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  1. वक्ता / गायक / प्रस्तुतकर्ता: आचार्य विद्यासागर जी
    आचार्यश्री के मुखारविंद से सुनें मूकमाटी महाकाव्य के चयनित अंश भाग 3
  2. वक्ता / गायक / प्रस्तुतकर्ता: आचार्य विद्यासागर जी
    आचार्यश्री के मुखारविंद से सुनें मूकमाटी महाकाव्य के चयनित अंश भाग 2
  3. वक्ता / गायक / प्रस्तुतकर्ता: आचार्य विद्यासागर जी
    आचार्यश्री के मुखारविंद से सुनें मूकमाटी महाकाव्य के चयनित अंश
  4. यशवंत लोढ़ा बिरला समूह ने लिया आचार्य श्री का आशीर्वाद
  5. प्रस्तुत सूत्रग्रन्थ जैन साहित्य का आद्य सूत्रग्रन्थ तो है ही, संस्कृत जैन साहित्य का भी यह आद्य ग्रन्थ है। उस समय तक जैन साहित्य प्राकृत भाषा में ही पाया जाता था तथा उसी में नये साहित्य का सृजन होता था। इस ग्रन्थ के रचयिता ने संस्कृत भाषा में रचना करने का ओंकार किया और समस्त जैनसिद्धान्त को सूत्रों में निबद्ध करके गागर में सागर को भरने की कहावत को चरितार्थ कर दिखाया। यह संकलन इतना सुसम्बद्ध और प्रामाणिक साबित हुआ कि भगवान् महावीर की द्वादशाङ्ग वाणी की तरह ही यह जैनदर्शन का आधार स्तम्भ बन गया। न्यायदर्शन में न्याय सूत्रों को, वैशेषिक दर्शन में वैशेषिक सूत्रों को मीमांसा दर्शन में जैमिनी सूत्रों को, वेदान्त दर्शन में वादरायण सूत्रों को और योग दर्शन में योग सूत्रों को जो स्थान प्राप्त है, वही स्थान जैनदर्शन में इस सूत्रग्रन्थ को प्राप्त है। जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों में इसकी एक-सी मान्यता और आदर है। दोनों सम्प्रदायों के प्रमुख आचार्यों ने इस पर महत्त्वपूर्ण टीकाग्रन्थ रचे हैं। इसके ‘प्रमाणनयैरधिगमः' सूत्र को आधार बनाकर अनेक दार्शनिकों ने प्रमाणशास्त्र का विवेचन किया है। दिगम्बर जैनों में तो इसके पाठमात्र से एक उपवास का फल बतलाया है। यथा "दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थे पठिते सति। फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुङ्गवैः।'' अर्थात् दस अध्याय प्रमाण तत्त्वार्थ का पाठ करने पर उपवास का फल होता है, ऐसा मुनिश्रेष्ठों ने कहा है। १. नाम - इस ग्रन्थ का प्रथम सूत्र ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' है, जिसके द्वारा इसमें मोक्ष का मार्ग बतलाया गया है, यही इसका प्रधान विषय है। इसी से इसको मोक्षशास्त्र भी कहते हैं। तथा दूसरा सूत्र है- ‘तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।' इसमें तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाकर आगे दसों अध्यायों में सात तत्त्वों का ही विवेचन क्रमवार किया है। प्रथम चार अध्यायों में जीव तत्त्व का, पाँचवें अध्याय में अजीव तत्त्व का, छठे और सातवें अध्याय में आस्रव तत्त्व का, आठवें अध्याय में बन्ध तत्त्व का, नौवें अध्याय में संवर और निर्जरा तत्त्व का तथा दसवें अध्याय में मोक्ष तत्त्व का वर्णन है। इस पर से इस ग्रन्थ का वास्तविक नाम तत्त्वार्थ है। यही इसका मूल नाम है; क्योंकि इस ग्रन्थ की सबसे महत्त्वपूर्ण तीन टीकाओं में से पहली टीका सर्वार्थसिद्धि को तत्त्वार्थवृत्ति, दूसरी टीका को तत्त्वार्थवार्तिक, तीसरी को तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक नाम उनके रचयिताओं ने ही दिया है। तथा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के रचयिता आचार्य विद्यानन्दि जी ने तो अपनी आप्तपरीक्षा के अन्त में ‘तत्त्वार्थशास्त्र' नाम से ही इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है। चूंकि यह ग्रन्थ सूत्ररूप में है इसलिए ‘तत्त्वार्थसूत्र' नाम से ही इसकी ख्याति है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी इसी नाम से इसकी ख्याति है। इस सम्प्रदाय में जो सूत्र पाठ प्रचलित है, उस पर एक भाष्य भी है, जिसे स्वोपज्ञ कहा जाता है। उस भाष्य के आरम्भिक श्लोकों में तथा प्रशस्ति में भी उसका नाम ‘तत्त्वार्थाधिगम' दिया हुआ है। इससे इसे तत्त्वार्थाधिगमसूत्र भी कहते हैं। २ - दो तरह के सूत्रपाठ - इस सूत्रग्रन्थ के दो प्रकार के सूत्रपाठ उपलब्ध हैं - एक सूत्रपाठ दिगम्बर मान्य है और दूसरा सूत्रपाठ श्वेताम्बर मान्य प्रस्तुत संस्करण में जो सूत्रपाठ है वह दिगम्बर मान्य है। इस सूत्रपाठ के दसों अध्यायों में सूत्रसंख्या क्रमशः इस प्रकार है- ३३+५३+३९+४२+४२+२७+३९+२६+४७+९=३५७ कुल संख्या। श्वेताम्बर सूत्रपाठ के दसों अध्यायों में सूत्रसंख्या क्रमशः इस प्रकार है- ३५+५२+१८+५३+४४+२६+३४+२६+४९+७=३४४। प्रत्येक अध्याय के बहुत से सूत्रों में जहाँ अत्यधिक साम्यता है, वहाँ कुछ अन्तर भी है। वह अन्तर कहीं तो शाब्दिक है और कहीं सैद्धान्तिक। किन्तु सैद्धान्तिक अन्तर कम है और शाब्दिक अन्तर अधिक है। दोनों सूत्रपाठों में ऐसे भी अनेक सूत्र हैं जो एक में हैं और दूसरे में नहीं हैं। इस दृष्टि से तीसरा अध्याय उल्लेखनीय है। क्योंकि दिगम्बर सूत्र पाठ में इस अध्याय में ३९ सूत्र हैं जबकि श्वेताम्बर सूत्रपाठ में १८ ही सूत्र हैं, जो कि अपूर्ण से जान पड़ते हैं। किन्तु श्वेताम्बर सूत्रपाठ पर जो एक भाष्य है, जिसे सूत्रकार का ही कहा जाता है, उसके द्वारा सूत्रों की कमी की पूर्ति हो जाती है। ३. दोनों सूत्रपाठों पर कुछ उल्लेखनीय टीकाएँ - दिगम्बर सूत्रपाठ पर सबसे पहली टीका आचार्य पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि है। यह टीका सबसे प्राचीन है। आचार्य पूज्यपाद का समय ईसा की पाँचवीं शती है। इसके बाद की दूसरी उल्लेखनीय टीका अकलंक देव का तत्त्वार्थवार्तिक है। इसके अवलोकन से पता चलता है कि इस वार्तिकग्रन्थ में पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अच्छा उपयोग हुआ है। अकलंक देव का समय मैंने ई० ६२० से ६८० तक निर्धारित किया था। किन्तु न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजी ने उसमें एक शताब्दी बढ़कर ७२० से ७८० तक निर्धारित किया। अब न्यायाचार्य जी को अपनी भूल ज्ञात हो गयी है और आशा है वे भी उसी निर्णय पर पहुँचेंगे जिस पर मैं पहुँच चुका हूँ। तीसरी महत्त्वपूर्ण टीका विद्यानन्द की तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक है। पं० दरबारीलालजी कोठिया ने इनका समय ई० ७७५ से ८४० तक निर्धारित किया है। श्वेताम्बर सूत्रपाठ की सबसे प्रथम टीका तो वह भाष्य ही है, जिसे सूत्रकारकृत कहा जाता है। श्वेताम्बराचार्यों ने इस पर जो टीकाएँ रची हैं, वे केवल सूत्रपाठ पर नहीं रचीं, बल्कि सूत्रपाठ और भाष्य को एक ग्रन्थ मानकर उसी पर अपनी टीकाएँ रची हैं। सबसे प्रथम टीका आचार्य सिद्धसेनगणी की है। यह बहुत विस्तृत है। इनका समय आठवीं शताब्दी माना जाता है। अपनी इस टीका में गणी जी ने अकलंकदेव के सिद्धिविनिश्चय नामक ग्रंथ का उल्लेख किया है। अतः यह निश्चित है कि गणी जी की उक्त टीका तत्त्वार्थवार्तिक के बाद ही बनी है। ४. कर्ता श्वेताम्बर सम्प्रदाय मान्य तत्त्वार्थाधिगम भाष्य को स्वयं सूत्रकारकृत कहा जाता है। उसके अन्त में जो प्रशस्ति है, उसमें रचयिता का नाम उमास्वाति लिखा है। यथा- इदमुच्चैर्नागरवाचकेन सत्त्वानुकम्पया दृब्धम्। तत्त्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ॥५॥ अर्थात् उच्च नागर शाखा के उमास्वाति वाचक ने जीवों पर दया करके तत्त्वार्थाधिगम नाम के शास्त्र को रचा। दिगम्बर सम्प्रदाय में मूल तत्त्वार्थसूत्र की प्रतियों के अन्त में जो दो-तीन श्लोक जोड़ दिये गये हैं, उनमें से एक इस प्रकार है- तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम्। वन्दे गणीन्द्रसंजातमुमास्वामी मुनीश्वरम्॥ अर्थात्-तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता, गृद्धपिच्छ से युक्त, गणीन्द्र संजात, उमास्वामी मुनीश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। नगर ताल्लुके के एक दिगम्बर शिलालेख संख्या ४६ में लिखा है| तत्त्वार्थसूत्रकर्तारमुमास्वातिमुनीश्वरम्। श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम्॥ इसमें तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता का नाम उमास्वाति बतलाया है और उन्हें श्रुतकेवलिदेशीय लिखा है। सम्भवतः ‘गणीन्द्र संजात' का मतलब भी श्रुतकेवलीदेशीय ही जान पड़ता है। श्रवण बेलगोला के शिलालेखों में यह श्लोक पाया जाता है- अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिच्छः । तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी॥ अर्थात् कुन्दकुन्द के वंश में गृद्धपिच्छाचार्य उमास्वाति मुनीश्वर हुए। उस समय समस्त पदार्थों का ज्ञाता उनके समान दूसरा नहीं। शिलालेख संख्या १०८ में लिखा है- अभूदुमास्वाति मुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी। सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुंगवेन॥ अर्थात् - आचार्य कुन्दकुन्द के पवित्र वंश में सकलार्थ के जानने वाले उमास्वाति मुनि हुए जिन्होंने जिन प्रणीत द्वादशांग वाणी को सूत्रों में निबद्ध किया। इस तरह दिगम्बर परम्परा के उक्त उल्लेखों में तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता का नाम उमास्वामी अथवा उमास्वाति बतलाया है और उन्हें गृद्धपिच्छाचार्य तथा श्रुतकेवलीदेशीय लिखा है तथा कुन्दकुन्दाचार्य के वंश में हुआ कहा है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि दिगम्बर परम्परा के उक्त उल्लेख प्रायः ११ वी, १२ वीं शताब्दी के बाद के हैं। अतः यह जानना जरूरी हो जाता है कि उससे पूर्व का भी कोई उल्लेख है या नहीं ? आचार्य विद्यानन्दजी ने तत्त्वार्थसूत्र पर तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक रचते हुए आरम्भ में एक वाक्य दिया है- “एतेन गृद्धपिच्छाचार्य पर्यन्त मुनि सूत्रेण व्यभिचारिता निरस्ता।'' यहाँ गृद्धपिच्छाचार्य मुनिसूत्र से मतलब तत्त्वार्थसूत्र से है। अतः आचार्य विद्यानन्दि गृद्धपिच्छाचार्य को तत्त्वार्थसूत्र का रचयिता बतलाते हैं तथा आचार्य वीरसेन स्वामी भी अपनी धवला टीका में तत्त्वार्थसूत्र को गृद्धपिच्छाचार्य की कृति कहते हैं। ये दोनों ही विद्वान् लगभग समकालीन हैं। आचार्य वीरसेन स्वामी ने शक सम्वत् ७३८ (सन् ८१६ ई०) में अपनी जयधवला टीका समाप्त की है और लगभग यही समय विद्यानन्द का है। अतः आठवीं-नौवीं शताब्दी का यह उल्लेख उक्त उल्लेखों से प्राचीन है। यद्यपि उक्त उल्लेखों में भी तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता को गृद्धपिच्छाचार्य लिखा है, किन्तु उसमें उसका नाम उमास्वाति अथवा उमास्वामी बतलाया है, जबकि इन दोनों आचार्यों ने इस विषय में कुछ भी नहीं लिखा। जहाँ तक हम जानते हैं, इन दोनों प्रामाणिक उल्लेखों के सिवा अन्य कोई प्राचीन दिगम्बर उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता के विषय में अभी तक हमारे देखने में नहीं आया। अत: इनके आधार पर हम इतना ही कह सकते हैं कि आठवीं नौंवी शताब्दी में दिगम्बर सम्मत तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता गृद्धपिच्छाचार्य माने जाते थे। उमास्वाति नाम के साथ जो गृद्धपिच्छाचार्य शब्द का उल्लेख शिलालेखों आदि में पाया जाता है, वह बाद का है। इस विषय पर और भी प्रकाश डालने के लिये तत्त्वार्थवार्तिक के अन्तरंग पर दृष्टि डालना आवश्यक है। उससे पहले यहाँ हम दिगम्बर और श्वेताम्बर सूत्रपाठ के कुछ सूत्रों का भेद दिखला देना आवश्यक समझते हैं, क्योंकि आगे की चर्चा से उनका सम्बन्ध है। १.तत्त्वार्थवार्तिक (पृ० ५५) में यह शंका उठायी गयी है कि नारक शब्द का पूर्व निपात होना चाहिए। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह शंका श्वेताम्बर सूत्रपाठ के ‘नारक देवानाम्’ पद को लक्ष्य में रखकर उठायी गयी है। २.तत्त्वार्थवार्तिक (पृ० ७९) में शंका उठायी गयी है कि ‘जीवभव्याभव्यत्वानि' सूत्र में आदि पर होना चाहिये। यह शंका भी श्वेताम्बर सूत्रपाठ को लक्ष्य में रखकर उठायी गयी जान पड़ती है। ३.तत्त्वार्थवार्तिक (पृ. ९२) में शंका उठायी गयी है कि ‘तदर्थाः यहाँ समास नहीं हो सकता। यह शंका भी ‘तेषामर्थाः' इस श्वेताम्बर सूत्रपाठ को लक्ष्य में रखकर उठायी गयी जान पड़ती है। इसी तरह ऊपर जो सूत्र दिये गये हैं, उन सभी को लक्ष्य करके तत्त्वार्थवार्तिक में शंका उठाकर दिगम्बर सूत्रपाठ को ही ठीक ठहराया गया है। किन्तु इससे भी इस बात की पूर्ण पुष्टि नहीं होती कि ये शंकाएँ श्वेताम्बर सूत्रपाठ को लक्ष्य में रखकर ही उठायी गयी हैं, क्योंकि वार्तिककार ने यह शंकाएँ उठाते हुए पाठभेद का उल्लेख नहीं किया है। अतः नीचे दो तीन ऐसे प्रमाण दिये जाते हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि श्वेताम्बर पाठभेद को लक्ष्य में रखकर ही ये शंकाएँ की गयी हैं। १. तत्त्वार्थवार्तिक (पृ० १०१, सूत्र ३३) में लिखा है - “केचित् पोतजा इति पठन्ति।" अर्थात् कोई लोग पोत के स्थान में ‘पोतज' पढ़ते हैं। यह स्पष्ट ही श्वेताम्बर सूत्रपाठ की ओर संकेत है, क्योंकि उसी में ‘जराय्वण्डपोतजानां गर्भः' यह पाठ है। २. तत्त्वार्थवार्तिक (पृ० ११३) में तीसरे अध्याय के प्रथम सूत्र के विषय में शंका की गयी है - “केचिदत्र पृथुतरा इति पठन्ति।" अर्थात् कुछ लोग इस सूत्र में ‘सप्ताधोऽधः' के बाद ‘पृथुतरा:' पढ़ते हैं। यह स्पष्ट ही श्वेताम्बर पाठ ‘सप्ताधोऽधः पृथुतरा' पर आपत्ति की गयी है। ३. तत्त्वार्थवार्तिक (पृ०२४२) पर पाँचवें अध्याय के ‘‘बन्धेऽधिकौ परिणामिकौ" सूत्र का व्याख्यान करते हुए अकलंकदेव ने लिखा है बंधे समाधिकौ पारिणामिकौ इति अपरे सूत्रं पठन्ति' अर्थात् दूसरे लोग इस सूत्र को इस प्रकार से पढ़ते हैं। यह पाठभेद एक मौलिक मतभेद को लिए हुए है। वह मतभेद यह है कि दिगम्बर परम्परा में तो सजातीय परमाणु हो या विजातीय परमाणु हो, बँधने वाले परमाणुओं में दो गुण का अन्तर होना जरूरी है। अर्थात् एक परमाणु दो गुण वाला हो और दूसरा चार गुण वाला हो, तभी उनमें बन्ध हो सकता है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में यदि सजातीय परमाणु हों, तब तो दो गुण हीनाधिक होना जरूरी है। किन्तु यदि परमाणु विजातीय हों तो समान गुण होने पर ही उनमें बन्ध हो जाता है। जैसे, यदि स्निग्ध स्निग्ध का या रूक्ष रूक्ष का बन्ध हो तो एक में दो गुण और दूसरे में चार गुण होने चाहिए। किन्तु स्निग्ध रूक्ष का बन्ध हो तो दोनों में दो-दो चार-चार गुण होना चाहिये तभी बन्ध होता है। इसी मतभेद के कारण जब दिगम्बर सूत्रपाठ "बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ" है, तब श्वेताम्बर सूत्रपाठबन्धे समाधिकौ-पारिणामिकौ" है। अतः तत्त्वार्थ वार्तिक के उक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि अकलंक देव के सामने एक सूत्रपाठ और भी था। किन्तु वह सूत्रपाठ श्वेताम्बर सम्मत वही सूत्रपाठ था। जो वर्तमान में प्रचलित है या उसका कोई पूर्वज था ? यह प्रश्न विचारणीय है। तत्त्वार्थवार्तिक में प्रथम सूत्र ‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:" की कई उत्थानिकाएँ दी हैं। उनमें से सबसे प्रथम उत्थानिका, जो सूत्र से पहले दी गई है, वह तो सर्वार्थसिद्धि को लक्ष्य में रखकर दी गयी है। किन्तु सूत्र के बाद में भी उसका व्याख्यान करने से पहले उत्थानिका दी गयी है, जो इस प्रकार है। “अपरे आरातीयपुरुषशक्त्यपेक्षत्वात् सिद्धान्तप्रक्रियाऽऽ-विष्करणार्थ मोक्षकारणनिर्देशसम्बन्धेन शास्त्रानुपूर्वी रचयितुमन्विच्छन्नि-दमवोचददिति आचक्षते।'' अर्थात् - दूसरों का कहना है कि शास्त्र रचना आरातीय पुरुषों की शक्ति की अपेक्षा रखती है। अतः सिद्धान्त की प्रक्रिया को प्रकट करने के लिये मोक्ष के कारणों का निर्देश करते हुए शास्त्र की आनुपूर्वी को रचने की इच्छा करने वाले सूत्रकार ने यह सूत्र कहा। आशय यह है कि अकलंकदेव प्रथम सूत्र का व्याख्यान करने से पहले यह बतलाना चाहते हैं कि यह सूत्र क्यों कहा? तत्त्वार्थसूत्र की प्राचीन टीका सर्वार्थसिद्धि में तो यह कहा है कि मोक्ष की प्राप्ति के उपायों को लेकर विभिन्न मतों में विवाद है। कोई ज्ञान से ही मुक्ति मानता है तो कोई चारित्र से ही मुक्ति मानता है। अतः तीनों को ही मुक्ति का मार्ग बतलाने के लिए सूत्रकार ने प्रथम सूत्र कहा है। यही बात अकलंक देव ने भी कही है। किन्तु ‘अपरे' करके जो दूसरी उत्थानिका दी गयी वह किसकी है? श्वेताम्बर सम्मत सूत्रपाठ पर जो भाष्य है, उसे सूत्रकार रचित ही कहा जाता है। उसमें प्रथम सूत्र से पहले कुछ कारिकाएँ हैं। उन कारिकाओं में से २१ में तो वीर प्रभु को वर्णन पूर्वक नमस्कार किया है। २२ वीं कारिका में शिष्यों के हित के लिए अर्हद्वचनैकदेश लघुग्रन्थ तत्त्वार्थाधिगम को कहने की प्रतिज्ञा की है। आगे कुछ कारिकाओं में जिनवचन महादधि की महत्ता बतलायी है। ३० वीं कारिका में श्रेय का उपदेश करना चाहिये ऐसा कहा है। अन्तिम कारिका इस प्रकार है नर्ते च मोक्षमार्गाद् हितोपदेशोऽस्ति जगति कृत्स्नेऽस्मिन्। तस्मात् परमिदमेवेति मोक्षमार्ग प्रवक्ष्यामि ॥३१॥ अर्थात् “इस समस्त जगत् में मोक्षमार्ग को छोड़कर अन्य कोई हितोपदेश नहीं है, अतः उत्कृष्ट हितोपदेश जो मोक्षमार्ग है, उसे कहता हूँ।" अतः तत्त्वार्थ वार्तिककार ने ‘अपरे' करके जो उत्थानिका दी है, वह तत्त्वार्थभाष्य में भी नहीं मिलती। उक्त उत्थानिका के बाद ‘आचक्षत से आगे अकलंकदेव लिखते हैं- "नात्र शिष्याचार्यसम्बन्धो विवक्षितः। किन्तु संसारसागरनिमग्नानेकप्राणिगणाभ्युज्जिहीर्षा प्रत्यागूर्णोऽन्तरेण मोक्ष-मार्गोपदेशं हितोपदेशो दुःप्राप इति निश्चित्य मोक्षमार्गव्याख्यासुरिदमाह।'' अर्थात् यहाँ शिष्य और आचार्य का सम्बन्ध विवक्षित नहीं है। किन्तु संसार सागर में निमग्न अनेक प्राणिगणों के उद्धार के लिये उद्यत आचार्य ने मोक्षमार्ग के उपदेश के बिना हितोपदेश दुष्प्राप्य है, ऐसा निश्चय करके यह सूत्र कहा है। यहाँ ‘‘अन्तरेण मोक्ष मार्गोपदेशं हितोपदेशो दु:पापः" यद्यपि यह वाक्य भाष्य कारिका के ‘‘नर्ते च मोक्षमार्गाद् हितोपदेशोऽस्ति'' इस अंश का स्मरण करा देता है। किन्तु प्रथम तो भाष्य में इसके पूर्व का भाग नहीं है, दूसरे भाष्यकार ने इस ग्रन्थ को शिष्य हित के लिए बनाने का निर्देश किया है। अतः यदि जरा देर के लिये मान भी लिया जाय कि उत्थानिका के अन्तिम शब्द भाष्य की ओर संकेत करते हैं फिर भी यह जिज्ञासा तो बनी ही रहती है कि उक्त ‘अपरे' इत्यादि उत्थानिका का संकेत किस ओर है? क्या तत्त्वार्थसूत्र की कोई दूसरी वृत्ति अकलंक देव के सामने थी ? हमारी इस आशंका की पुष्टि तत्त्वार्थ वार्तिक के एक दूसरे स्थल से भी होती है। पाँचवें अध्याय के चौथे सूत्र का व्याख्यान करते हुए (पृष्ठ १९७) अकलंकदेव लिखते हैं- “स्यान्मतं वृत्तावुक्तमवस्थितानि धर्मादीनि न हि कदाचित्पंचत्वं व्यभिचरन्तीति ततः षड् द्रव्याणीत्युपदेशस्य व्याघातः।” अर्थात् ‘‘वृत्ति में कहा है धर्म आदि द्रव्य अवस्थित हैं अर्थात् कभी भी पाँचपने को नहीं छोड़ते हैं। कुछ विद्वानों का विचार है कि यह वृत्ति तत्त्वार्थ भाष्य है; क्योंकि उसमें इसी सूत्र के व्याख्यान में लिखा है "अवस्थितानि च न कदाचित्पञ्चत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति।'' किन्तु हमारा विचार है कि यह वृत्ति तत्त्वार्थभाष्य से भिन्न कोई दूसरी ही होनी चाहिए और प्रथम सूत्र की उक्त उत्थानिका भी उसी की होगी। यहाँ तत्त्वार्थ भाष्य और उसकी सिद्धसेन गणिकृत टीका के सम्बन्ध में भी थोड़ा प्रकाश डालना आवश्यक है। तत्त्वार्थभाष्य की आरम्भिक कारिकाओं में एक कारिका इस प्रकार महतोऽति महाविषयस्य दुर्गमग्रन्थभाष्यपारस्य। कः शक्तः प्रत्यासं जिनवचनमहोदधेः कर्तुम् ॥२३॥ इसमें जिनवचन रूपी महोदधि की महत्ता बतलाते हुए उसे ‘दुर्गम ग्रन्थ भाष्य पार' बतलाया है। टीकाकार ने इस पद का व्याख्यान इस प्रकार किया है- “दुर्गमो ग्रन्थभाष्ययोः पारो निष्ठाऽस्य। तत्रानुपूर्व्या पदवाक्य सन्निवेशो ग्रन्थः। तस्य महत्त्वादध्ययन-मात्रेणापि दुर्गमः पारः, तस्यैवार्थविवरणं भाष्यं, तस्यापि नयवादानुगमत्वादलब्धपारः॥'' अर्थात् उस जिनवचन रूपी महोदधि के ग्रन्थों और उन ग्रन्थों के अर्थ को बतलाने वाले जो उनके भाष्य हैं, उनका पार पाना कठिन है। यहाँ तत्त्वार्थ भाष्यकार ने आगम ग्रन्थों के साथ उनके भाष्यों का भी उल्लेख किया है। अतः यह स्पष्ट है कि तत्त्वार्थ भाष्य की रचना भाष्यों के बाद में ही हुई। भाष्यों का रचनाकाल विक्रम की ७ वीं शती है। अतः तत्त्वार्थ भाष्य सातवीं शती के पहले की रचना नहीं हो सकती। तत्त्वार्थ भाष्य की आद्य टीका सिद्धसेन गणिकृत है। सिद्धसेन गणि ने अपनी इस टीका में सिद्धिविनिश्चय नामक ग्रंथ के सृष्टि परीक्षा नामक प्रकरण को देखने का उल्लेख किया है। अकलंक देवकृत सिद्धि-विनिश्चय ग्रन्थ उपलब्ध है। अतः यह निश्चित है कि सिद्धिसेन गणी अकलंक के बाद में हुए हैं तथा उनकी टीका के कुछ स्थलों के देखने से यह भी पता चलता है कि उन्होंने अकलंकदेव का तत्त्वार्थ वार्तिक देखा था। उदाहरण के लिए १. तत्त्वार्थवार्तिक को प्रारम्भ करते हुए शंका की गयी है कि मोक्ष का उपदेश पहले क्यों नहीं किया, वह सब पुरुषार्थों में प्रधान है? इसका उत्तर दिया गया कि मोक्ष में किसी को विवाद नहीं है, विवाद कारण में है। और इतना कहकर पाटलीपुत्र मार्ग का उदाहरण दिया है। यथा "मोक्षोपदेशः पुरुषार्थ प्रधानत्वात्. मोक्षमेव करमान्नाप्राक्षीत् इति चेन्न कार्यविशेष सम्प्रतिपत्तेः कारणं तु प्रति विप्रतिपत्तिः पाटलीपुत्र मार्ग विप्रतिपत्तिवत्॥" गणी जी ने भी प्रथम सूत्र का व्याख्यान करते हुए यही शंका उठाई है और उसका समाधान भी इन्हीं शब्दों में किया है। यथा- “कस्मात् हेतव एव मोक्षस्य कथ्यन्ते न पुनः स एव प्रधानत्वादादौ प्रदर्श्यते...सत्यमसौ प्रधानः तथापि तु तत्र प्रायो वादिनां नास्ति विप्रतिपत्तिः...तद्धेतुषु प्रायो विसंवादः'' इतना ही नहीं, इसी सूत्र के व्याख्यान में ‘‘पाटलीपुत्रगामि मार्गवत्" दृष्टान्त का भी प्रकारान्तर से उपयोग किया है। २. तत्त्वार्थवार्तिक में दो वार्तिक इस प्रकार हैं- "एषां पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम्। उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभः॥" ये ही वाक्य तत्त्वार्थ भाष्य में भी हैं। गणीजी ने इनका जो व्याख्यान किया है तथा 'अपरे' करके जिस व्याख्यान्तर का निर्देश किया है उन्हें देखने से तत्त्वार्थ वार्तिक का स्मरण बरबस हो आता है। अतः यह निश्चित है कि सिद्धसेन गणी विक्रम की आठवीं शताब्दी से पहले नहीं हुए। तथा दसवीं शताब्दी के विद्वान् शीलांक और अभयदेव ने उनकी तत्त्वार्थ टीका से उद्धरण दिये हैं। अतः वे विक्रम की आठवीं और दसवीं शताब्दी के मध्यवर्ती समय में हुए हैं। अतः विक्रम की सातवीं शती के बाद में रचे हुए भाष्य पर सिद्धसेन को टीका रचे जाने में कोई अनुपपत्ति खड़ी नहीं होती। इसके विपरीत यदि भाष्य को मूल ग्रंथकार की रचना माना जाता है तो दिगम्बर सम्मत सूत्रपाठ पर सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक जैसी महत्त्वपूर्ण टीकाओं के रचे जाने पर भी भाष्य पर एक भी तत्कालीन टीका का न मिलना उसकी स्थिति में सन्देह पैदा करता है। कहा जा सकता है कि तत्त्वार्थवार्तिक के अन्त में ‘उक्तं च' करके जो कारिकाएँ पायी जाती हैं, वे तत्त्वार्थभाष्य की हैं, तथा अन्य भी कुछ ऐसे वाक्य मिलते हैं, जो तत्त्वार्थभाष्य के हो सकते हैं ? किन्तु इन सबकी स्थिति सन्देहजनक है; क्योंकि अकलंक देव के सामने जो एक अन्य वृत्ति होने का आभास मिलता है, सम्भव है ये सब उससे लिया गया हो। तत्त्वार्थवार्तिक का एक और भी उल्लेख ध्यान देने योग्य है। पाँचवें अध्याय के “द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" सूत्र का व्याख्यान करते हुए अकलंक देव ने लिखा है- “उतं हि अर्हत्प्रवचने, द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः।'' यह ‘अर्हत्प्रवचन' नामक ग्रन्थ कौन-सा है जो सूत्र रूप है तथा जिसके सूत्र तत्त्वार्थसूत्र के ही समान हैं ? यह एक विचारणीय प्रश्न है। कहा जा सकता है कि सिद्धसेन गणी ने अपनी टीका की पुष्पिकाओं में तत्त्वार्थाधिगम को ‘अर्हत्प्रवचन संग्रह' लिखा है, तथा भाष्यकार ने अपनी कारिकाओं में ‘अर्हद्वचनैकदेशस्य संग्रह' लिखा है। अतः ‘अर्हत्प्रवचन' से अकलंक ने तत्त्वार्थभाष्य का ही उल्लेख किया है। किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि अर्हत्प्रवचन में और अर्हत्प्रवचनसंग्रह में बहुत अन्तर है। प्रत्युत इन उल्लेखों से मेरे मन में एक सन्देह पैदा हुआ है और वह यह है कि यह तत्त्वार्थभाष्य कहीं उस ‘अर्हत्प्रवचन' से ही तो संकलित नहीं है, जिसका उल्लेख अकलंक देव ने किया है ? क्योंकि भाष्य की प्रशस्ति में भाष्यकार ने लिखा है- “अर्हद्वचनं सम्यक्गु रुक्रमेणागतं समवधार्य" अर्थात् गुरुपरम्परा से चले आये हुए ‘अर्हत्वचन' को भले प्रकार अवधारण करके यह ग्रन्थ रचा। तथा आरम्भ में इसे अर्हत्वचन के एक देश का संग्रह बतलाया है। और ‘अर्हद्वचन और ‘अर्हत्प्रवचन' में कोई अन्तर नहीं है। इस पर से इसे ‘अर्हत्प्रवचन संग्रह' कहना भी उचित प्रतीत होता है। अकलंकदेव के द्वारा उल्लिखित ‘अर्हत्प्रवचन' अथवा 'अर्हत्प्रवचन हृदय' नामक ग्रन्थ दिगम्बर सम्मत ही जान पड़ता है। यह भी सम्भव है कि वह उभय सम्प्रदाय को सम्मत हो और दिगम्बर तथा श्वेताम्बर सूत्रपाठों का वही उद्गम स्थान हो । सम्भवतया इसी से सूत्रकार को कोई दिगम्बर सिद्ध करता है तो कोई श्वेताम्बर सिद्ध करता है और कोई यापनीय सिद्ध करता है; जब कि उभय सम्प्रदाय सम्मत कुछ उल्लेखनीय सूत्रों की स्थिति दिगम्बर परम्परा के अधिक अनुकूल है। उदाहरण के लिये सोलहकारण भावना और २२ परीषहों को बतलाने वाले सूत्र उपस्थित किये जा सकते हैं। अस्तु, इतना प्रासंगिक कथन करने के बाद हम पुनः उसी चर्चा पर आते यह स्पष्ट है कि प्रारम्भ से ही तत्त्वार्थसूत्र का जितना समादर दिगम्बर सम्प्रदाय में रहा है, उतना श्वेताम्बर सम्प्रदाय में नहीं रहा। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तो वह पीछे से प्रविष्ट हुआ प्रतीत होता है, जिसका श्रेय सम्भवतः तत्त्वार्थभाष्य के कर्ता को है। भाष्यकार ने अपनी प्रशस्ति में अपना नाम उमास्वाति दिया है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय की प्राचीन माने जाने वाली कल्पसूत्र स्थविरावली और नन्दिसूत्र पट्टावली में उमास्वाति का नाम तक नहीं है। शेष जिन पट्टावलियों में यह नाम है वे सब प्रायः १३ वीं शताब्दी के बाद की हैं। दिगम्बर परम्परा में भी उमास्वामी या उमास्वाति का उल्लेख ११ वी, १२ वीं शताब्दी के बाद ही शिलालेखों में मिलता है। इससे पहले का कोई उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया। तत्त्वार्थसूत्र के आद्य टीकाकार पूज्यपाद देवनंदी ने और अकलंकदेव ने उसके कर्ता का उल्लेख नहीं किया। हाँ, विद्यानन्दिी ने अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में चर्चा करते हुए तत्त्वार्थसूत्र को गृद्धपिच्छाचार्य मुनि का अवश्य बतलाया है, किन्तु उन्होंने भी ग्रन्थ के आरम्भ में या अन्त में कहीं भी उसके कर्ता का उल्लेख नहीं किया है। ईसा की ११वीं शताब्दी के विद्वान् प्रभाचन्द्राचार्य ने सर्वार्थसिद्धि पर तत्त्वार्थवृतिपद नाम से जो टिप्पणी लिखी है, उसमें भी सूत्रकार का उल्लेख नहीं है। १३ वीं शताब्दी के श्री भास्करनन्दी की सुखबोध नाम की वृत्ति में भी सूत्रकार का उल्लेख नहीं है। हाँ, विक्रम की १३ वीं शती के विद्वान बालचन्द्र मुनि की बनायी हुई, कन्नड़ी टीका में उमास्वाति नाम दिया है और साथ ही गृद्धपिच्छाचार्य नाम भी दिया है। इस टीका में तत्त्वार्थसूत्र की उत्पत्ति जिस प्रकार से बतलाई है, उसका सार ‘अनेकान्त' से दिया जाता है सौराष्ट्र देश के मध्य उर्जयंत गिरि के निकट गिरि नगर नाम के पत्तन में आसन्न भव्य, स्वहितार्थी, द्विजकुलोत्पन्न, श्वेताम्बर भक्त सिद्धय्य नाम का एक विद्वान् श्वेताम्बर शास्त्रों का जानने वाला था। उसने ‘दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:' यह सूत्र बनाकर एक पाटिये पर लिख दिया। एक दिन चर्या के लिए श्री गृद्धपिच्छाचार्य उमास्वाति मुनि वहाँ आये और उन्होंने उस सूत्र के पहले ‘सम्यक् पद जोड़ दिया। जब वह विद्वान् बाहर से लौटा और उसने पाटिये पर ‘सम्यक्' शब्द लगा देखा तो वह अपनी माता से मुनिराज के आने का समाचार मालूम करके, खोजता हुआ उनके पास पहुँचा और पूछने लगा- “आत्मा का हित क्या है?'' इसके बाद के प्रश्नोत्तर प्रायः सब वही हैं जो सर्वार्थसिद्धि के आरम्भ में आचार्य पूज्यपाद ने दिये हैं।' प्रभाचन्द्राचार्य ने अपने टिप्पण में प्रश्नकर्ता भव्य का नाम तो सम्भवतः ‘सिद्धय्य' ही दिया है। किन्तु यह कथा नहीं दी। अतः नहीं कहा जा सकता कि यह कथा कहाँ तक ठीक है और इसका आधार क्या है ? फिर भी हमारे जानने में तत्त्वार्थसूत्र का यही एक ऐसा टीकाकार है, जिसने गृद्धपिच्छाचार्य उमास्वाति को सूत्र का कर्ता बतलाया है। श्रवणबेलगोला के जिन शिलालेखों में गृद्धपिच्छाचार्य उमास्वाति का उल्लेख है अथवा उमास्वाति को तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता बतलाया है वे भी लगभग इसी काल के हैं। लगभग इसी समय के आस-पास की रची हुई एक तत्त्वार्थसूत्र की टीका और है जिसका नाम अर्हत्सूत्रवृत्ति है। उसमें आचार्य कुन्दकुन्द को तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता बतलाया है। इतना ही नहीं, तत्त्वार्थसूत्र के एक श्वेताम्बर टिप्पणकार ने भी ऐसा उल्लेख किया है। उसने अपनी टिप्पणी के अन्त में तत्त्वार्थसूत्र के विषय में ‘दुर्वादापहर' नाम से कुछ पद्य देते हुए अपने सम्प्रदाय वालों को दो शिक्षाएँ दी हैं-“एक तो तत्त्वार्थसूत्र के विधाता वाचक उमास्वाति को कोई दिगम्बर अथवा निह्नव न कहने पाये ऐसा यत्न करना चाहिये। दूसरे, कुन्दकुन्द, इडाचार्य (ऐलाचार्य) पद्मनन्दि और उमास्वाति, ये एक ही व्यक्ति के नाम कल्पित करके जो लोग इस ग्रन्थ का आद्यकर्ता कुन्दकुन्द को बतलाते हैं, वह ठीक नहीं है। वह कुन्दकुन्द इस तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता प्रसिद्ध उमास्वाति से भिन्न ही है।'' इस तरह १३ वीं, १४ वीं शती में भी तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता को लेकर मतभेद के उल्लेख मिलते हैं। किन्तु इस मतभेद का कारण ‘गृद्धपिच्छाचार्य नाम ही प्रतीत होता है; क्योंकि आचार्य कुन्दकुन्द की भी गृद्धपिच्छाचार्य नाम से ख्याति थी। इसकी चर्चा डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने प्रवचनसार की प्रस्तावना में की है। इसी की वजह से आचार्य कुन्दकुन्द को भी तत्त्वार्थसूत्र का रचयिता किन्हीं ने मान लिया प्रतीत होता है। अतः इस पर से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि दिगम्बर परम्परा के सूत्रपाठ के रचयिता गृद्धपिच्छाचार्य नाम के कोई आचार्य थे। यही प्राचीन उल्लेख है जिसकी चर्चा ऊपर की है। श्वेताम्बर सूत्रपाठ सहित उमास्वाति के भाष्य का प्रचलन होने पर कालान्तर में गृद्धपिच्छाचार्य और उमास्वाति नाम को भ्रमवश मिला दिया गया हो यह सम्भव है जैसा कि सिद्धान्तशास्त्री पं० फूलचन्द जी का भी मत है। ४. आद्य मंगलश्लोक - यद्यपि पूज्यपाद, अकलंकदेव और विद्यानन्द ने ‘मोक्षमार्गस्य नेतारं' आदि मंगलश्लोक का अपनी टीका के आरम्भ में व्याख्यान नहीं किया। फिर भी विद्यानन्द उसे सूत्रकार का ही मानते हैं जैसा कि आप्तपरीक्षा के "इति तत्त्वार्थशास्त्रादौ मुनीन्द्रस्तोत्रगोचरा" इस उल्लेख से स्पष्ट है। तथा तत्त्वार्थसूत्र के उत्तरकालीन टीकाकार भास्करनन्दि श्रुतसागर आदि ने उसे सूत्रकारकृत मान कर उसका व्याख्यान भी किया है। इसी से हमने भी सूत्रकारकृत मानकर ही ग्रन्थ के आदि में उसे स्थान दिया है। कैलाशचन्द्र शास्त्री
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