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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. इन इन्द्रियों के भेद कहते हैं द्विविधानि ॥१६॥ अर्थ - इन्द्रियाँ दो प्रकार की होती हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । English - Each of the senses is of to two kinds i.e. material and emotional.
  2. अब इन्द्रियों की संख्या बतलाते हैं पञ्चेन्द्रियाणि ॥१५॥ अर्थ - इन्द्रियाँ पाँच होती हैं। English - The senses are five - touch, taste, smell, sight and hear.
  3. अब त्रस के भेद कहते हैं- द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः ॥१४॥ अर्थ - दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीवों को त्रस कहते हैं। English - The mobile beings are from the two-sensed beings onwards. दो इन्द्रिय जीव के छह प्राण होते हैं - स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ, कायबल, वचनबल, आयु और श्वासोच्छवास। तीनइन्द्रिय के एक घ्राणेन्द्रिय के बढ़ जाने से सात प्राण होते हैं। चौइन्द्रिय के एक चक्षु इन्द्रिय के बढ़ जाने से आठ प्राण होते हैं। पंचेन्द्रिय असैनी के एक श्रोत्र इन्द्रिय के बढ़ जाने से नौ प्राण होते हैं। और सैनी पंचेन्द्रिय के मनोबल के बढ़ जाने से दस प्राण होते हैं।
  4. स्थावर का अधिक कथन नहीं है। इसलिए सूत्रकार क्रम का उल्लंघन करके त्रस से पहले स्थावर के भेद कहते हैं- पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ॥१३॥ अर्थ - पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और वनस्पति - ये पाँच स्थावर हैं। इन स्थावर जीवों के चार प्राण होते हैं - स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छवास। English - The immobile beings are of five kinds having earth, water, fire, air, and vegetation as their body. विशेषार्थ - आगम में इन पाँचों स्थावरों में से प्रत्येक के चार-चार भेद बतलाये हैं। जैसे-पृथ्वी, पृथ्वीकाय, पृथ्वीकायिक और पृथ्वीजीव। जो स्वयं ही बनी हुई अचेतन जमीन है, उसे पृथ्वी कहते हैं। जिस पृथ्वी में से जीव निकल गया तो उसे पृथ्वीकाय कहते हैं। जीव सहित पृथ्वी को पृथ्वीकायिक कहते हैं। और जो जीव पहले शरीर को छोड़कर पृथ्वीकाय में जन्म लेने के लिए जा रहा है, जब तक वह पृथ्वी को अपने शरीर रूप से ग्रहण नहीं कर लेता, तब तक उस जीव को पृथ्वी जीव कहते हैं। इसी तरह अप् (जल), तेज, वगैरह के भेद जान लेने चाहिए।
  5. आगे संसारी जीव के और भी भेद बतलाते हैं संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥१२॥ अर्थ - संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के हैं। जिसके त्रस नाम कर्म का उदय होता है, वह जीव त्रस कहलाता है और जिसके स्थावर नाम कर्म का उदय होता है, वह जीव स्थावर कहलाता है। English - The transmigrating souls are also divided into two kinds i.e. the mobile and the immobile beings. विशेषार्थ - कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि जो चलें फिरें, वे त्रस हैं। और जो एक ही स्थान पर ठहरे रहें, वे स्थावर हैं। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से जो जीव गर्भ में हैं या अण्डे में हैं, वा चुपचाप पड़े सोते हैं अथवा मूर्छित पड़े हैं। वे त्रस नहीं कहे जा सकेंगे। तथा हवा, आग और पानी स्थावर हैं, किन्तु इनमें हलन चलन वगैरह देखा जाता है अतः वे त्रस कहे जायेंगे। इसलिए चलने और ठहरे रहने की अपेक्षा त्रस स्थावर पना नहीं है, किन्तु उस और स्थावर नामकर्म की अपेक्षा से ही है। इस सूत्र में भी उस शब्द को स्थावर पहले रखा है क्योंकि उस स्थावर से पूज्य है तथा अल्प अक्षरवाला भी है।
  6. अब संसारी जीव के भेद कहते हैं- समनस्कामनस्काः ॥११॥ अर्थ - संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं - मन सहित और मन रहित। English - The two kinds of transmigrating souls are with and without minds. मन सहित जीवों को संज्ञी कहते हैं। संज्ञी जीव शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, बुलाने पर आ जाते हैं और इशारे वगैरह को समझ लेते हैं। मन रहित जीवों को असंज्ञी कहते हैं। असंज्ञी जीव शिक्षा, उपदेश वगैरह ग्रहण नहीं कर सकते । इसी से अमनस्क को सूत्र में पीछे रक्खा और समनस्क को पहले रक्खा है।
  7. आगे जीव के भेद बतलाते हैं- संसारिणो मुक्ताश्च ॥१०॥ अर्थ - जीव दो प्रकार के हैं - संसारी और मुक्त। English - The souls are of two types - the transmigrating and the emancipated souls. विशेषार्थ - संसार का मतलब चक्कर लगाना है। उसी को परिवर्तन कहते हैं। परिवर्तन पाँच प्रकार का होता है - द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन, काल परिवर्तन, भव परिवर्तन और भाव परिवर्तन। कर्म और नोकर्म पुद्गलों को अमुक क्रम से ग्रहण करने और भोग कर छोड़ देने रूप परिभ्रमण का नाम द्रव्य परिवर्तन है। लोकाकाश के सब प्रदेशों में अमुक क्रम से उत्पन्न होने और मरने रूप परिभ्रमण का नाम क्षेत्र परिवर्तन है। क्रमवार उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के सब समयों में जन्म लेने और मरने रूप परिभ्रमण का नाम काल परिवर्तन है। नरकादि गतियों में बार-बार उत्पन्न होकर जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त सब आयु को भोगने रूप परिभ्रमण का नाम भव परिवर्तन है। इतना विशेष है कि देव गति में इकतीस सागर तक की ही आयु भोगनी चाहिए। सब योगस्थानों और कषायस्थानों के द्वारा क्रम से ज्ञानावरण आदि सब कर्मों की जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति को भोगने रूप परिभ्रमण को भाव परिवर्तन कहते हैं। संक्षेप में यह पाँच परिवर्तनों का निर्देश मात्र है। इस पञ्च परिवर्तन रूप संसार से जो जीव छूट जाते हैं, वे मुक्त कहलाते हैं। संसार पूर्वक ही मुक्त जीव होते हैं। इसलिए सूत्र में संसारी को पहले रखा है।
  8. अब उपयोग के भेद कहते हैं- स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः॥९॥ अर्थ - वह उपयोग दो प्रकार का है- ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं - मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान और कुमति, कुश्रुत और कु-अवधि ये तीन अज्ञान तथा दर्शनोपयोग के चार भेद हैं चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। English - Consciousness is of two kinds i.e. knowledge and perception. And these, in turn, are of eight kinds the sensory, scriptural, clairvoyance, telepathy and omniscience, and erroneous sensory, scriptural and clairvoyance and four kinds (ocular, non-ocular, clairvoyance and perfect) respectively. विशेषार्थ - दर्शन और ज्ञान में साकार और अनाकार का भेद है। पदार्थ का आकार न लेकर जो सामान्य ग्रहण होता है, वह दर्शन है। क्योंकि एक पदार्थ से हटकर जब आत्मा दूसरे पदार्थ को जानने के अभिमुख होता है, तो पदार्थ और इन्द्रिय का सम्बन्ध होते ही वस्तु के आकार वगैरह का ग्रहण नहीं होता। अतः दर्शन निराकार है। उसके पश्चात् पदार्थ के आकार वगैरह के जानने को ज्ञान कहते हैं। छद्मस्थ के तो दर्शन के पश्चात् ज्ञान होता है; क्योंकि छद्मस्थ पदार्थों को क्रम से जानता है; किन्तु केवली भगवान् के दर्शन और ज्ञान दोनों एक साथ होते हैं। दर्शन और ज्ञान में ज्ञान प्रधान है इसलिए सूत्र में उसके भेद पहले गिनाये हैं। शंका - जैसे अवधिज्ञान के पहले अवधिदर्शन माना है, वैसे ही मनःपर्ययज्ञान के पहले मन:पर्ययदर्शन क्यों नहीं माना ? समाधान - प्रथम तो आगम में दर्शनावरण कर्म के भेदों में मन:पर्यय दर्शनावरण नाम का कोई भेद नहीं गिनाया, जिसके क्षयोपशम से मन:पर्यय दर्शन हो। दूसरे, मन:पर्ययज्ञान अपने विषय को अवधिज्ञान की तरह सीधा ग्रहण नहीं करता। किन्तु मन का सहारा पाकर ग्रहण करता है। अतः जैसे मन अतीत और अनागत पदार्थ का विचार ही करता है। वैसे ही मनःपर्यय ज्ञान भी अतीत अनागत को जानता ही है तथा वर्तमान पदार्थ को भी विशेष रूप से ही जानता है तथा मन के निमित्त से होने वाले मतिज्ञान के पश्चात् मन:पर्यय ज्ञान होता है। इसलिए भी मनःपर्यय दर्शन आवश्यक नहीं है।
  9. इसलिए सूत्रकार जीव का लक्षण बतलाते हैं- उपयोगो लक्षणम्॥८॥ अर्थ - जीव का लक्षण उपयोग है। चैतन्य के होने पर ही होने वाले परिणाम को उपयोग कहते हैं। यह उपयोग सब जीवों में पाया जाता है और जीव के सिवा अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता। English - Consciousness is the differential (distinctive characteristics) of the soul.
  10. राष्ट्रपति को मूकमाटी सचित्र की प्रति सादर भेट आचार्य श्री विद्यासागर जी के 50 वें दीक्षा दिवस पर संयम स्वर्ण महोत्सव के अवसर पर महामहिम राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद महोदय को भारतीय ज्ञानपीठ के प्रबंधन्यासी साहू अखिलेश जैन के नेतृत्व में प्रतिनिधि मंडल में श्री स्वर्दशभूषण जैन (न्यासी, भारतीय ज्ञानपीठ), श्री अशोक पाटनी, श्री एस. के. जैन, डॉ. सौगनी, श्री प्रभात जैन(मुम्बई) और श्री पंकज जैन आदि ने आचार्य श्री के द्वारा लिखित पुस्तक मूकमाटी सचित्र की प्रति भेट की। यह महाकाव्य धर्म-दर्शन एवं अध्यात्म के सार को आज की भाषा एवं मुक्त - छन्द की मनोरम काव्य शैली में निबद्ध कर कविता रचना को नया आयाम देने वाली एक अनुपम कृति। आचार्य श्री विद्यासागर जी की काव्य प्रतिभा का यह चमत्कार है कि माटी जैसी निरीह, पददलित, व्यथित वस्तु को महाकाव्य का विषय बनाकर उसकी मूकवेदना और मुक्ति की आकांक्षा को वाणी दी है। कुम्भकार शिल्पी ने मिट्टी की ध्रुव और भव्य सत्ता को पहचानकर कूटछानकर, वर्णसंकर कंकर को हटाकर उसे निर्मल मूदुता का वर्णलाभ दिया है। यह महाकाव्य साहित्य जगत् और आध्यत्मिक जगत् के लिए सदैव उपादेय है। इस महाकाव्य अनेकों शोध कार्य हो चुके है। वर्तमान में यह महाकाव्य 36 विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल है। 19 भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। अभी हाल ही में भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली से यह महाकाव्य सचित्र रूप में प्रकाशित हुआ है। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा लिखित काव्य मूक माटी को माननीय राष्ट्रपति श्रीमान रामनाथ जी कोविंद को प्रदान करते हुए समाज के सृष्टि गन अशोक जी पाटनी एवं अन्य.
  11. आचार्यभगवन्त श्री विद्यासागर जी महामुनिराज के आर्किटेक्ट उमंग जैन 'आदिनाथ' SPA भोपाल द्वारा तैयार किये गए स्कैच का विमोचन पुण्योदय तीर्थ नसियां जी कोटा के अध्यक्ष श्री प्रकाश जी बज एवं गुरुवर से लिया आगामी दिवस में दादागुरु आचार्य श्री ज्ञान सागर जी महाराज के स्कैच बनाने का आशीर्वाद।
  12. अब पारिमाणिक भाव के तीन भेद बतलाते हैं- जीवभव्याभव्यत्वानि च॥७॥ अर्थ - जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन जीव के असाधारण पारिणामिक भाव हैं। ये भाव जीव के सिवा अन्य द्रव्यों में नहीं होते। तथा इनके होने में किसी कर्म का उदय वगैरह भी कारण नहीं है। English - The three inherent nature of the soul is the principle of life (consciousness), capacity for salvation and incapacity for salvation. अतः ये असाधारण पारिणामिक भाव कहलाते हैं। वैसे साधारण पारिणामिक भाव तो अस्तित्व, नित्यत्व, प्रदेशत्व आदि बहुत से हैं, किन्तु वे भाव अन्य अजीव द्रव्यों में भी पाये जाते हैं। इसीलिए उनको ‘च' शब्द से ग्रहण कर लिया है। जीवत्व नाम चैतन्य का है। चैतन्य जीव का स्वाभाविक गुण है। इसलिए वह पारिणामिक है। जिसमें सम्यग्दर्शन आदि परिणामों के होने की योग्यता है, वह भव्य है और जिसमें वैसी योग्यता का अभाव है, वह अभव्य है। ये दोनों बातें भी स्वाभाविक ही हैं। जैसे जिन उड़द, मूंग वगैरह में पकने की शक्ति होती है, वे निमित्त मिलने पर पक जाते हैं और जिनमें वह शक्ति नहीं होती, वे कितनी ही आग जलाने पर भी नहीं पकते । यही दशा जीवों की है। इस तरह औपशमिक आदि जीव के पाँच भावों का वर्णन किया है। शंका - जीव के ये भाव नहीं हो सकते; क्योंकि ये भाव कर्मबन्ध की अपेक्षा से बतलाये हैं। और आत्मा अमूर्तिक है, अतः अमूर्तिक आत्मा मूर्तिक कर्मों से नहीं बँध सकता ? - समाधान - आत्मा एकान्त से अमूर्तिक ही नहीं है किन्तु मूर्तिक भी है। कर्मबन्ध की अपेक्षा से तो मूर्तिक है, क्योंकि अनादिकाल से संसारी आत्मा कर्म पुद्गलों से दूध-पानी की तरह मिला हुआ है, कभी भी कर्म से जुदा नहीं हुआ तथा शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा से अमूर्तिक है, क्योंकि यद्यपि कर्म और आत्मा, दूध और पानी की तरह एक हो रहे हैं फिर भी अपने चैतन्य स्वभाव को छोड़कर आत्मा कभी भी पुद्गलमय नहीं हो जाता। अतः अमूर्तिक है। | शंका - जब संसार अवस्था में आत्मा कर्म पुद्गलों के साथ दूधपानी की तरह मिला हुआ है, तो उसको हम कैसे जान सकते हैं कि यह आत्मा है ? समाधान - बन्ध की अपेक्षा से आत्मा और पुद्गल मिले होने पर भी दोनों का लक्षण भिन्न-भिन्न है। उस लक्षण से आत्मा की पहचान हो सकती है।
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