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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 1 : सूत्र 5

       (1 review)

    Vidyasagar.Guru

    अब सम्यग्दर्शन आदि और जीव आदि के व्यवहार में आने वाले व्यभिचार (दोष) को दूर करने के लिए सूत्रकार निक्षेपों का कथन करते हैं |

     

    नाम-स्थापना-द्रव्य-भावतस्तन्न्यासः॥५॥  

     

     

    अर्थ - सम्यग्दर्शन आदि और जीव आदि का नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के द्वारा निक्षेप होता है। जिस पदार्थ में जो गुण नहीं है, लोक व्यवहार चलाने के लिए अपनी इच्छा से उसको उस नाम से कहना नाम निक्षेप है।

     

    English - These are installed (in four ways) by name, representation,  substance (potentiality) and actual state. 

     

    जैसे माता-पिता ने अपने पुत्र का नाम इन्द्र रख दिया। किन्तु उसमें इन्द्र का कोई गुण नहीं पाया जाता। अत: वह पुत्र नाममात्र से इन्द्र है, वास्तव में इन्द्र नहीं है। लकड़ी, पत्थर, मिट्टी के चित्रों में तथा शतरंज के मोहरों में हाथी घोड़े वगैरह की स्थापना करना स्थापना निक्षेप है।

     

    स्थापना दो प्रकार की होती है - तदाकार और अतदाकार पाषाण या धातु की बनी हुई तदाकार प्रतिबिम्ब में जिनेन्द्र भगवान् की या इन्द्र की स्थापना करना तदाकार-स्थापना है और शतरंज के मोहरों में जो कि हाथी या घोड़े के आकार के नहीं हैं, हाथी घोड़े की स्थापना करना अर्थात् उनको हाथी घोड़ा मानना अतदाकार स्थापना है।

     

    शंका - नाम और स्थापना में क्या भेद है ?

    समाधान - नाम और स्थापना में बहुत भेद है। नाम तो केवल लोकव्यवहार चलाने के लिए ही रखा जाता है। जैसे किसी का नाम इन्द्र या जिनेन्द्र रख देने से इन्द्र या जिनेन्द्र की तरह उसका आदर सम्मान नहीं किया जाता। किन्तु धातु पाषाण के प्रतिबिम्ब में स्थापित जिनेन्द्र की अथवा इन्द्र की पूजा साक्षात जिनेन्द्र या इन्द्र की तरह ही की जाती है। जो पदार्थ आगामी परिणाम की योग्यता रखता हो, उसे द्रव्य निक्षेप कहते हैं। जैसे इन्द्र की प्रतिमा बनाने के लिए जो काष्ठ लाया गया हो, उसमें इन्द्र की प्रतिमारूप परिणत होने की योग्यता है, अतः उसे इन्द्र कहना द्रव्यनिक्षेप है। वर्तमान पर्याय से युक्त वस्तु को भावनिक्षेप कहते हैं। जैसे स्वर्ग के स्वामी साक्षात् इन्द्र को इन्द्र कहना भाव निक्षेप है। ऐसे ये चार निक्षेप हैं।

     

    विशेषार्थ - इन निक्षेपों का यह प्रयोजन है कि लोक में प्रत्येक वस्तु का चार रूप से व्यवहार होता पाया जाता है। जैसे इन्द्र का व्यवहार नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के रूप में होता देखा जाता है। इसी तरह सम्यग्दर्शन आदि और जीव आदि का व्यवहार भी चार रूप से हो सकता है। अतः कोई नाम को ही भाव न समझ ले, या स्थापना को ही भाव न समझ बैठे, इसलिए व्यभिचार (दोष) को दूर करके यथार्थ वस्तु को समझाने के लिए ही यह निक्षेप की विधि बतलायी है। इनमें से नाम, स्थापना और द्रव्य, ये तीन निक्षेप तो द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से हैं और चौथा भावनिक्षेप पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से है।


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    Nina Jain

       2 of 2 members found this review helpful 2 / 2 members

    एक बहुत ही अच्छा प्रयास ।

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