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  1. आगे बतलाते हैं कि उपपाद जन्म किसके होता है- देवनारकाणामुपपादः ॥३४॥ अर्थ - देवों और नारकियों के उपपाद जन्म ही होता है। English - The birth of celestial and infernal beings, is by an instantaneous rise in special beds.
  2. अब बतलाते हैं कि किन प्राणियों का कौन जन्म होता है- जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः ॥३३॥ अर्थ - जरायुज, अण्डज और पोत इन तीन प्रकार के प्राणियों के गर्भ जन्म होता है। English - Uterine birth is of three kinds, umbilical (with a sac covering), incubatory (from an egg) and an umbilical (without a sac covering). जन्म के समय प्राणि के ऊपर जाल की तरह जो रुधिर मांस की खोल लिपटी रहती है, उसे जरायु या जेर कहते हैं। और उससे जो उत्पन्न होते हैं, उन्हें जरायुज कहते हैं। जैसे - मनुष्य, बैल वगैरह। जो जीव अण्डे से उत्पन्न होते हैं, उन्हें अण्डज कहते हैं। जैसे कबूतर आदि पक्षी। और जिसके ऊपर कुछ भी आवरण नहीं होता तथा जो योनि से निकलते ही चलने फिरने लगता है, उसे पोत कहते हैं, जैसे शेर वगैरह। इन तीनों प्रकार के प्राणियों के गर्भ जन्म ही होता है।
  3. आगे योनि के भेद बतलाते हैं- सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ॥३२॥ अर्थ- सचित्त, शीत, संवृत, इनके उल्टे अचित्त, उष्ण, विवृत और इन तीनों का मेल अर्थात् सचित्ताचित्त, शीतोष्ण, संवृतविवृत, ये योनि के नौ भेद होते हैं। जीवों के उत्पन्न होने के स्थान विशेष को योनि कहते हैं। English - Living matter, cold, covered, their opposites and their combinations are the nuclei severally. जो योनि चेतना सहित हो उसे सचित्त योनि कहते हैं, अचेतन हो तो अचित्त कहते हैं, और दोनों रूप हो तो सचित्ताचित्त योनि कहते हैं। शीत स्पर्श रूप हो तो शीत योनि कहते हैं, उष्ण स्पर्श रूप हो तो उष्ण योनि कहते हैं, और दोनों रूप हो तो शीतोष्ण योनि कहते हैं। योनि स्थान ढका हुआ हो, स्पष्ट दिखायी न देता हो तो उसे संवृत योनि कहते हैं। स्पष्ट दिखायी देता हो तो उसे विवृत योनि कहते हैं और कुछ ढका हुआ तथा कुछ खुला हुआ हो तो उसे संवृत-विवृत्त कहते हैं। योनि और जन्म में आधार और आधेय का भेद है। योनि आधार है और जन्म आधेय है; क्योंकि सचित्त आदि योनियों में जीव सम्मूर्छन आदि जन्म लेकर उत्पन्न होता है। विशेषार्थ - उदाहरण के रूप में यहाँ कुछ जीवों की योनियाँ बतलाते हैं उक्त नौ योनियों में से देव, नारकियों की योनि अचित्त, शीत और उष्ण तथा संवृत होती है। गर्भ जन्म वालों की योनि सचित्त, अचित्त, शीत, उष्ण और शीतोष्ण तथा संवृतविवृत होती है। सम्मूर्छन जन्म वालों की योनि सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त, शीत, उष्ण और शीतोष्ण होती है। इतना विशेष है कि तेजस्कायिक जीवों की उष्ण योनि ही होती है। तथा एकेन्द्रियों की संवृत योनि और विकलेन्द्रियों की विवृत योनि होती है। इस तरह सामान्य से नौ योनियाँ होती हैं और विस्तार से चौरासी लाख योनियाँ कही हैं।
  4. इस तरह छह सूत्रों के द्वारा गति का कथन करके अब जन्म के भेद बतलाते हैं- सम्मूच्र्छन-गर्भोपपादाज्जन्म ॥३१॥ अर्थ - जन्म तीन प्रकार का है-सम्मूर्छन-जन्म, गर्भ-जन्म और उपपादजन्म। English - Birth is by spontaneous generation, from the uterus or in the special bed. तीनों लोकों में सर्वत्र बिना माता-पिता के सम्बन्ध के सब ओर से पुद्गलों को ग्रहण करके जो शरीर की रचना हो जाती है, उसे सम्मूर्छन जन्म कहते हैं। स्त्री के उदर में माता-पिता के रज-वीर्य के मिलने से जो शरीर की रचना होती है, उसे गर्भ जन्म कहते हैं। और जहाँ जाते ही एक अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण शरीर बन जाता है, ऐसे देव और नारकियों के जन्म को उपपाद जन्म कहते हैं। इस तरह संसारी जीवों के तीन प्रकार के जन्म हुआ करते हैं।
  5. आगे विग्रहगति में आहारक और अनाहारक का नियम बतलाते हैं- एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः ॥३०॥ अर्थ - विग्रह गति में जीव एक समय, दो समय अथवा तीन समय तक अनाहारक रहता है। English - During movement up to the last bend the soul remains non-assimilative for one, two or three instants. औदारिक, वैक्रियिक, आहारक इन तीन शरीरऔर छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को आहार कहते हैं। और शरीर के योग्य पुद्गलों के ग्रहण न करने को अनाहार कहते हैं। जो जीव एक मोड़ा लेकर उत्पन्न होता है, वह जीव एक समय तक अनाहारक रहता है। जो जीव दो मोड़ा लेकर उत्पन्न होता है वह जीव, दो समय तक अनाहारक रहता है और जो तीन मोड़ा लेकर उत्पन्न होता है, वह जीव तीन समय तक अनाहारक रहता है। अर्थात् मोड़े के समय अनाहारक रहता है। किन्तु जब मोड़ा समाप्त करके अपने उत्पत्तिस्थान के लिए सीधा गमन करता है, उस समय आहारक हो जाता है।
  6. आगे बतलाते हैं कि बिना मोड़े वाली गति में कितना काल लगता है- एकसमयाविग्रहा ॥२९॥ अर्थ - बिना मोड़े वाली गति में एक समय लगता है। इसी को ऋजुगति कहते हैं। English - Movement without a bend takes one instant.
  7. संसारी जीव जब परलोक को जाता है, तो उसकी गति कैसे होती है, यह बतलाते है - विग्रहवती च संसारिणः प्राक्चतुभ्र्य: ॥२८॥ अर्थ - संसारी जीव की गति चार समय से पहले मोड़े सहित होती है। English - The movement of the transmigrating souls is with bend and can take up to the four instants, which is for movement with three bends. Each bend requires one additional instant. अर्थात् संसारी जीव जब नया शरीर धारण करने के लिए गमन करता है, तो श्रेणि के अनुसार ही गमन करता है। किन्तु यदि मरण स्थान से लेकर जन्म स्थान तक जाने के लिए सीधी श्रेणि नहीं होती तो स्थान के अनुसार एक, दो या तीन मोड़ लेता है। प्रत्येक मोड़ में एक समय लगता है। अतः एक मोड़े वाली गति में दूसरे समय में जन्म स्थान पर पहुँचता है, दो मोड़े वाली गति में तीसरे समय में और तीन मोड़े वाली गति में चौथे समय में अपने जन्म स्थान पर पहुंच जाता है। सूत्र में आये ‘च' शब्द से यह अर्थ लेना चाहिए कि संसारी जीव की गति बिना मोड़े वाली भी होती है।
  8. अब मुक्त-जीव की गति बतलाते हैं अविग्रहा जीवस्य ॥२७॥ अर्थ- मुक्त-जीव की गति मोड़े रहित होती है। अर्थात् मुक्त-जीव श्रेणी के अनुसार ऊपर गमन करके एक समय में ही सिद्धक्षेत्र में जाकर ठहर जाता है। English - The movement of a liberated soul is straight upwards without a bend. शंका - सूत्र में तो केवल 'जीव' कहा है, फिर उसका अर्थ मुक्तजीव कैसे ले लिया ? समाधान - आगे के सूत्र में ‘संसारी’ का ग्रहण किया है, अतः इस सूत्र में जीव शब्द से मुक्त जीव लेना चाहिए।
  9. अब यह बताते हैं कि जीव और पुद्गलों का गमन किस क्रम से होता है- अनुश्रेणि गतिः ॥२६॥ अर्थ - लोक के मध्य से लेकर ऊपर, नीचे और तिर्यक् दिशा में आकाश के प्रदेशों की सीधी कतार को श्रेणी कहते हैं। जीवों और पुद्गलों की गति आकाश के प्रदेशों की पंक्ति के अनुसार ही होती है, पंक्ति को लाँघ कर विदिशाओं में गमन नहीं होता। English - Transit takes place in rows (straight lines) in space. शंका - यहाँ तो जीव का अधिकार है, पुद्गल का ग्रहण यहाँ कैसे किया ? समाधान - यहाँ ‘विग्रहगतौ कर्मयोगः' सूत्र से गति का अधिकार है। फिर इस सूत्र में ‘गति' पद का ग्रहण पुद्गल का ग्रहण करने के लिए ही किया गया है। तथा आगे ‘अविग्रहा जीवस्य' इस सूत्र में जीव का अधिकार होते हुए जो जीव का ग्रहण किया है, उससे भी यही अर्थ निकलता है कि यहाँ पुद्गल की गति भी बतलायी गयी है। विशेषार्थ - यद्यपि यहाँ जीव और पुद्गल की गति श्रेणी के अनुसार बतलायी है, किन्तु इतना विशेष है कि सभी जीव पुद्गलों की गति श्रेणी के अनुसार नहीं होती। जिस समय जीव मर कर नया शरीर धारण करने के लिए जाता है, उस समय उसकी गति श्रेणी के अनुसार ही होती है। तथा पुद्गल का शुद्ध परमाणु जो एक समय में चौदह राजु गमन करता है, वह भी श्रेणी के अनुसार ही गमन करता है। शेष गतियों के लिए कोई नियम नहीं है।
  10. विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥२५॥ अर्थ - 'विग्रह' शब्द के दो अर्थ हैं। विग्रह अर्थात् शरीर, शरीर के लिए गमन करने को विग्रहगति कहते हैं। English - In transit from one body to another, there is the vibration of the karmic body only. अथवा विरुद्ध ग्रहण करने को विग्रहगति कहते हैं। इसका आशय यह है कि संसारी जीव हमेशा कर्म और नोकर्म को ग्रहण करता रहता है, किन्तु विग्रहगति में कर्म पुद्गलों का तो ग्रहण होता है, नोकर्म पुद्गलों का ग्रहण नहीं होता। इसलिए उसको विरुद्ध ग्रहण कहा है और विरुद्ध ग्रहण पूर्वक जो गमन होता है, उसे विग्रहगति कहते हैं तथा कार्मण शरीर को कर्म कहते हैं; उस कार्मण शरीर के द्वारा जो आत्मा के प्रदेशों में कम्पन होता है, उसको कर्मयोग कहते हैं। अतः सूत्र का अर्थ हुआ - विग्रहगति में कर्मयोग होता है। उस कर्मयोग के द्वारा ही जीव नवीन कर्मों को ग्रहण करता है तथा मृत्यु स्थान से अपने जन्म लेने के नये स्थान तक जाता है।
  11. अब संज्ञी जीव का स्वरूप बतलाते हैं- संज्ञिनः समनस्काः ॥२४॥ अर्थ - मन सहित जीवों को संज्ञी कहते हैं, तथा मन रहित जीव असंज्ञी कहलाते हैं। एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चौ इन्द्रिय जीव तो सब असंज्ञी ही होते हैं। पञ्चेन्द्रियों में देव, नारकी और मनुष्य संज्ञी ही होते हैं, किन्तु तिर्यञ्च मन रहित भी होते हैं। English - The five-sensed beings with the mind (capability to receive and judge the good and the bad) are called sangyi. शंका - मन का काम हित और अहित की परीक्षा करके हित को ग्रहण करना और अहित को छोड़ देना है। इसी को संज्ञा कहते हैं। अतः जब संज्ञा और मन दोनों का एक ही अभिप्राय है तो ‘संज्ञी' और 'समनस्क' का मतलब भी एक ही है। फिर सूत्र में दोनों पद क्यों रखे ? केवल ‘संज्ञिनः' कहने से भी काम चल सकता है ? समाधान - यह आपत्ति ठीक नहीं है; क्योंकि प्रथम तो ‘संज्ञा शब्द के अनेक अर्थ हैं- संज्ञा नाम को भी कहते हैं। अतः जितने नामवाले पदार्थ हैं, वे सब संज्ञी कहलायेंगे। संज्ञा ज्ञान को भी कहते हैं और ज्ञान सभी जीवों में पाया जाता है। अतः सभी संज्ञी कहे जायेंगे। भोजन वगैरह की इच्छा का नाम भी संज्ञा है, जो सभी संसारी जीवों में पायी जाती हैं; अतः सभी संज्ञी हो जायेंगे। इसलिए जिसके मन है, उसी को संज्ञी कहना उचित है। दूसरे, गर्भ अवस्था में, मूर्छित अवस्था में, सुप्त अवस्था में हित अहित का विचार नहीं होता, अतः उस अवस्था में संज्ञी जीव भी असंज्ञी कहे जायेंगे। किन्तु मन के होने से उस समय भी वे संज्ञी ही हैं। अतः संज्ञी और समनस्क दोनों पदों को रखना ही उचित है। शंका - जिस समय जीव पूर्व शरीर को छोड़ कर नया शरीर धारण करने के लिए जाता है, उस समय उसके मन तो रहता नहीं है। फिर वह कैसे गमन करता है ? इस शंका का समाधान करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-
  12. आगे शेष इन्द्रियों के स्वामियों को बतलाते हैं कृमिपिपीलिका-भ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥२३॥ अर्थ - कृमि आदि के एक एक इन्द्रिय अधिक होती हैं। English - The worm, the ant, the bee, and man, etc. have each one more sense than the preceding one. अर्थात् लट, शंख, जोंक वगैरह के स्पर्शन और रसना-ये दो इन्द्रियाँ होती हैं। चींटी, खटमल वगैरह के स्पर्शन, रसना, घ्राण-ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं। भौंरा, मक्खी, डाँस (मच्छर) वगैरह के स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु-ये चार इन्द्रियाँ होती हैं और मनुष्य, पशु, पक्षी वगैरह के पाँचों इन्द्रियाँ होती हैं।
  13. अब स्पर्शन इन्द्रिय किसके होती है, सो बतलाते हैं- वनस्पत्यन्तानामेकम् ॥२२॥ अर्थ - पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय पर्यन्त जीवों के एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है। English - Up to the end of vegetation being (i.e. all immobile beings) possess one sense of touch.
  14. आचार्य इसके समाधान के लिए सूत्र कहते हैं- श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥२१॥ अर्थ - अनिन्द्रिय अर्थात् मन और श्रुत अर्थात् श्रुतज्ञान का विषयभूत पदार्थ। English - Scriptural knowledge is the province of the mind. श्रुतज्ञान का विषयभूत पदार्थ मन का विषय है। अर्थात् श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर मन की सहायता से ही आत्मा श्रुतज्ञान के विषय को जानता है। अतः श्रुतज्ञान का होना मन का प्रमुख काम है। अपने इस काम में वह किसी इन्द्रिय की सहायता नहीं लेता।
  15. आचार्य इसके समाधान के लिए सूत्र कहते हैं-अब इन इन्द्रियों के विषय बतलाते हैं- स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण-शब्दास्तदर्थाः ॥२०॥ अर्थ - स्पर्शन इन्द्रिय का विषय स्पर्श है। रसना इन्द्रिय का विषय रस है। घ्राण इन्द्रिय का विषय गन्ध है। चक्षु इन्द्रिय का विषय रूप है और श्रोत्र इन्द्रिय का विषय शब्द है। ऐसे ये पाँचों इन्द्रियों के पाँच विषय हैं। प्रत्येक इन्द्रिय अपने अपने विषय को ही ग्रहण करती है, एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय के विषय को ग्रहण नहीं कर सकती। English - Touch, taste, smell, color and sound are the objects of the senses. शंका - मन उपयोग में सहायक है या नहीं ? समाधान - सहायक है, बिना मन की सहायता के इन्द्रियाँ अपनेअपने विषयों में प्रवृत्ति नहीं करतीं। शंका - तो क्या मन का काम इतना ही है कि वह इन्द्रियों की सहायता करे, या वह स्वयं भी कुछ जानता है ? आचार्य इसके समाधान के लिए सूत्र कहते हैं- सूत्र 21
  16. इन्द्रियों के नाम निम्न प्रकार हैं स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षुःश्रोत्राणि ॥१९॥ अर्थ - स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र - ये पाँच इन्द्रियों के नाम हैं। English - Touch, taste, smell, sight, and hearing are the five senses. Here the sense refers to the body organ e.g. eyes for the sight. विशेषार्थ - वीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने से तथा अंगोपांग नामकर्म का उदय होने से आत्मा जिसके द्वारा पदार्थ को छूकर जानता है, उसे स्पर्शन इन्द्रिय कहते हैं। जिसके द्वारा आत्मा रस को ग्रहण करता है, उसे रसना इन्द्रिय कहते हैं। जिसके द्वारा गन्ध को ग्रहण करता है, उसे घ्राण इन्द्रिय कहते हैं। जिसके द्वारा देखता है, उसे चक्षु इन्द्रिय कहते हैं और जिसके द्वारा सुनता है, उसे श्रोत्र इन्द्रिय कहते हैं।
  17. आगे भावेन्द्रिय का स्वरूप कहते हैं- लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् ॥१८॥ अर्थ - लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष को लब्धि कहते हैं। इस लब्धि के होने पर ही जीव के द्रव्येन्द्रियों की रचना होती है। तथा लब्धि के निमित्त से आत्मा का जो परिणमन होता है, उसे उपयोग कहते हैं। English - The emotional sense consists of attainment and consciousness. विशेषार्थ - आशय यह है कि जैसे किसी जीव में देखने की शक्ति तो है, किन्तु उसका उपयोग दूसरी ओर होने से वह सामने स्थित वस्तु को भी नहीं देख सकता है। इसी तरह किसी वस्तु को जानने की इच्छा के होते हुए भी यदि क्षयोपशम न हो तो नहीं जान सकता। अतः ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जो आत्मा में जानने की शक्ति प्रकट होती है, वह तो लब्धि है। और उसके होने पर आत्मा जो ज्ञेय पदार्थ की ओर अभिमुख होता है, वह उपयोग है। लब्धि और उपयोग के मिलने से ही पदार्थों का ज्ञान होता है।
  18. अब द्रव्येन्द्रिय का स्वरुप कहते हैं निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥१७॥ अर्थ - निवृत्ति और उपकरण को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। English - The material sense consists of accomplishment of the organ itself and means or instruments along with its protecting environment. कर्म के द्वारा होने वाली रचना - विशेष को निर्वृत्ति कहते हैं। निर्वृत्ति दो प्रकार की होती है-आभ्यन्तर निवृत्ति और बाह्य निर्वृत्ति। उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण विशुद्ध आत्मप्रदेशों की इंद्रियों के आकाररूप रचना होने को आभ्यन्तर निर्वृत्ति कहते हैं तथा उन आत्मप्रदेशों के प्रतिनियत स्थान में पुद्गलों की इन्द्रिय के आकाररूप रचना होने को बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं। निर्वृति का उपकार करने वाले पुद्गलों को उपकरण कहते हैं। उपकरण के भी दो भेद होते हैं - आभ्यन्तर और बाह्य। जैसे नेत्रों में जो काला और सफेद मण्डल है, वह आभ्यन्तर उपकरण है और पलक वगैरह बाह्य उपकरण हैं।
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