आगे बतलाते हैं कि सम्यग्दर्शन कैसे उत्पन्न होता है।
तन्निसर्गादधिगमाद्वा॥३॥
अर्थ - वह सम्यग्दर्शन दो प्रकार से उत्पन्न होता है - स्वभाव से और पर के उपदेश से। जो सम्यग्दर्शन पर के उपदेश के बिना स्वभाव से ही उत्पन्न होता है, उसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं और जो सम्यग्दर्शन पर के उपदेश से उत्पन्न होता है, उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं।
English - That (This right faith) is attained by intuition or by acquisition of knowledge.
विशेषार्थ - दोनों ही सम्यग्दर्शनों की उत्पत्ति का अन्तरंग कारण तो एक ही है, वह है दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम्। उसके होते हुए जो सम्यग्दर्शन दूसरे के उपदेश के बिना स्वयं ही प्रकट हो जाता है, उसे निसर्गज कहते हैं और परोपदेशपूर्वक जो होता है, उसे अधिगमज कहते हैं।
सारांश यह है कि जैसे पुरानी किंवदन्ती के अनुसार कुरुक्षेत्र में बिना ही प्रयत्न के सोना पड़ा हुआ मिल जाता है, वैसे ही किसी दूसरे पुरुष के उपदेश के बिना, स्वयं ही जीवादि तत्त्वों को जानकर जो श्रद्धान होता है, वह निसर्गज सम्यग्दर्शन है और जैसे सोना निकालने की विधि को जानने वाले मनुष्य के प्रयत्न से खान से निकाला हुआ स्वर्ण पाषाण सोना रूप होता है। वैसे ही दूसरे पुरुष के उपदेश की सहायता से जीवादि पदार्थों को जानकर जो श्रद्धान होता है, वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है।
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