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  1. अब सम्यग्दर्शन का लक्षण कहते हैं - तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्॥२॥ अर्थ - जो पदार्थ जिस स्वभाव वाला है, उसका उसी स्वभाव रूप से निश्चय होना तत्त्वार्थ है और तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। English - Belief in substances ascertained as they are is right faith. विशेषार्थ - ‘तत्त्व’ और ‘अर्थ’ इन दो शब्दों के मेल से ‘तत्त्वार्थ' शब्द बना है। तत्त्व शब्द भाव सामान्य का वाचक है। अतः जो पदार्थ जिस रूप में स्थित है, उसका उसी रूप में होना ‘तत्त्व है। और जिसका निश्चय किया जाता है, उसे ‘अर्थ' कहते हैं। अतः तत्त्व रूप अर्थ को तत्त्वार्थ कहते हैं। आशय यह कि तत्त्व का मतलब है भाव और अर्थ का मतलब है भाववान्। अतः न केवल भाव का और न केवल भाववान् का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। किन्तु भाव-विशिष्ट भाववान् का श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं - सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये सराग सम्यग्दर्शन के सूचक हैं। रागादिक की तीव्रता के न होने को प्रशम कहते हैं। संसार, शरीर और भोगों से भयभीत होने का नाम संवेग है। सब प्राणियों को अपना मित्र समझना अनुकम्पा है। आगम में जीवादि पदार्थों का जैसा स्वरूप कहा है, उसी रूप उन्हें मानना आस्तिक्य है। सराग सम्यग्दृष्टि में ये चारों बातें पायी जाती हैं तथा आत्मा की विशुद्धि का नाम वीतराग सम्यग्दर्शन है |
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