आगे बतलाते हैं कि जैसे अर्थावग्रह, ईहा वगैरह ज्ञान सभी इन्द्रियों से होते हैं, वैसे व्यञ्जनावग्रह सभी इन्द्रियों से नहीं होता-
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्॥१९॥
अर्थ - चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता; क्योंकि चक्षु और मन पदार्थ को दूर से ही जानते हैं,
English - Indistinct apprehension does not arise by means of the eyes and the mind.
उससे भिड़ कर नहीं जानते। जैसे चक्षु आँख में लगे अंजन को नहीं देख सकती, किन्तु दूरवर्ती को देख सकती है। इसी तरह मन भी जिन पदार्थों का विचार करता है, वे उससे दूर ही होते हैं। इसी से जैन सिद्धान्त में चक्षु और मन को अप्राप्यकारी कहा है। शेष चारों इन्द्रियाँ अपने विषय को उससे भिड़ कर ही जानती हैं। अतः व्यञ्जनावग्रह चार ही इन्द्रियों से होता है। इस तरह बहु, बहुविध आदि बारह विषयों की अपेक्षा व्यंजनावग्रह के ४८ भेद होते हैं। तथा पहले गिनाये हुए २८८ भेदों में इन ४८ भेदों को मिला देने से मतिज्ञान के ३३६ भेद होते हैं। इस तरह मतिज्ञान का स्वरूप कहा।
- 1
- 1