अब श्रुतज्ञान का स्वरूप कहते हैं-
श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेक-द्वादशभेदम्॥२०॥
अर्थ - श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है। उसके दो भेद हैं। उनमें से एक भेद के अनेक भेद हैं और दूसरे भेद के बारह भेद हैं।
English - Scriptural knowledge preceded by sensory knowledge is of two kinds, which are of twelve and many subdivisions.
विशेषार्थ - पहले मतिज्ञान होता है। उसके बाद श्रुतज्ञान होता है। बिना मतिज्ञान हुए श्रुतज्ञान नहीं होता। यह बात दूसरी है कि श्रुतज्ञान होने के बाद फिर श्रुतज्ञान हो, किन्तु पहला श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही होता है। उस श्रुतज्ञान के दो भेद हैं- अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट। अंगबाह्य के तो अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं - आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ज्ञातृधर्मकथा अंग, उपासकाध्ययन अंग, अन्त:कृतदशांग, अनुत्तरौपपादिक अंग, प्रश्नव्याकरण अंग, विपाकसूत्र, दृष्टिप्रवाद अंग।
भगवान् तीर्थंकर ने केवलज्ञान के द्वारा सब पदार्थों को जानकर दिव्यध्वनि के द्वारा उपदेश दिया। उनके साक्षात् शिष्य गणधर ने उस उपदेश को अपनी स्मृति में रखकर बारह अंगों में संकलित कर दिया। यह अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान कहा जाता है। किन्तु ये अंग ग्रन्थ महान् और गम्भीर होते हैं। अतः आचार्यों ने अल्पबुद्धि शिष्यों पर दया करके उनके आधार पर जो ग्रंथ रचे, वे अंगबाह्य कहलाते हैं। ये सब अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के भेद हैं। श्रुतज्ञान में उसी की मुख्यता है। परोक्ष प्रमाण का कथन समाप्त हुआ। अब प्रत्यक्ष प्रमाण का वर्णन करते हुए सबसे प्रथम अवधिज्ञान का कथन करते हैं। अवधिज्ञान के दो भेद हैं - भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्त।