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  1. अब औदयिक भाव के इक्कीस भेद कहते हैं- गति-कषाय-लिङ्ग-मिथ्यादर्शनाज्ञानासंयता-सिद्ध- लेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकषड्भेदाः॥६॥ अर्थ - चार गति, चार कषायें, तीन लिंग अर्थात् वेद, एक मिथ्या दर्शन, एक अज्ञान, एक असंयम, एक असिद्धत्व और छह लेश्याएँ- ये औदयिक भाव के इक्कीस भेद हैं। English - The twenty one kind of rise of karmas relate to the condition of existence, the passions, sex, erroneous belief, erroneous knowledge, non-restraint, non-attainment of salvation (imperfect disposition) and thought colouration (leshya), which are of four, four, three, one, one, one, one and six kinds respectively. विशेषार्थ - चार गतियाँ-नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति और देव गति, ये गति नामकर्म के उदय से होती हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाएँ चारित्र मोहनीय के भेद कषाय-वेदनीय के उदय से होती हैं। लिंग के दो भेद हैं- द्रव्यलिंग और भावलिंग। शरीर में पाये जाने वाले स्त्री और पुरुष के चिह्न आदि को द्रव्यलिंग कहते हैं। द्रव्यलिंग नामकर्म के उदय से होता है। अत: उसका यहाँ अधिकार नहीं है, क्योंकि यहाँ आत्मा के भावों का कथन है। अतः स्त्री-पुरुष और दोनों से रमण करने की अभिलाषा रूप जो भाव वेद है, उसी का यहाँ अधिकार है। सो चारित्रमोहनीय का भेद नो-कषाय है और नो-कषाय के भेद स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद कर्म के उदय से स्त्रीलिंग, पुरुषलिंग और नपुंसकलिंग होते हैं। दर्शनमोह के उदय से तत्त्वार्थ का श्रद्धान न करने रूप मिथ्यादर्शन भाव होता है। ज्ञानावरण कर्म के उदय से न जानने रूप अज्ञान भाव होता है। चारित्रमोह के उदय से प्राणियों की हिंसा और इन्द्रियों के विषयों से विरक्त न होने रूप असंयत भाव होता है। कर्म मात्र का उदय होने से सिद्ध पर्याय की प्राप्ति न होने रूप असिद्धत्व भाव होता है। लेश्या दो प्रकार की होती है- द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या। जीव के भावों का अधिकार होने से यहाँ द्रव्य लेश्या का अधिकार नहीं है। कषायों के उदय से रंजित मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को भाव लेश्या कहते हैं। उसके छह भेद हैं - कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म तथा शुक्ल। सो आत्मा के भावों में अशुद्धता की कमी बेशी को लेकर कृष्ण आदि शब्दों का उपचार किया है। शंका - आगम में उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोग-केवली नाम के ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानों में लेश्या कही है, किन्तु इन गुणस्थानों में कषाय का उदय नहीं है। तब वहाँ लेश्या औदयिक कैसे है ? अथवा वहाँ लेश्या ही कैसे संभव है ? क्योंकि कषाय से रंजित योग की प्रवृत्ति का नाम लेश्या है ? समाधान - इन गुणस्थानों में कषाय का उदय न होने पर भी पूर्वभावप्रज्ञापन–नय की अपेक्षा से लेश्या कही है। अर्थात् पहले यही योग कषाय से रंजित था, तब लेश्या कही थी। अब इन गुणस्थानों में कषाय का उदय तो रहा नहीं, परन्तु योग वही है, जो पहले कषाय के रंग में रंगा था। अतः उपचार से लेश्या कही है। अयोगकेवली नाम के चौदहवें गुणस्थान में योग का भी अभाव हो जाने से लेश्या नहीं बतलायी है। शंका - औदयिक भाव तो और भी अनेक हैं। जैसे अज्ञान औदयिक है, वैसे ही अदर्शन भी औदयिक है। निद्रा-निद्रा वगैरह भी औदयिक हैं। वेदनीय के उदय से होने वाला सुख, दुःख भी औदयिक हैं। हास्य आदि छह नोकषाय भी औदयिक हैं। आयु के उदय से एक भव में रहना भी औदयिक है। गोत्र कर्म के उदय से होने वाले नीच, उच्च गोत्र भी औदयिक हैं। नाम कर्म के उदय से होने वाली जाति वगैरह भी औदयिक हैं। इन सबका ग्रहण यहाँ क्यों नहीं किया ? समाधान - इन सबका अन्तर्भाव इन्हीं इक्कीस भावों में हो जाता है। दर्शनावरण के उदय से होने वाले अदर्शन वगैरह का अन्तर्भाव मिथ्यादर्शन में किया है। हास्य वगैरह वेद के साथी हैं, अतः उन्हें वेद में गर्भित कर लिया है। वेदनीय, आयु और गोत्र के उदय से होने वाले भावों का अन्तर्भाव गति में कर लिया है, क्योंकि गति के ग्रहण से अघातिया कर्म के उदय से होने वाले भाव ले लिए गये हैं। इसी प्रकार अन्य भावों का भी अन्तर्भाव कर लेना चाहिए।
  2. अब क्षायौपशमिक भाव के अठारह भेद बतलाते हैं- ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्व चारित्र-संयमासंयमाश्च॥५॥ अर्थ - मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय ये चार ज्ञान; कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ये तीन (३) अज्ञान; चक्षु इन्द्रिय के द्वारा पदार्थों का सामान्य ग्रहण रूप चक्षुदर्शन, शेष इन्द्रियों के द्वारा पदार्थों का सामान्य ग्रहण रूप अचक्षुदर्शन और अवधिज्ञान से पहले होने वाला सामान्य ग्रहण रूप अवधिदर्शन ये तीन (३) दर्शन; अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से होने वाली दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँच (५) लब्धियाँ, क्षायोपशमिक; (१) सम्यक्त्व; (१) सराग चारित्र और (१) संयमासंयम अर्थात् देश व्रतये अठारह भाव क्षायोपशमिक हैं; क्योंकि ये भाव अपनी प्रतिपक्षी कर्म के क्षयोपशम से होते हैं। English - The eighteen kinds of disposition arising from destruction-cum-subsidence are knowledge four (sensory, scriptural, clairvoyance and telepathy), three erroneous knowledge (erroneous sensory and scriptural knowledge and erroneous clairvoyance), three perception (ocular perception, non-ocular perception, clairvoyance perception and perfect perception), five attainment (gift, gain, enjoyment, re-enjoyment and energy), right faith, right conduct and mix of restraint and non-restraint.
  3. अब क्षायिक भाव के नौ भेद कहते हैं- ज्ञान-दर्शन-दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्याणि च॥४॥ अर्थ - केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिकउपभोग, क्षायिकवीर्य तथा ‘च' शब्द से क्षायिकसम्यक्त्व और क्षायिकचारित्र, ये नौ क्षायिक भाव हैं। English - The nine kinds of disposition arising from destruction are the destruction of karmas affecting the knowledge, perception, charity, gain, enjoyment, re-enjoyment, prowess, right belief and conduct. विशेषार्थ - ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के अत्यन्त क्षय होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन होते हैं। दानान्तराय कर्म का अत्यन्त क्षय होने से दिव्यध्वनि वगैरह के द्वारा अनंत प्राणियों का उपकार करने वाला क्षायिक अभय दान होता है। लाभान्तराय का अत्यन्त क्षय होने से, भोजन न करने वाले केवली भगवान् के शरीर को बल देने वाले जो परम शुभ सूक्ष्म नोकर्म पुद्गल प्रतिसमय केवली के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, जिनसे केवली का औदारिक शरीर बिना भोजन के कुछ कम एक पूर्व कोटी वर्ष तक बना रहता है, वह क्षायिक लाभ है। भोगान्तराय का अत्यन्त क्षय होने से सुगन्धित पुष्पों की वर्षा, मन्द सुगन्ध पवन का बहना आदि क्षायिक भोग है। उपभोगान्तराय कर्म का अत्यन्त क्षय होने से सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल, आदि का होना क्षायिक उपभोग है। वीर्यान्तराय कर्म का अत्यन्त क्षय होने से क्षायिकवीर्य होता है। मोहनीय कर्म की ऊपर कहीं सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है और समस्त मोहनीय कर्म के अभाव से क्षायिक चारित्र प्रकट होता है। यहाँ इतना विशेष जानना कि अरहन्त अवस्था में ये क्षायिक दान वगैरह शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म के रहते हुए होते हैं। सिद्धों में ये भाव इस रूप में नहीं होते, क्योंकि सिद्धों में किसी कर्म का सद्भाव नहीं है। फिर भी जब सिद्धों के सब कर्मों का क्षय हो गया है तो कर्मों के क्षय से होने वाले क्षायिक दान आदि भाव होने चाहिए। इसलिये अनन्तवीर्य और बाधा रहित अनन्त सुख के रूप में ही ये भाव सिद्धों में पाये जाते हैं।
  4. अब औपशमिक भाव के दो भेद कहते हैं- सम्यक्त्व-चारित्रे॥३॥ अर्थ - औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ये दो औपशमिक भाव के भेद हैं। English - The two kinds of disposition arising from subsidence are right belief and right conduct. अनन्तानुबन्धी, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात कर्म प्रकृतियों के उपशम से जो सम्यक्त्व होता है, उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं तथा समस्त मोहनीय कर्म के उपशम से औपशमिक चारित्र होता है। विशेषार्थ - उपशम सम्यक्त्व के दो भेद हैं - प्रथमोपशम सम्यक्त्व और द्वितीयोपशम सम्यक्त्व। पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से छूटने पर जो उपशम सम्यक्त्व होता है, उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं और उपशम श्रेणी चढ़ते समय क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से जो उपशम सम्यक्त्व होता है, उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं। प्रथमोपशम सम्यक्त्व होने से पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में पाँच लब्धियाँ होती हैं - क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्य लब्धि और करण लब्धि। इनमें से प्रारम्भ की चार लब्धियाँ तो भव्य और अभव्य दोनों के हो जाती हैं, किन्तु करण लब्धि भव्य के ही होती है तथा जब सम्यक्त्व होना होता है तभी होती है। जब अशुभ कर्म प्रतिसमय अनन्त गुणी कम कम शक्ति को लिए हुए उदय में आते हैं अर्थात् पहले समय में जितना फल दिया, दूसरे समय में उससे अनन्त गुणा कम, तीसरे समय में उससे अनन्त गुणा कम, इस तरह प्रति समय अनन्त गुणा घटता हुआ उदय जिस काल में होता है, तब क्षयोपशम लब्धि होती है। क्षयोपशम लब्धि के प्रभाव से धर्मानुराग रूप शुभ परिणामों का होना विशुद्धि लब्धि आचार्य वगैरह के द्वारा उपदेश का लाभ होना देशना लब्धि है। किन्तु जहाँ उपदेश देने वाला न हो, जैसे चौथे आदि नरकों में, वहाँ पूर्वभव में सुने हुए उपदेश की धारणा के बल पर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। इन तीनों लब्धि वाला जीव प्रतिसमय अधिक-अधिक विशुद्ध होता हुआ आयु कर्म के सिवा शेष कर्मों की स्थिति जब अन्तः कोटाकोटि सागर प्रमाण बांधता है और विशुद्ध परिणामों के कारण वह बंधी हुई स्थिति संख्यात हजार सागर कम हो जाती है, उसे प्रायोग्य लब्धि कहते हैं। पाँचवीं करण लब्धि में अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीन तरह के परिणाम कषायों की मन्दता को लिए हुए क्रमवार होते हैं। इनमें से अनिवृत्ति करण के अन्तिम समय में पूर्वोक्त सात प्रकृतियों का उपशम होने से उपशम सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है। समस्त मोहनीय का उपशम होने से ग्यारहवें गुणस्थान में औपशमिक चारित्र होता है।
  5. अब इन भावों के भेद कहते हैं द्विनवाष्टादशैक-विंशति-त्रिभेदा यथाक्रमम्॥२॥ अर्थ - औपशमिक भाव के दो भेद हैं। क्षायिक भाव के नौ भेद हैं। मिश्र भाव के अठारह भेद हैं। औदयिक भाव के इक्कीस भेद हैं और पारिणामिक भाव के तीन भेद हैं। English - These five types of disposition are of two, nine, eighteen, twenty-one and three kinds respectively.
  6. अब सम्यग्दर्शन के विषय रूप से कहे गये सात तत्त्वों में से जीव तत्त्व का वर्णन करते हैं- औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपरिणामिकौ च ॥१॥ अर्थ - औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक और पारिणामिक ये जीव के पाँच भाव हैं। English - The distinctive characteristic of the soul are the dispositions (thought-activities) arising from subsidence, destruction, destruction-cum-subsidence of karmas, the rise of karmas, and the inherent nature or capacity of the soul. विशेषार्थ - जैसे मैले पानी में निर्मली मिला देने से मैल नीचे बैठ जाता है और जल स्वच्छ हो जाता है। वैसे ही कारण के मिलने पर प्रतिपक्षी कर्म की शक्ति के दब जाने से आत्मा में निर्मलता का होना औपशमिक भाव है। ऊपर वाले दृष्टान्त में उस स्वच्छ जल को, जिसके नीचे मैल बैठ गया है, किसी साफ बर्तन में निकाल लेने पर उसके नीचे का मैल दूर हो जाता है और केवल निर्मल जल रह जाता है। वैसे ही प्रतिपक्षी कर्म का बिलकुल अभाव होने से आत्मा में जो निर्मलता होती है, वह क्षायिक भाव है। जैसे - उसी पानी को दूसरे बर्तन में निकालते समय कुछ मैल यदि साथ में चला आये और आकर जल के नीचे बैठ जाये तो उस समय जल की जैसी स्थिति होती है, वैसे ही प्रतिपक्षी कर्म के सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय और आगे उदय में आने वाले निषेकों का सत्ता में उपशम होने से तथा देशघाती स्पर्द्धकों का उदय होते हुए जो भाव होता है, उसे क्षायौपशमिक भाव कहते हैं। उसी का नाम मिश्र भाव है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से कर्म का फल देना उदय है और उदय से जो भाव होता है, उसे औदयिक भाव कहते हैं और जो भाव कर्म की अपेक्षा के बिना स्वभाव से ही होता है, वह पारिणामिक भाव है। इस तरह ये जीव के पाँच भाव होते हैं।
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