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वतन की उड़ान: इतिहास से सीखेंगे, भविष्य संवारेंगे - ओपन बुक प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. इसके समाधान के लिए आगे का सूत्र कहते हैं- अर्पितानर्पितसिद्धेः ॥३२॥ अर्थ - मुख्य को अर्पित कहते हैं और गौण को अनर्पित कहते हैं। मुख्यता और गौणता से ही अनेक धर्म वाली वस्तु का कथन सिद्ध होता है। English - The contradictory characteristics of a substance are established from different points of view. विशेषार्थ - वस्तु में अनेक धर्म हैं। उन अनेक धर्मों में से वक्ता का प्रयोजन जिस धर्म से होता है, वह धर्म मुख्य हो जाता है। और प्रयोजन न होने से बाकी के धर्म गौण हो जाते हैं। किन्तु किसी एक धर्म की प्रधानता से कथन करने का यह मतलब नहीं लेना चाहिए कि वस्तु में अन्य धर्म हैं। ही नहीं। अत: किसी धर्म की प्रधानता और किसी धर्म की अप्रधानता से ही वस्तु की सिद्धि होती है। जैसे, एक देवदत्त नाम के पुरुष में पिता, पुत्र, भाई, जमाई, मामा, भानजा आदि अनेक सम्बन्ध भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से पाये जाते हैं। पुत्र की अपेक्षा वह पिता है। पिता की अपेक्षा पुत्र है। भाई की अपेक्षा भाई है। श्वसुर की अपेक्षा जमाई है। भानजे की अपेक्षा मामा है। और मामा की अपेक्षा भानजा है। इसमें कोई भी विरोध नहीं है। इसी तरह वस्तु सामान्य की अपेक्षा नित्य है और विशेष की अपेक्षा अनित्य है। जैसे घट, घटपर्याय की अपेक्षा अनित्य है, क्योंकि घड़े के फूट जाने पर घटपर्याय नष्ट हो जाती है। और मिट्टी की अपेक्षा नित्य है; क्योंकि घड़े के फूट जाने पर भी मिट्टी कायम रहती है। इसी तरह सभी वस्तुओं के विषय में समझ लेना चाहिए। ऊपर यह बतलाया है कि स्कन्धों की उत्पत्ति भेद, संघात और भेद-संघात से होती है। इसमें यह शंका होती है कि दो परमाणुओं का संयोग हो जाने से ही क्या स्कन्ध बन जाता है? इसका उत्तर यह है कि दो परमाणुओं का संयोग हो जाने पर भी जब तक उनमें रसायनिक प्रक्रिया के द्वारा बन्ध नहीं होता, जो दोनों को एकरूप कर दे, तब तक स्कन्ध नहीं बन सकता। इस पर पुनः यह शंका होती है। कि अनेक पुद्गलों का संयोग होता देखा जाता है, परन्तु उनमें किन्हीं का परस्पर में बन्ध होता है और किन्हीं का बन्ध नहीं होता, इसका क्या कारण है ? इसके समाधान के लिए आगे का कथन करते हैं-
  2. आगे नित्य का स्वरूप बतलाते हैं- तभावाव्ययं नित्यम् ॥३१॥ अर्थ - वस्तु के स्वभाव को तद्भाव कहते हैं और उसका नाश न होना नित्यता है। English - Permanence is indestructibility of the essential nature (quality) of the substance. विशेषार्थ - यद्यपि प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है, किन्तु परिवर्तन के होते हुए भी वस्तु में कुछ ऐसी एकरूपता बनी रहती है, जिसके कारण हम उसे कालान्तर में भी पहचान लेते हैं कि यह वही वस्तु है, जिसे हमने पहले देखा था। उस एकरूपता का नाम ही नित्यता है। आशय यह है कि जैनधर्म में प्रत्येक वस्तु को जब प्रतिसमय परिवर्तनशील बतलाया तो यह प्रश्न पैदा हुआ कि जब प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है तो नित्य कैसे है ? इसका समाधान करने के लिए सूत्रकार ने बतलाया कि नित्य का मतलब यह नहीं है कि जो वस्तु जिस रूप में है, वह सदा उसी रूप में बनी रहे और उसमें (मूलस्वभाव में) कुछ भी परिणमन न हो। बल्कि परिणमन के होते हुए भी उसमें (मूलस्वभाव में) ऐसी एकरूपता का बना रहना ही नित्यता है, जिसे देखकर हम तुरन्त पहचान लें कि यह वही वस्तु है, जिसे पहले देखा था। उक्त कथन का यह अभिप्राय हुआ कि वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है। ऐसी स्थिति में यह शंका होती है कि जो नित्य है, वह अनित्य कैसे है? इसके समाधान के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-
  3. अब सत् का लक्षण कहते हैं- उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् ॥३०॥ अर्थ - जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है, वही सत् है। English - Existence of a substance is characterized by origination (production), disappearance (destruction) and permanence. विशेषार्थ - अपनी जाति को न छोड़कर चेतन या अचेतन द्रव्य में नई पर्याय के होने को उत्पाद कहते हैं। जैसे मिट्टी के पिण्ड में घट पर्याय होती है। पहली पर्याय के नष्ट होने को व्यय कहते हैं। जैसे-घट पर्याय के उत्पन्न होने पर मिट्टी का पिण्ड रूप आकार नष्ट हो जाता है। तथा पूर्वपर्याय का नाश और नई पर्याय का उत्पाद होने पर भी अपने अनादि स्वभाव को न छोड़ना ध्रौव्य है। जैसे पिण्ड आकार के नष्ट हो जाने पर और घट पर्याय के उत्पन्न होने पर भी मिट्टी कायम रहती है। प्रत्येक द्रव्य में ये तीनों धर्म एक साथ पाये जाते हैं, क्योंकि नई पर्याय का उत्पन्न होना ही पहली पर्याय का नाश है और पहली पर्याय का नाश होना ही नई पर्याय का उत्पाद है। तथा उत्पाद होने पर भी द्रव्य वही रहता है। और व्यय होने पर भी द्रव्य वही रहता है। जैसे कुम्हार मिट्टी का लौंदा लेकर और उसको चाक पर रख कर जब घुमाता है तो क्षणक्षण में उस मिट्टी की पहली पहली हालत बदलकर नई नई हालत होती जाती है और मिट्टी की मिट्टी बनी रहती है। ऐसा नहीं है जो मिट्टी की नई हालत तो हो जाये और पहली हालत न बदले। या पहली हालत नष्ट हो जाये और नई हालत पैदा न हो। अथवा इन हालतों के अदलने बदलने से द्रव्य भी और का और हो जाये। यदि केवल उत्पाद को ही माना जाये और व्यय तथा ध्रौव्य को न माना जाये तो नई वस्तु का उत्पन्न होना ही शेष रहा। ऐसी स्थिति में बिना मिट्टी के ही घट बन जायेगा। तथा यदि वस्तु का विनाश ही माना जाय और उत्पाद तथा ध्रौव्य को न माना जाये तो घड़े के फूट जाने पर ठीकरे या मिट्टी कुछ भी शेष न रहेंगे। इसी तरह यदि केवल ध्रौव्य को ही माना जाये और उत्पाद व्यय को न माना जाये तो जो वस्तु जिस हालत में है वह उसी हालत में बनी रहेगी और उसमें किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं हो सकेगा। किन्तु ये सभी बातें प्रत्यक्ष विरुद्ध हैं। प्रत्यक्ष-देखा जाता है कि प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है-उसमें प्रतिसमय रद्दोबदल होती है। फिर भी जो सत् है। उसका सर्वथा विनाश नहीं होता और जो सर्वथा असत् है उसका उत्पाद नहीं होता। तथा परिवर्तन के होते हुए भी वस्तु का मूल-स्वभाव अपरिवर्तित रहता है-जड़ चेतन नहीं हो जाता और न चेतन जड़ हो जाता है। अतः जो सत् है वह उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य स्वरूप ही है। उसे ही द्रव्य कहते हैं।
  4. "मूकमाटी" महाकाव्य निजी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में भी शामिल दिगम्बर जैनाचार्यप्रवर सन्तशिरोमणि श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपनी सुदीर्घ साधना से अर्जित दिव्यज्ञान को गागर में सागर के समान भरकर सन् १९८७ में हिन्दी साहित्य जगत् को अप्रतिम योगदान के रूप में ‘मूकमाटी' महाकाव्य प्रदान किया था। यह कालजयी महाकाव्य अपनी साहित्यिक आभा से जनमानस की चेतना को प्रकाशित कर रहा है व आत्मोत्थान एवं सामाजिक समरसता के दिव्य सन्देश के माध्यम से सुषुप्त चेतना को जाग्रत कर रहा है। ‘मूकमाटी' महाकाव्य की विषयवस्तु पर केन्द्रित होकर मध्यप्रदेश, नई दिल्ली, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा, छत्तीसगढ़ आदि प्रदेशों के अनेक विश्वविद्यालयों में अद्यतन ४डी. लिट्., २४ पी-एच. डी. के शोध प्रबन्ध एवं ६ एम. फिल., २ एम. एड. तथा ५ एम. ए. के लघुशोध प्रबन्ध रूप में ४१ शोधकार्य हो चुके/रहे हैं। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से दीक्षित ज्येष्ठ मुनि श्री समयसागर जी महाराज के साथ मुनि श्री प्रशस्तसागर जी, मुनि श्री मल्लिसागर जी तथा मुनि श्री आनन्दसागर जी महाराज का वर्षायोग-२०१८ विन्ध्य क्षेत्र की सुप्रसिद्ध धर्मनगरी सतना में हो रहा है। संघस्थ मुनि श्री मल्लिसागर जी महाराज की सत्प्रेरणा से श्री रुचिर जैन, ( साईं कृपा, जे. आर. बिरला मार्ग, सन्तोषी माता के पास ) सतना, म. प्र. ने अथक एवं सार्थक प्रयास किया। इसी के परिणामस्वरूप निजी विश्वविद्यालय के रूप में प्रसिद्ध 'श्री कृष्णा विश्वविद्यालय' ने अपने पाठ्यक्रम में अब'मूकमाटी'महाकाव्य को भी शामिल कर लिया है। श्री कृष्णा विश्वविद्यालय, छतरपुर, म. प्र. के कुलसचिव के पत्र क्रमांक १९/एसकेयू/२०१८, दिनांक ०७-०९-२०१८ के अनुसार “सन्त शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा लिखित पुस्तक ‘मूकमाटी' को स्नातकोत्तर उपाधि हिन्दी विषय के पाठ्यक्रम चतुर्थ सेमेस्टर के तृतीय प्रश्नपत्र में वैकल्पिक प्रश्नपत्र 'कोई एक साहित्यकार-आचार्य विद्यासागर' के रूप में पढ़ाये जाने हेतु पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर लिया है।'' "मूकमाटी" महाकाव्य अब तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (उत्तरप्रदेश), पण्डित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़ ), राष्ट्रसन्त तुकड़ोजी महाराज नागपुर विद्यापीठ, नागपुर ( महाराष्ट्र), सौराष्ट्र विश्वविद्यालय, राजकोट (गुजरात), अटलबिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय, भोपाल (म. प्र.), बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल (म. प्र.), विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म. प्र. ) आदि के एम. ए./एम. फिल.-हिन्दी तथा अंग्रेजी आदि के विविध पाठ्यक्रमों में भी ‘मूकमाटी' महाकाव्य सम्मिलित किया जा चुका है। मध्यप्रदेश पाठ्यपुस्तक निगम के लिए मध्यप्रदेश राज्य शिक्षा केन्द्र, भोपाल' द्वारा निर्मित 'कक्षा नवमी' विषयक 'नवनीत- हिन्दी विशिष्ट' नामक पाठ्यपुस्तक २०१८ के संस्करण में 'कविता का स्वरूप एवं विकास' के अन्तर्गत 'पद्य साहित्य का इतिहास' शीर्षक के दसवें पाठ 'विविधा' में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का जीवन परिचय सहित' मूकमाटी'महाकाव्य के पृष्ठ १६९-१७० पृष्ठों पर मुद्रित कविता का चयनित अंश तीसरे पाठ के रूप में स्वाभिमान' नाम से संकलित व प्रकाशित होकर अब मध्यप्रदेश के विद्यार्थियों के ज्ञानार्जन में सहयोगी बनेगा। इसके अतिरिक्त रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर, मध्यप्रदेश भोज ( मुक्त) विश्वविद्यालय, भोपाल, सेज यूनिवर्सिटी, इन्दौर (म.प्र.), बस्तर विश्वविद्यालय, जगदलपुर ( छत्तीसगढ़ ) इत्यादि के पाठ्यक्रमों में भी ‘मूकमाटी' महाकाव्य को शामिल किये जाने सम्बन्धी प्रक्रिया गतिमान है।
  5. अब द्रव्य का लक्षण कहते हैं- सद् द्रव्यलक्षणम् ॥२९॥ अर्थ - द्रव्य का लक्षण सत् है। अर्थात् जो सत् है, वही द्रव्य है। English - To exist and to remain in existence is the characteristic of the substance.
  6. इस शंका के समाधान के लिए आगे का सूत्र कहते हैं- भेदसाताभ्यां चाक्षुषः ॥२८॥ अर्थ - भेद और संघात दोनों से स्कन्ध चक्षु इन्द्रिय का विषय होता नयापीठ। English - The stock produced by the combined action of division (fission) and union (fusion) can be perceived by the eyes. विशेषार्थ - आशय यह है कि अनन्त परमाणुओं का स्कन्ध होने से ही कोई स्कन्ध चक्षु इन्द्रिय के द्वारा देखने योग्य नहीं हो जाता। किन्तु उनमें भी कोई दिखाई देने योग्य होता है और कोई दिखाई देने योग्य नहीं होता। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न पैदा होता है कि जो स्कन्ध अदृश्य है, वह दृश्य कैसे हो सकता है ? उसके समाधान के लिए एक सूत्र कहा गया है, जो बतलाता है कि केवल भेद से ही कोई स्कन्ध चक्षु इन्द्रिय से देखने योग्य नहीं हो जाता, किन्तु भेद और संघात दोनों से ही होता है। जैसे, एक सूक्ष्म स्कन्ध है। वह टूट जाता है। टूटने से उसके दो टुकड़े हो जाने पर भी वह सूक्ष्म ही बना रहता है और इस तरह वह चक्षु इन्द्रिय के द्वारा नहीं देखा जा सकता। किन्तु जब वह सूक्ष्म स्कन्ध दूसरे स्कन्ध में मिलकर अपने सूक्ष्मपने को छोड़ देता है और स्थूल रूप धारण कर लेता है तो चक्षु इन्द्रिय का विषय होने लगता है - उसे आँख से देखा जा सकता है।
  7. अब अणु की उत्पत्ति बतलाते हैं- भेदादणुः ॥२७॥ अर्थ - अणु की उत्पत्ति स्कन्धों के टूटने से होती है, संघात से नहीं होती। English - The elementary particle is produced only by division (fission)of stock. शंका - जब संघात से ही स्कन्धों की उत्पत्ति होती है तो भेद संघात से स्कन्धों की उत्पत्ति क्यों बतलाई ? इस शंका के समाधान के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-
  8. अब स्कन्धों की उत्पत्ति कैसे होती है, यह बतलाते हैं- भेद-संघातेभ्यः उत्पद्यन्ते ॥२६॥ अर्थ - भेद, संघात और भेद-संघात से स्कन्धों की उत्पत्ति होती है। स्कन्धों के टूटने को भेद कहते हैं। भिन्न-भिन्न परमाणुओं या स्कन्धों के मिलकर एक हो जाने को संघात कहते हैं। English - The stocks are formed by division (fission), union (fusion) and division-cum-union. जैसे दो परमाणुओं के मिलने से द्विप्रदेशी स्कन्ध बनता है। इसी तरह तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणुओं के मेल से उतने ही प्रदेशी स्कन्ध बनता है। तथा एक स्कन्ध में दूसरे स्कन्ध के मिलने से या अन्य परमाणुओं के मिलने से भी स्कन्ध बनता है। इन्हीं स्कन्धों के टूटने से भी दो प्रदेशी स्कन्ध तक स्कन्धों की उत्पत्ति होती है। इसी तरह एक स्कन्ध के टूटकर दूसरे स्कन्ध में मिल जाने से भी स्कन्ध की उत्पत्ति होती है।
  9. अब पुद्गल के भेद कहते हैं- अणवः स्कन्धाश्च ॥२५॥ अर्थ - पुद्गल के दो भेद हैं- अणु और स्कन्ध। जिसका दूसरा भाग नहीं हो सकता, उस अविभागी एक प्रदेशी पुद्गल द्रव्य को अणु या परमाणु कहते हैं। और जो स्थूल हो, जिसे उठा सके, रख सके, वह स्कन्ध है। यद्यपि ऐसे भी स्कन्ध हैं, जो दिखायी नहीं देते। फिर भी वे स्कन्ध ही कहलाते हैं, क्योंकि दो या दो से अधिक परमाणुओं के मेल से जो पुद्गल बनता है, वह स्कन्ध कहा जाता है। English - The elementary particle and the stock (a number of elementary particles under one unified identity) are the two main divisions of matter. विशेषार्थ - पुद्गल बहुत तरह के होते हैं, किन्तु वे सब दो जाति के होते हैं। अतः अणु और स्कन्ध में उन सभी का अन्तर्भाव हो जाता है। ऊपर कहे हुए बीस गुणों में से एक परमाणु में कोई एक रस, एक गन्ध, एक वर्ण और शीत, उष्ण में से एक तथा स्निग्ध, रूक्ष में से एक इस तरह दो स्पर्श रहते हैं। ऊपर जो शब्दादि गिनाये हैं, वे सब स्कन्ध हैं। स्कन्धों में अनेक रस, अनेक रूप वगैरह पाये जाते हैं।
  10. आगे पुद्गल द्रव्य की पर्याय बतलाते हैं- शब्दबन्धसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च ॥२४॥ अर्थ - शब्द, बन्ध, सूक्ष्मपना, स्थूलपना, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप और उद्योत ये सब पुद्गल की ही पर्याय हैं। English - Sound, union, fineness, grossness, shape, division, darkness, image, warm light (sunshine) and cool light (moon-light) also characterize the forms of matter. विशेषार्थ - शब्द दो प्रकार का है - भाषा रूप और अभाषा रूप। भाषा रूप शब्द भी दो प्रकार का है - अक्षर रूप और अनक्षर रूप। मनुष्यों के व्यवहार में आने वाली अनेक बोलियाँ अक्षर रूप भाषात्मक शब्द हैं। और पशु-पक्षियों वगैरह की टें-टें में-में अनक्षर रूप भाषात्मक शब्द हैं। अ-भाषा रूप शब्द दो प्रकार का है-एक जो पुरुष के प्रयत्न से पैदा होता है, उसे प्रायोगिक कहते हैं। और जो बिना पुरुष के प्रयत्न के मेघ आदि की गर्जना से होता है, उसे स्वाभाविक कहते हैं। प्रायोगिक के भी चार भेद हैं चमड़े को मढ़कर ढोल नगारे वगैरह का जो शब्द होता है, वह तत है। सितार वगैरह के शब्द को वितत कहते हैं। घण्टा वगैरह के शब्द को घन कहते हैं। बाँसुरी, शंख वगैरह के शब्द को सुषिर कहते हैं। ये सब शब्द के भेद हैं। बन्ध भी दो प्रकार का है - वैस्रसिक और प्रायोगिक जो बन्ध बिना पुरुष के प्रयत्न के स्वयं होता है, उसे वैस्रसिक कहते हैं। जैसे पुद्गलों के स्निग्ध और रूक्ष गुण के निमित्त से स्वयं ही बादल, बिजली और इन्द्रधनुष वगैरह बन जाते हैं। पुरुष के प्रयत्न से होने वाला बन्ध प्रायोगिक है। उसके भी दो भेद हैं- एक अजीव का बन्ध, जैसे लकड़ी और लाख का बन्ध। दूसरा जीव और अजीव का बन्ध, जैसे आत्मा से कर्म और नोकर्म का बन्ध।सूक्ष्मपना दो प्रकार का है - एक सबसे सूक्ष्म, जैसे परमाणु। दूसरा आपेक्षिक सूक्ष्म, जैसे बेल से सूक्ष्म आँवला और आँवले से सूक्ष्म बेर। स्थूलपना भी दो प्रकार का है - एक सबसे अधिक स्थूल- जैसे समस्त जगत् में व्याप्त महा स्कन्ध। दूसरा आपेक्षिक स्थूल-जैसे बेर से स्थूल आँवला और आँवला से स्थूल बेल। संस्थान यानि आकार भी दो तरह का है-गोल, चौकोर, लम्बा, चौड़ा आदि आकारों को ‘इत्थं लक्षण' कहते हैं- क्योंकि उन्हें कहा जा सकता है। और जिस आकार को कह सकना शक्य न हो, जैसे बादलों में अनेक प्रकार के आकार बनते बिगड़ते रहते हैं, उन्हें ‘अनित्थं लक्षण कहते हैं। भेद छह प्रकार का है-आरा से लकड़ी चीरने पर जो बुरादा निकलता है, उसका नाम उत्कर है। जौ, गेहूँ के आटे को चूर्ण कहते हैं। घड़े के ठिकरों को खण्ड कहते हैं। उड़द, मूंग वगैरह की दाल के छिलकों को चूर्णिका कहते हैं। मेघ वगैरह के पटल का नाम प्रतर है। लोहे को गर्म करके पीटने पर जो फुलिंगे निकलते हैं, उन्हें अणु-चटन कहते हैं। ये सब भेद यानि टुकड़ों के प्रकार हैं। तम अन्धकार का नाम है। छाया दो प्रकार की होती है-एक तो जिस वस्तु की छाया हो, उसका रूप रंग ज्यों का त्यों उसमें आ जाये, जैसे दर्पण में मुख का रूप रंग वगैरह ज्यों का त्यों आ जाता है। दूसरे प्रतिबिम्ब मात्र, जैसे धूप में खड़े होने से छाया मात्र पड़ जाती है। सूर्य के प्रकाश को आतप या घाम कहते हैं। चन्द्रमा वगैरह के शीतल प्रकाश को उद्योत कहते हैं। ये सब पुद्गल की ही पर्यायें हैं।
  11. अब पुद्गलों का लक्षण बतलाते हैं- स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ॥२३॥ अर्थ - जिनमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण पाये जाते हैं, उन्हें पुद्गल कहते हैं। समस्त पुद्गलों में ये चारों गुण अवश्य पाये जाते हैं। English - The forms of matter are characterized by touch, taste, smell, and color. विशेषार्थ - स्पर्श गुण आठ प्रकार का है - स्निग्ध, रूक्ष, शीत, उष्ण, कोमल, कठोर, हल्का, भारी रस पाँच प्रकार का होता है - खट्टा, मीठा, कड़वा, कसैला और चरपरा। गंध दो प्रकार की है - सुगन्ध और दुर्गन्ध। वर्ण पाँच प्रकार का है - काला, नीला, लाल, पीला और सफेद। इस तरह बीस भेद हैं। इन भेदों के भी अवान्तर भेद बहुत हैं। ये सब गुण पुद्गलों में पाये जाते हैं।
  12. अन्त में काल का उपकार बतलाते हैं- वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ॥२२॥ अर्थ - वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल द्रव्य के उपकार हैं। English - The function of time is to assist substances in their continuity of being (through gradual changes), in their modifications, in their actions and in their proximity and non-proximity in time. विशेषार्थ - प्रतिसमय छहों द्रव्यों में जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य होता रहता है। इसी का नाम वर्तना है। यद्यपि सभी द्रव्य अपनी-अपनी पर्याय रूप से प्रतिसमय स्वयं ही परिणमन करते हैं, किन्तु बिना बाह्यनिमित्त के कोई कार्य नहीं होता। और उसमें बाह्य-निमित्त काल है। अतः वर्तनों को काल का उपकार कहा जाता है। अपने स्वभाव को न छोड़कर द्रव्यों की पर्यायों के बदलने को परिणाम कहते हैं। जैसे जीव के परिणाम क्रोधादि हैं और पुद्गल के परिणाम रूप रसादि हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन करने का नाम क्रिया है। यह क्रिया जीव और पुद्गलों में ही पायी जाती है। जो बहुत दिनों का होता है, उसे पर कहते हैं और जो थोड़े दिनों का होता है, उसे अपर कहते हैं। ये सब कालकृत उपकार हैं। यद्यपि परिणाम वगैरह वर्तना के ही भेद हैं, किन्तु काल के दो भेद बतलाने के लिए उन सबका ग्रहण किया है। काल द्रव्य दो प्रकार का है-निश्चय काल और व्यवहार काल। निश्चय काल का लक्षण वर्तना है और व्यवहार काल का लक्षण परिणाम वगैरह है। जीव पुद्गलों में होने वाले परिणमन में ही व्यवहार काल घड़ी, घण्टा वगैरह जाने जाते हैं। उसके तीन भेद हैं भूत, वर्तमान और भविष्य। इस घड़ी, मुहूर्त, दिन, रात, वगैरह में होने वाले काल के व्यवहार से मुख्य निश्चयकाल का अस्तित्व जाना जाता है; क्योंकि मुख्य के होने से ही गौण व्यवहार होता है। अतः लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर जो एक-एक कालाणु स्थित है, वही निश्चय काल है। उसी के निमित्त से वर्तना वगैरह उपकार होते हैं।
  13. अब जीवकृत उपकार बतलाते हैं- परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥२१॥ अर्थ - आपस में एक दूसरे की सहायता करना जीवों का उपकार है। जैसे स्वामी धन वगैरह के द्वारा अपने सेवक का उपकार करता है और सेवक हित की बात कह कर और अहित से बचा कर स्वामी का उपकार करता है। इसी तरह गुरु उचित उपदेश देकर शिष्य का उपकार करता है। और शिष्य गुरु की आज्ञा के अनुसार आचरण करके गुरु का उपकार करता है। English - The function of souls is to help one another. उपकार का प्रकरण होते हुए भी इस सूत्र में जो उपग्रह पद दिया है। वह यह बतलाने के लिए दिया है कि पहले सूत्र में बतलाये गये सुख दु:ख आदि भी जीवकृत उपकार हैं। अर्थात् एक जीव दूसरे जीव को सुख दुःख भी देता है और जीवन मरण में भी सहायक होता है।
  14. पुद्गल द्रव्य का और भी उपकार बतलाते हैं- सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥२०॥ अर्थ - सुख, दुःख, जीवन, मरण भी पुद्गलकृत उपकार हैं। English - The function of matter is also to contribute to sensuous pleasure, suffering, life, and death of living beings. विशेषार्थ - साता वेदनीय के उदय से और बाह्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से आत्मा को जो प्रसन्नता होती है, वह सुख है। और असाता वेदनीय के उदय से जो संक्लेश रूप भाव होता है, वह दुःख है। आयुकर्म के उदय से एक भाव में स्थित जीव के श्वासोच्छ्वास का जारी रहना जीवन है और उसका उच्छेद हो जाना मरण है। ये भी पुद्गल के निमित्त से ही होते हैं, अतः पौगलिक हैं। यहाँ उपकार का प्रकरण होने पर भी सूत्र में जो ‘उपग्रह' पद दिया है, वह यह बतलाने के लिए दिया है कि पुद्गल जीव का ही उपकार नहीं करता, किन्तु पुद्गल पुद्गल का भी उपकार करता है। जैसे राख से कांसे के बर्तन साफ किये जाते हैं या निर्मली डालने से मैला पानी साफ हो जाता है। तथा यहाँ उपकार का मतलब केवल भलाई नहीं लेना चाहिए, बल्कि किसी भी कार्य में सहायक होना उपकार है।
  15. आगे पुद्गल द्रव्य का उपकार बतलाते हैं- शरीरवाङ्-मन: प्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥१९॥ अर्थ - शरीर, वचन, मन और श्वास-उल्लास ये सब पुद्गलों का उपकार है। English - The function of matter is to form the basis of the body and the organs of speech and mind and respiration. विशेषार्थ - हमारा शरीर तो पुद्गलों का बना है, यह बात प्रत्यक्ष ही है। कार्मण शरीर यानि जो कर्मपिण्ड आत्मा से बँधा हुआ है, वह भी पौद्गलिक ही है; क्योंकि मूर्तिक पदार्थों के निमित्त से ही कर्म अपना फल देते हैं। जैसे पैर में काँटा चुभने से असाता कर्म का उदय होता है और मीठे, रुचिकर पदार्थ खाने मिलने से साता कर्म का उदय होता है। अतः मूर्तिक के निमित्त से फलोदय होने के कारण कार्मण शरीर मूर्तिक ही है। वचन दो प्रकार का है-भाव वचन और द्रव्य वचन। वीर्यान्तराय कर्म और मति-श्रुत ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय से आत्मा में जो बोलने की शक्ति होती है, उसे भाव वचन कहते हैं। पुद्गल के निमित्त से होने के कारण यह भी पौद्गलिक है। तथा बोलने की शक्ति से युक्त जीव के कण्ठ, तालु वगैरह के संयोग से जो पुद्गल शब्द-रूप बनते हैं, वह द्रव्यवचन है। वह भी पौलिक ही है; क्योंकि कानों से सुनायी देता है। अन्य मतवाले शब्द को अमूर्तिक मानते हैं, किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि शब्द मूर्तिमान श्रोत्रेन्द्रिय से जाना जाता है, मूर्तिमान वायु के द्वारा एक दिशा से दूसरी दिशा में ले जाया जाता है, शब्द की टक्कर से प्रतिध्वनि होती है, शब्द मूर्तिक के द्वारा रुक जाता है। अतः शब्द मूर्तिक ही है। मन भी दो प्रकार का होता है-भाव मन और द्रव्य मन। गुण-दोष के विचार की शक्ति को भाव मन कहते हैं। वह शक्ति पुद्गल कर्मों के क्षयोपशम से प्राप्त होती है। अतः वह भी पौलिक है। तथा ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से और अंगोपांग नामकर्म के उदय से हृदय स्थान में जो पुद्गल मन रूप से परिणमन करते हैं, उन्हें द्रव्य मन कहते हैं। यह द्रव्य मन तो पुद्गलों से ही बनता है, इसलिए यह भी पौद्गलिक है। अन्दर की वायु को बाहर निकालना उछ्वास या प्राण है। और बाहर की वायु को अन्दर ले जाना निश्वास या अपान है। ये दोनों भी पौद्गलिक हैं, क्योंकि हथेली के द्वारा नाक और मुँह को बन्द कर लेने से श्वांस रुक जाता है। तथा ये आत्मा के उपकारी हैं, क्योंकि श्वास-निश्वास के बिना सशरीरी आत्मा जीवित नहीं रह सकता। इन्हीं से आत्मा का अस्तित्व मालूम होता है; क्योंकि जैसे किसी मशीन को कार्य करती हुई देखकर यह मालूम होता है कि इसका कोई संचालक है, उसी तरह श्वासनिश्वास की क्रिया से आत्मा का अस्तित्व प्रतीत होता है।
  16. क्रमशः आकाश द्रव्य का उपकार बतलाते हैं- आकाशस्यावगाहः ॥१८॥ अर्थ - सब द्रव्यों को अवकाश देना आकाश द्रव्य का उपकार है। English - The function of space is to provide accommodation to all substances. शंका - क्रियावान् जीव और पुद्गल द्रव्य को अवकाश देना तो ठीक है किन्तु धर्मादि द्रव्य तो कहीं आते-जाते नहीं हैं, अनादिकाल से जहाँ के तहाँ स्थित हैं। उनको अवकाश देने की बात उचित प्रतीत नहीं होती ? समाधान - जैसे आकाश चलता नहीं है फिर भी उसे सर्वगत (जो सब जगह जाता है) कहते हैं, क्योंकि वह सर्वत्र पाया जाता है। ऐसे ही धर्म और अधर्म द्रव्य में अवगाह रूप क्रिया यद्यपि नहीं है फिर भी वे समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं इसलिए उपचार से उन्हें अवगाही कह दिया है। यद्यपि जीव और पुद्गलों को ही आकाश मुख्य रूप से अवकाश दान देता है। शंका - यदि अवकाश (स्थान) देना आकाश का स्वभाव है तो एक मूर्तिक द्रव्य का दूसरे मूर्तिक द्रव्य से प्रतिघात नहीं होना चाहिए; क्योंकि आकाश सर्वत्र है। किन्तु देखा जाता है कि मनुष्य दीवार से टकरा कर रुक जाता है ? समाधान - यह दोष ठीक नहीं है, क्योंकि मनुष्य जब दीवार से टकराता है तो वहाँ पुद्गल की पुद्गल से टक्कर होती है, किन्तु इसमें आकाश का क्या दोष है ? जैसे यदि रेलगाड़ी भरी हो और उसमें बैठे हुए यात्री अन्य यात्रियों को न चढ़ने दें तो इसमें रेलगाड़ी का क्या दोष है, वह तो बराबर स्थान दिये हुए हैं। शंका-अलोकाकाश में कोई दूसरा द्रव्य नहीं रहता, अतः वहाँ के आकाश में अवकाश दान देने का स्वभाव नहीं है ? समाधान-यदि वहाँ कोई द्रव्य नहीं रहता तो इससे आकाश अपने स्वभाव को नहीं छोड़ देता। जैसे किसी खाली मकान में यदि कोई नहीं रहता तो इसका यह मतलब नहीं है कि उस मकान में किसी को स्थान देने की शक्ति ही नहीं है। कोई भी द्रव्य अपने स्वभाव को छोड़कर नहीं रह सकता।
  17. अब प्रत्येक द्रव्य का कार्य बतलाते हैं- गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः ॥१७॥ अर्थ - जीव और पुद्गल की गति रूप उपकार धर्म द्रव्य करता है। और स्थिति रूप उपकार अधर्म द्रव्य करता है। English - The functions of the media of motion and rest are to assist motion and rest respectively of the soul and the matter. विशेषार्थ - जीव और पुद्गल द्रव्य एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते आते हैं। यह गमन करने की शक्ति तो जीव और पुद्गलों में ही है। अतः गमन करने में अन्तरंग कारण तो वे स्वयं ही हैं। किन्तु बाह्य सहायक के बिना कोई कार्य नहीं होता। अतः बाह्य सहायक धर्म द्रव्य है। किन्तु यदि कोई जीव या पुद्गल गमन नहीं करता हो तो उसे धर्मद्रव्य चलने की प्रेरणा नहीं करता। जैसे मछली में गमन करने की शक्ति तो स्वयं ही है, परन्तु बाह्य सहायक जल है। किन्तु यदि मछली न चले तो जल उसे जबरन नहीं चलाता है। फिर भी जल के बिना मछली गमन नहीं कर सकती, अतः उसके गमन करने में जल सहायक है। ऐसे ही अधर्म द्रव्य चलते हुए जीव पुद्गलों को ठहरने में सहकारी कारण है। जैसे ग्रीष्म ऋतु में गमन करते हुए पथिकों को ठहरने में वृक्ष की छाया सहायक है। परन्तु वह अधर्मद्रव्य या छाया जबरन किसी को नहीं ठहराता है। शंका - भूमि, जल वगैरह ही गति वगैरह में सहायक देखे जाते हैं, फिर धर्म और अधर्म द्रव्य को मानने की क्या आवश्यकता है ? समाधान - भूमि, जल वगैरह तो किसी-किसी के ही चलने या ठहरने में सहायक हैं। किन्तु धर्म और अधर्म द्रव्य तो सभी जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति में साधारण सहायक हैं। फिर एक कार्य की उत्पत्ति में अनेक कारण भी अवश्य होते हैं। अतः ऊपर की शंका ठीक नहीं है।
  18. सूत्रकार इस शंका के समाधान के लिए सूत्र कहते हैं- प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥१६॥ अर्थ - यद्यपि जीव के प्रदेश लोकाकाश के बराबर हैं फिर भी दीपक की तरह प्रदेशों का संकोच विस्तार होने से जीव लोक के असंख्यातवें भाग आदि में रहता है। English - The space points of a soul can change by contraction and expansion as in the case of a lamp, light expands and fill the space available around it - a small pot or a huge room. विशेषार्थ - यद्यपि आत्मा स्वभाव से अमूर्तिक है फिर भी अनादिकाल से कर्मों के साथ एकमेक होने के कारण कथंचित् मूर्तिक हो रहा है। अतः कर्म के कारण छोटा या बड़ा जैसा शरीर मिलता है, उसके अनुसार ही उसके प्रदेशों का संकोच या फैलाव हो जाता है और वह उस शरीर में व्याप्त होकर रह जाता है। जैसे दीपक छोटे या बड़े जैसे स्थान में रखा जाता है, उसी रूप में उसका प्रकाश या तो फैल जाता है अथवा संकुचित हो जाता है। वैसे ही आत्मा के विषय में भी जानना चाहिए। किन्तु प्रदेशों का संकोच विस्तार होने पर भी प्रदेशों का परिमाण घटता बढ़ता नहीं। हर हालत में प्रदेश लोकाकाश के बराबर ही रहते हैं। शंका - यदि आत्मा के प्रदेशों में संकोच विस्तार होता है तो वे संकुचते संकुचते इतना छोटा क्यों नहीं हो जाते कि आकाश के एक प्रदेश में एक जीव रह सके ? समाधान - आत्मा के प्रदेशों का संकोच या विस्तार शरीर के अनुसार होता है। और सबसे छोटा शरीर सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के होता है, जिसकी अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग है। अतः जीव की अवगाहना इससे कम नहीं होती, कम से कम इतनी ही रहती है। इससे वह लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
  19. एक जीव कितनी जगह रोकता है, वह बतलाते हैं- असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ॥१५॥ अर्थ - लोक के असंख्यातवें भाग आदि में जीवों का अवगाह है। अर्थात् लोकाकाश के असंख्यात भाग करने पर जो एक असंख्यातवाँ भाग होता है, कम से कम उस एक असंख्यातवें भाग में एक जीव रहता है, क्योंकि सबसे जघन्य अवगाहना सूक्ष्म निगोदिया जीव की होती है। सो वह जीव लोक के असंख्यातवें भाग स्थान को रोकता है। यदि जीव की अवगाहना बड़ी होती है तो वह लोक के दो, तीन, चार आदि असंख्यातवें भागों में रहता है, यहाँ तक कि सर्वलोक तक में व्याप्त हो जाता है। English - The Soul inhabits from one to innumerable space points in the universe-space. शंका - यदि लोक के एक असंख्यातवें भाग में एक जीव रहता है, तो अनन्तानन्त जीवराशि लोकाकाश में कैसे रह सकती है ? समाधान - जीव दो प्रकार के होते हैं - सूक्ष्म और बादर जिनका शरीर स्थूल होता है, उन्हें बादर कहते हैं। बादर जीव एक जगह बहुत से नहीं रह सकते। किन्तु सूक्ष्म शरीर वाले जीव सूक्ष्म होने से जितनी जगह में एक निगोदिया जीव रहता है। उतनी जगह में साधारण काय के रूप में अनन्तानन्त रह सकते हैं, क्योंकि वे न तो किसी से रुकते हैं और न किसी को रोकते हैं। अतः कोई विरोध नहीं होता। शंका - एक जीव को लोकाकाश के बराबर प्रदेश वाला बतलाया है। ऐसा जीव लोकाकाश के असंख्यातवें भाग में कैसे रह सकता है ? उसे तो समस्त लोक में व्याप्त होकर ही रहना चाहिए ? सूत्रकार इस शंका के समाधान के लिए सूत्र कहते हैं-
  20. अब पुद्गल द्रव्य की अवगाहना बताते हैं- एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥१४॥ अर्थ - पुद्गलों का अवगाह लोकाकाश के एक प्रदेश से लगाकर असंख्यात प्रदेशों में है। अर्थात् एक परमाणु आकाश के एक प्रदेश में रहता है। दो परमाणु यदि जुदे-जुदे होते हैं तो दो प्रदेशों में रहते हैं और यदि परस्पर में बँधे हों तो एक प्रदेश में रहते हैं। इसी तरह संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणु के स्कन्ध लोकाकाश के एक प्रदेश में, अथवा संख्यात या असंख्यात प्रदेशों में रहते हैं। जैसा स्कन्ध होता है, उसी के अनुसार स्थान में वह रहता है। English - The matter occupy (inhabit) space from one to innumerable space points. शंका - धर्म, अधर्म द्रव्य तो अमूर्तिक हैं, अतः वे एक जगह बिना किसी बाधा के रह सकते हैं। किन्तु पुद्गल द्रव्य तो मूर्तिक है, अतः एक प्रदेश में अनेक मूर्तिक पुद्गल कैसे रह सकते हैं ? समाधान - जैसे प्रकाश मूर्तिक है फिर भी एक घर में अनेक दीपकों का प्रकाश रह जाता है, वैसे ही सूक्ष्म परिणमन होने से लोकाकाश के एक प्रदेश में बहुत से पुद्गल परमाणु रह सकते हैं।
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