते हैं। जैसे सेना या वन को एक समूह रूप में जानना बहुज्ञान है और हाथी, घोड़े आदि या आम, महुआ आदि भेदों को जानना बहुविधज्ञान है। शीघ्रता से जाती हुई वस्तु को जानना क्षिप्र ज्ञान है। जैसे तेज चलती हुई रेलगाड़ी को या उसमें बैठकर बाहर की वस्तुओं को जानना। वस्तु के एक भाग को देखकर पूरी वस्तु को जान लेना, अनि:सृत ज्ञान है। जैसे जल में डूबे हुए हाथी की सुंड को देखकर हाथी को जान लेना। बिना कहे अभिप्राय से ही जान लेना अनुक्त ज्ञान है। बहुत काल तक जैसा का तैसा निश्चल ज्ञान होना या पर्वत वगैरह स्थिर पदार्थ को जानना ध्रुव ज्ञान है। अल्प का अथवा एक का ज्ञान होना अल्प ज्ञान है। एक प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान होना एकविध ज्ञान है। धीरे-धीरे चलते हुए घोड़े वगैरह को जानना अक्षिप्र ज्ञान है। सामने विद्यमान पूरी वस्तु को जानना निसृत ज्ञान है। कहने पर जानना उक्त ज्ञान है। चंचल बिजली वगैरह को जानना अध्रुव ज्ञान है। इस तरह बारह प्रकार का अवग्रह, बारह प्रकार की ईहा, बारह प्रकार का अवाय और बारह प्रकार का धारणा ज्ञान होता है। ये सब मिलकर ज्ञान के ४८ भेद होते हैं तथा इनमें से प्रत्येक ज्ञान पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा होता है। अतः ४८ को छह से गुणा करने पर मतिज्ञान के २८८ भेद होते हैं।
  13. अब मतिज्ञान के भेद कहते हैं- अवग्रहेहावायधारणाः॥१५॥ अर्थ - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा - ये चार मतिज्ञान के भेद हैं। English - (The four divisions of sensory knowledge are) apprehension (sensation), speculation, perceptual judgment, and retention. इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध होते ही जो सामान्य ग्रहण होता है, उसे दर्शन कहते हैं, दर्शन के अनन्तर ही जो पदार्थ का ग्रहण होता है, वह अवग्रह है। जैसे चक्षु से सफेद रूप को जानना अवग्रह है। अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा का होना ईहा है। जैसे यह सफेद रूप वाली वस्तु क्या है? यह तो बगुलों की पंक्ति सी प्रतीत होती है, यह ईहा है। विशेष चिह्नों के द्वारा यथार्थ वस्तु का निर्णय कर लेना अवाय है! जैसे पंखों के हिलने से तथा ऊपर नीचे होने से यह निर्णय कर लेना कि यह बगुलों की पंक्ति ही है, यह अवाय है। अवाय से जानी हुई वस्तु को कालान्तर में भी नहीं भूलना धारणा है।
  14. आगे बतलाते हैं कि मतिज्ञान किससे उत्पन्न होता है- तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्॥१४॥ अर्थ - वह मतिज्ञान पाँच इन्द्रियों की और अनिन्द्रिय यानि मन की सहायता से होता है। English - That is caused by the senses and the mind. विशेषार्थ - इन्द्र अर्थात् आत्मा। आत्मा के चिह्न विशेष को इन्द्रिय कहते हैं। आशय यह है कि जानने की शक्ति तो आत्मा में स्वभाव से ही है, किन्तु ज्ञानावरण कर्म का उदय रहते हुए वह बिना बाह्य सहायता के स्वयं नहीं जान सकता। अतः जिन अपने चिह्नों के द्वारा वह पदार्थों को जानता है, उन्हें इन्द्रिय कहते हैं। अथवा, आत्मा तो सूक्ष्म है, दिखायी नहीं देता। अतः जिन चिह्नों से आत्मा का अस्तित्व जाना जाता है, उन्हें इन्द्रिय कहते हैं; क्योंकि इन्द्रियों की प्रवृत्ति से ही आत्मा के अस्तित्व का पता लगता है। अथवा, इन्द्र यानि नामकर्म। उसके द्वारा जो रची जाय उसे इन्द्रिय कहते है | शंका - जो इन्द्रिय नहीं, उसे अनिन्द्रिय कहते हैं। तब मन को अनिन्द्रिय क्यों कहा ? क्योंकि वह भी तो इन्द्र अर्थात् आत्मा का चिह्न है, उसके द्वारा भी आत्मा जानता है ? समाधान - यहाँ अनिन्द्रिय का मतलब ‘इन्द्रिय नहीं' ऐसा मत लेना, किन्तु ‘किंचित् इन्द्रिय’ लेना। अर्थात्, मन किंचित् इन्द्रिय है, पूरी तरह से इन्द्रिय नहीं है। क्योंकि इन्द्रियों का तो स्थान भी निश्चित है और विषय भी निश्चित है। जैसे - चक्षु शरीर के अमुक भाग में ही पायी जाती है। तथा वह रूप को ही जानती है। किन्तु मन का न तो कोई निश्चित स्थान ही है और न कोई निश्चित विषय ही है; क्योंकि जैन सिद्धान्त में ऐसा बतलाया है कि आत्मा के जिस प्रदेश में ज्ञान उत्पन्न होता है, उसी स्थान के अंगुल के असंख्यातवें भाग आत्मप्रदेश उसी समय मनरूप हो जाते हैं तथा मन की प्रवृत्ति भी सर्वत्र देखी जाती है, इसलिए उसे अनिन्द्रिय कहा है। मन को अन्तःकरण भी कहते हैं, क्योंकि एक तो वह आँख वगैरह की तरह बाहर में दिखायी नहीं देता। दूसरे, मन का प्रधान काम गुण-दोष का विचार तथा स्मरण आदि है। उसमें वह इन्द्रियों की सहायता नहीं लेता। अतः उसे अन्त:करण भी कहते हैं।
  15. आगे परोक्ष प्रमाण के सम्बन्ध में विशेष कथन करते हैं|- मतिः स्मृति: संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्॥१३॥ अर्थ - मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध-ये मतिज्ञान के ही नामान्तर हैं; क्योंकि ये पाँचों ही मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं। English - Sensory cognition, remembrance, recognition, induction and deduction are synonyms विशेषार्थ - इन्द्रिय और मन की सहायता से जो अवग्रह आदि रूप ज्ञान होता है, उसे मति कहते हैं। न्यायशास्त्र में इस ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है; क्योंकि लोकव्यवहार में इन्द्रिय से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष माना जाता है। परन्तु वास्तव में तो पराधीन होने से यह ज्ञान परोक्ष ही है। पहले जानी हुई वस्तु को कालान्तर में स्मरण करना स्मृति है। जैसे, पहले देखे हुए देवदत्त का स्मरण करना ‘वह देवदत्त' यह स्मृति है। संज्ञा का दूसरा नाम प्रत्यभिज्ञान है। वर्तमान में किसी वस्तु को देखकर पहले देखी हुई वस्तु का स्मरण होना और फिर पहले देखी हुई वस्तु का और वर्तमान वस्तु का जोड़ रूप ज्ञान होना प्रत्यभिज्ञान है। न्यायशास्त्र में प्रत्यभिज्ञान के अनेक भेद बतलाये हैं, जिनमें चार मुख्य हैं - एकत्व प्रत्यभिज्ञान, सादृश्य प्रत्यभिज्ञान, तद्विलक्षण प्रत्यभिज्ञान और तत्प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञान। किसी पुरुष को देखकर “यह वही पुरुष है जिसे पहले देखा था ऐसा जोड़रूप ज्ञान होना एकत्व प्रत्यभिज्ञान है। वन में गवय नाम के पशु को देखकर ऐसा ज्ञान होना कि यह गवय मेरी गौ के समान है, सादृश्य प्रत्यभिज्ञान है। भैंस को देखकर ‘‘यह भैंस मेरी गौ से विलक्षण है' ऐसा जोड़रूप ज्ञान होना तद्विलक्षण प्रत्यभिज्ञान है। निकट की वस्तु को देखकर पहले देखी हुई वस्तु के स्मरण पूर्वक ऐसा जोड़रूप ज्ञान होना कि इससे वह दूर है या ऊँची है या नीची है, इत्यादि ज्ञान को तत्प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। चिन्ता का दूसरा नाम तर्क है। “जहाँ अमुक चिह्न होता है, वहाँ उस चिह्न वाला भी होता है'' ऐसे ज्ञान को चिन्ता या तर्क कहते हैं। न्यायशास्त्र में व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहते हैं और साध्य के अभाव में साधन के अभाव को तथा साधन के सद्भाव में साध्य के सद्भाव को व्याप्ति कहते हैं। जैसे ‘‘अग्नि के न होने पर धुआँ नहीं होता और धुआँ होने पर अग्नि अवश्य होती है'' यह व्याप्ति है और इसके जानने वाले ज्ञान को तर्क-प्रमाण कहते हैं। जिसको सिद्ध किया जाता है, उसे साध्य कहते हैं और जिसके द्वारा सिद्ध किया जाता है, उसे साधन कहते हैं। साधन से साध्य के ज्ञान को अभिनिबोध कहते हैं। इसका दूसरा नाम अनुमान है। जैसे, धुआँ उठता देखकर यह जान लेना कि वहाँ आग लगी है, क्योंकि धुआँ उठ रहा है, यह अभिनिबोध है। ये सब ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं।
  16. अब मति और श्रुत के सिवा बाकी के तीन ज्ञानों को प्रत्यक्ष बतलाते हैं- प्रत्यक्षमन्यत्॥१२॥ अर्थ - मति और श्रुत के सिवा शेष - अवधि, मनःपर्यय और केवल तीन ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। English - The remaining three constitute direct (knowledge). विशेषार्थ - अक्ष नाम आत्मा का है। जो ज्ञान आत्मा से ही उत्पन्न होता है, इन्द्रिय, प्रकाश, उपदेश आदि की सहायता नहीं लेता, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं - विकल प्रत्यक्ष यानि एकदेश प्रत्यक्ष और सकल प्रत्यक्ष अवधि और मन: पर्यय विकल प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है।
  17. अब प्रमाण के उन दो भेदों को बतलाकर सूत्रकार पूर्वोक्त पाँच ज्ञानों का उनमें अन्तर्भाव करते हैं- आद्ये परोक्षम्॥११॥ अर्थ - पाँच ज्ञानों में से आदि के दो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं। English - The first two (kinds of knowledge) are indirect (knowledge). विशेषार्थ - यहाँ ' आद्य' शब्द का द्विवचन में प्रयोग होने से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का ग्रहण किया है। दोनों ज्ञान ‘पर' अर्थात् इन्द्रिय, मन, उपदेश, प्रकाश आदि की सहायता से होते हैं, इसलिए ये परोक्ष हैं; क्योंकि जो ज्ञान पर की अपेक्षा से होता है, उसे परोक्ष कहते हैं।
  18. अतः ऊपर कहे गये ज्ञानों को ही प्रमाण बतलाने के लिए आचार्य सूत्र कहते हैं - तत्प्रमाणे ॥१०॥ अर्थ - ऊपर कहे मति आदि ज्ञान ही प्रमाण हैं, अन्य कोई प्रमाण नहीं है। English - These (five kinds of knowledge) are the two types of pramäna (valid - knowledge). विशेषार्थ- सूत्रकार का कहना है कि ज्ञान ही प्रमाण है, सन्निकर्ष अथवा इन्द्रिय प्रमाण नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय और पदार्थ का जो सम्बन्ध होता है, उसे सन्निकर्ष कहते हैं। किन्तु सूक्ष्म पदार्थ - जैसे परमाणु, दूरवर्ती पदार्थ - जैसे सुमेरु और अन्तरित पदार्थ - जैसे राम, रावण आदि के साथ इन्द्रिय का सन्निकर्ष नहीं हो सकता; क्योंकि इन्द्रिय का सम्बन्ध तो सामने वर्तमान स्थिर स्थूल पदार्थ के साथ ही हो सकता है। अतः सन्निकर्ष को प्रमाण मानने से इन पदार्थों का कभी ज्ञान ही नहीं हो सकेगा। इसके सिवा सभी इन्द्रियाँ पदार्थ को छूकर नहीं जानती हैं। मन और चक्षु जिसको जानते हैं, उससे दूर रहकर ही उसे जानते हैं। अतः ज्ञान ही प्रमाण है, सन्निकर्ष अथवा इन्द्रिय प्रमाण नहीं हैं। आगे प्रमाण के दो भेद बतलाये हैं - प्रत्यक्ष और परोक्ष। इन्हीं में दूसरों के द्वारा माने गये प्रमाण के सब भेदों का अन्तर्भाव हो जाता है। इसी से ‘प्रमाणे' यह द्विवचन का प्रयोग सूत्र में किया है।
  19. मति-श्रुतावधि-मन:पर्यय-केवलानि ज्ञानम्॥९॥ अर्थ - मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान हैं। English - Knowledge is of five kinds - sensory knowledge, scriptural knowledge, clairvoyance, telepathy, and omniscience. पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा पदार्थों का जो ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं। मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ से सम्बन्ध रखने वाले किसी दूसरे पदार्थ के ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। जैसे, मतिज्ञान के द्वारा घट को जान कर अपनी बुद्धि से यह जानना कि यह घट पानी भरने के काम का है। अथवा उस एक घट के समान या असमान जो अन्य बहुत से घट हैं, उनको जान लेना श्रुतज्ञान है। उस श्रुतज्ञान के दो भेद हैं - अनक्षरात्मक और अक्षरात्मक। कर्ण इन्द्रिय के सिवा बाकी की चार इन्द्रियों के द्वारा होने वाले मतिज्ञान के पश्चात् जो विशेष ज्ञान होता है, वह अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है। जैसे, स्वयं घट को जानकर यह जानना कि यह घट अमुक अमुक काम में आ सकता है और कर्ण इन्द्रिय के द्वारा होने वाले मतिज्ञान के पश्चात् जो विशेष ज्ञान होता है वह अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है। जैसे, ‘घट' इस शब्द को सुनकर कर्ण इन्द्रिय के द्वारा जो मतिज्ञान हुआ, उसने केवल शब्द मात्र को ही ग्रहण किया। उसके बाद उस ‘घट' शब्द के वाच्य घड़े को देखकर यह जानना कि यह घट है और यह पानी भरने के काम का है, यह अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिए हुए रूपी पदार्थ को प्रत्यक्ष जानने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। मनुष्यलोक में वर्तमान जीवों के मन में स्थित जो रूपी पदार्थ हैं, जिनका उन जीवों ने सरल रूप से या जटिल रूप से विचार किया है, या विचार कर रहे हैं अथवा भविष्य में विचार करेंगे, उनको स्पष्ट जानने वाले ज्ञान को मन:पर्ययज्ञान कहते हैं। सब द्रव्यों की सब पर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। ऊपर प्रमाण और नयों के द्वारा वस्तु का ज्ञान होना बतलाया है। किन्तु कोई-कोई मतावलम्बी इन्द्रिय और पदार्थ का जो सन्निकर्ष सम्बन्ध होता है, उसी को प्रमाण मानते हैं, कोई इन्द्रिय को ही प्रमाण मानते हैं।
  20. जीव आदि को जानने के और भी उपाय बतलाते हैं- सत्संख्या-क्षेत्र-स्पर्शन-कालान्तर-भावाल्पबहुत्वैश्च॥८॥ अर्थ - सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व, इन आठ अनुयोगों के द्वारा भी जीव आदि पदार्थों का ज्ञान होता है। English - (The seven categories are known) also by existence, number (enumeration), place or abode, extent of space (pervasion), time, interval of time, thought-activity, and reciprocal comparison. सत् का अर्थ अस्तित्व या मौजूदगी है। भेदों की गिनती को संख्या कहते हैं। वर्तमान निवास को क्षेत्र कहते हैं। तीनों कालों में विचरने के क्षेत्र को स्पर्शन कहते हैं। काल का अर्थ सभी जानते हैं। विरहकाल को अन्तर कहते हैं। अर्थात् एक दशा से दूसरी दशा को प्राप्त करके फिर उसी पहली दशा में आ जाने पर दोनों के बीच में जितना काल रहता है, वह विरहकाल कहलाता है। इसी को अन्तर कहते हैं। औपशमिक आदि को भाव कहते हैं। एक दूसरे की अपेक्षा तुलना करके एक को कम दूसरे को अधिक बतलाना अल्पबहुत्व है। इन आठों के द्वारा भी सम्यग्दर्शन आदि तथा जीव आदि का ज्ञान होता है।
  21. अब प्रमाण और नय के द्वारा जाने गये जीव आदि तत्त्वों को जानने का अन्य उपाय बतलाते हैं - निर्देश-स्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थिति-विधानतः॥७॥ अर्थ - निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान इन छह अनुयोगों के द्वारा भी सम्यग्दर्शन आदि तथा जीव आदि पदार्थों का ज्ञान होता है। जिस वस्तु को हम जानना चाहते हैं, उसका स्वरूप कहना निर्देश है। स्वामित्व से मतलब उस वस्तु के मालिक से है। वस्तु के उत्पन्न होने के कारणों को साधन कहते हैं। वस्तु के आधार को अधिकरण कहते हैं। काल की मर्यादा का नाम स्थिति है। विधान से मतलब उसके भेदों से है। इस तरह इन छह अनुयोगों के द्वारा उस वस्तु का ठीक ठीक ज्ञान हो जाता है। English - (Knowledge of the seven categories is attained) by description, ownership, cause, resting place (substratum), duration and division. विशेषार्थ- वस्तु को हम जानते तो प्रमाण और नय से ही हैं, किन्तु उसके जानने में ऊपर बतलायी गयी छह बातें उपयोगी होती हैं,उनसे उस वस्तु की पूरी-पूरी जानकारी होने में सहायता मिलती है। जैसे, हम यदि सम्यग्दर्शन को जानना चाहते हैं, तो उसके विषय में छह अनुयोग इस प्रकार घटाना चाहिए - तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं, यह निर्देश है। सम्यग्दर्शन का स्वामी जीव होता है। सम्यग्दर्शन के साधन दो हैं- अन्तरंग और बहिरंग। अन्तरंग साधन अथवा कारण तो दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम है और जिनधर्म का सुनना, जिनबिम्ब का दर्शन, जातिस्मरण वगैरह बहिरंग साधन हैं। अधिकरण भी दो हैं - अन्तरंग और बहिरंग। सम्यग्दर्शन का अन्तरंग अधिकरण या आधार तो आत्मा ही है; क्योंकि सम्यग्दर्शन उसी को होता है। और बहिरंग आधार त्रसनाड़ी है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव त्रसनाड़ी में ही रहते हैं, उससे बाहर नहीं रहते। सम्यग्दर्शन की स्थिति कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त मात्र है और अधिक से अधिक सादि अनन्त है; क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व एक बार प्राप्त होने पर कभी नहीं छूटता और मुक्त हो जाने पर भी बना रहता है। सम्यग्दर्शन के दो भेद भी हैं - निसर्गज और अधिगमज। तथा तीन भेद भी हैं - औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक। इसी तरह ज्ञान, चारित्र और जीव आदि पदार्थों में निर्देश आदि लगा लेना चाहिए।
  22. अब तत्त्वों को जानने का उपाय बतलाते हैं- प्रमाणनयैरधिगमः॥६॥ अर्थ - प्रमाण और नयों के द्वारा जीवादिक पदार्थों का ज्ञान होता है। सम्पूर्ण वस्तु को जानने वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। और वस्तु के एकदेश को जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं। English - Knowledge (of the seven categories) is attained by means of pramana and naya. विशेषार्थ - प्रमाण के दो प्रकार हैं - स्वार्थ और परार्थ। जिसके द्वारा ज्ञाता स्वयं ही जानता है। उसे स्वार्थ प्रमाण कहते हैं। इसी से स्वार्थ प्रमाण ज्ञानरूप ही होता है; क्योंकि ज्ञान के द्वारा ज्ञाता स्वयं ही जान सकता है। दूसरों को नहीं बतला सकता। और जिसके द्वारा दूसरों को ज्ञान कराया जाता है, उसे परार्थ प्रमाण कहते हैं। इसी से परार्थ प्रमाण वचनरूप होता है; क्योंकि ज्ञान के द्वारा ज्ञाता स्वयं जानकर वचन के द्वारा दूसरों को ज्ञान कराता है। आगे ज्ञान के पाँच भेद बतलाये हैं - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान। इनमें से श्रुतज्ञान के सिवा शेष चार ज्ञान तो स्वार्थ प्रमाण ही हैं, क्योंकि वे मात्र ज्ञानरूप ही हैं, परन्तु श्रुतज्ञान ज्ञानरूप भी है और वचनरूप भी है, अतः श्रुतज्ञान स्वार्थ भी है और परार्थ भी है। ज्ञानरूप श्रुतज्ञान स्वार्थ प्रमाण है, और वचनरूप श्रुतज्ञान परार्थ प्रमाण है। जैसे तत्त्वार्थसूत्र के ज्ञाता को तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित विषयों का जो ज्ञान है, वह ज्ञानात्मक श्रुत होने से स्वार्थ प्रमाण है। और जब वह ज्ञाता अपने वचनों के द्वारा दूसरों को उन विषयों का ज्ञान कराता है, वह वचनात्मक श्रुतज्ञान परार्थ प्रमाण है। इस श्रुतज्ञान के ही भेद नय हैं।
  23. अब सम्यग्दर्शन आदि और जीव आदि के व्यवहार में आने वाले व्यभिचार (दोष) को दूर करने के लिए सूत्रकार निक्षेपों का कथन करते हैं | नाम-स्थापना-द्रव्य-भावतस्तन्न्यासः॥५॥ अर्थ - सम्यग्दर्शन आदि और जीव आदि का नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के द्वारा निक्षेप होता है। जिस पदार्थ में जो गुण नहीं है, लोक व्यवहार चलाने के लिए अपनी इच्छा से उसको उस नाम से कहना नाम निक्षेप है। English - These are installed (in four ways) by name, representation, substance (potentiality) and actual state. जैसे माता-पिता ने अपने पुत्र का नाम इन्द्र रख दिया। किन्तु उसमें इन्द्र का कोई गुण नहीं पाया जाता। अत: वह पुत्र नाममात्र से इन्द्र है, वास्तव में इन्द्र नहीं है। लकड़ी, पत्थर, मिट्टी के चित्रों में तथा शतरंज के मोहरों में हाथी घोड़े वगैरह की स्थापना करना स्थापना निक्षेप है। स्थापना दो प्रकार की होती है - तदाकार और अतदाकार पाषाण या धातु की बनी हुई तदाकार प्रतिबिम्ब में जिनेन्द्र भगवान् की या इन्द्र की स्थापना करना तदाकार-स्थापना है और शतरंज के मोहरों में जो कि हाथी या घोड़े के आकार के नहीं हैं, हाथी घोड़े की स्थापना करना अर्थात् उनको हाथी घोड़ा मानना अतदाकार स्थापना है। शंका - नाम और स्थापना में क्या भेद है ? समाधान - नाम और स्थापना में बहुत भेद है। नाम तो केवल लोकव्यवहार चलाने के लिए ही रखा जाता है। जैसे किसी का नाम इन्द्र या जिनेन्द्र रख देने से इन्द्र या जिनेन्द्र की तरह उसका आदर सम्मान नहीं किया जाता। किन्तु धातु पाषाण के प्रतिबिम्ब में स्थापित जिनेन्द्र की अथवा इन्द्र की पूजा साक्षात जिनेन्द्र या इन्द्र की तरह ही की जाती है। जो पदार्थ आगामी परिणाम की योग्यता रखता हो, उसे द्रव्य निक्षेप कहते हैं। जैसे इन्द्र की प्रतिमा बनाने के लिए जो काष्ठ लाया गया हो, उसमें इन्द्र की प्रतिमारूप परिणत होने की योग्यता है, अतः उसे इन्द्र कहना द्रव्यनिक्षेप है। वर्तमान पर्याय से युक्त वस्तु को भावनिक्षेप कहते हैं। जैसे स्वर्ग के स्वामी साक्षात् इन्द्र को इन्द्र कहना भाव निक्षेप है। ऐसे ये चार निक्षेप हैं। विशेषार्थ - इन निक्षेपों का यह प्रयोजन है कि लोक में प्रत्येक वस्तु का चार रूप से व्यवहार होता पाया जाता है। जैसे इन्द्र का व्यवहार नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के रूप में होता देखा जाता है। इसी तरह सम्यग्दर्शन आदि और जीव आदि का व्यवहार भी चार रूप से हो सकता है। अतः कोई नाम को ही भाव न समझ ले, या स्थापना को ही भाव न समझ बैठे, इसलिए व्यभिचार (दोष) को दूर करके यथार्थ वस्तु को समझाने के लिए ही यह निक्षेप की विधि बतलायी है। इनमें से नाम, स्थापना और द्रव्य, ये तीन निक्षेप तो द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से हैं और चौथा भावनिक्षेप पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से है।
  24. अब तत्त्वों को बतलाते हैं - जीवाजीवास्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षास्तत्त्वम्॥४॥ अर्थ - जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये सात तत्त्व हैं। English - (The) soul, (the) non-soul, influx, bondage, stoppage, gradual dissociation and liberation constitute reality. जिसका लक्षण चेतना है, वह जीव है। जिनमें चेतना नहीं पायी जाती, ऐसे पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच अजीव हैं। कर्मों के आने के द्वार को आस्रव कहते हैं। आत्मा और कर्म के प्रदेशों के परस्पर में मिलने को बन्ध कहते हैं। आस्रव के रुकने को संवर कहते हैं। कर्मों के एकदेश क्षय होने को निर्जरा कहते हैं। और समस्त कर्मों का क्षय होने को मोक्ष कहते हैं। शंका - तत्त्व सात ही क्यों हैं ? समाधान - यह मोक्षशास्त्र है, इसका प्रधान विषय मोक्ष है, अतः मोक्ष को कहा। मोक्ष जीव को होता है, अतः जीव का ग्रहण किया। तथा संसार पूर्वक ही मोक्ष होता है और संसार अजीव के होने पर होता है; क्योंकि जीव और अजीव के आपस में बद्ध होने का नाम ही संसार है। अतः अजीव का ग्रहण किया। संसार के प्रधान कारण आस्रव और बंध हैं। अतः आस्रव और बंध का ग्रहण किया। तथा मोक्ष के प्रधान कारण संवर और निर्जरा हैं, इसलिए संवर और निर्जरा का ग्रहण किया।
  25. आगे बतलाते हैं कि सम्यग्दर्शन कैसे उत्पन्न होता है। तन्निसर्गादधिगमाद्वा॥३॥ अर्थ - वह सम्यग्दर्शन दो प्रकार से उत्पन्न होता है - स्वभाव से और पर के उपदेश से। जो सम्यग्दर्शन पर के उपदेश के बिना स्वभाव से ही उत्पन्न होता है, उसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं और जो सम्यग्दर्शन पर के उपदेश से उत्पन्न होता है, उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं। English - That (This right faith) is attained by intuition or by acquisition of knowledge. विशेषार्थ - दोनों ही सम्यग्दर्शनों की उत्पत्ति का अन्तरंग कारण तो एक ही है, वह है दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम्। उसके होते हुए जो सम्यग्दर्शन दूसरे के उपदेश के बिना स्वयं ही प्रकट हो जाता है, उसे निसर्गज कहते हैं और परोपदेशपूर्वक जो होता है, उसे अधिगमज कहते हैं। सारांश यह है कि जैसे पुरानी किंवदन्ती के अनुसार कुरुक्षेत्र में बिना ही प्रयत्न के सोना पड़ा हुआ मिल जाता है, वैसे ही किसी दूसरे पुरुष के उपदेश के बिना, स्वयं ही जीवादि तत्त्वों को जानकर जो श्रद्धान होता है, वह निसर्गज सम्यग्दर्शन है और जैसे सोना निकालने की विधि को जानने वाले मनुष्य के प्रयत्न से खान से निकाला हुआ स्वर्ण पाषाण सोना रूप होता है। वैसे ही दूसरे पुरुष के उपदेश की सहायता से जीवादि पदार्थों को जानकर जो श्रद्धान होता है, वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है।
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