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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 5 : सूत्र 22

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    Vidyasagar.Guru

    अन्त में काल का उपकार बतलाते हैं-

     

    वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ॥२२॥

     

     

    अर्थ - वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल द्रव्य के उपकार हैं।

     

    English - The function of time is to assist substances in their continuity of being (through gradual changes), in their modifications, in their actions and in their proximity and non-proximity in time.

     

    विशेषार्थ - प्रतिसमय छहों द्रव्यों में जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य होता रहता है। इसी का नाम वर्तना है। यद्यपि सभी द्रव्य अपनी-अपनी पर्याय रूप से प्रतिसमय स्वयं ही परिणमन करते हैं, किन्तु बिना बाह्यनिमित्त के कोई कार्य नहीं होता। और उसमें बाह्य-निमित्त काल है। अतः वर्तनों को काल का उपकार कहा जाता है। अपने स्वभाव को न छोड़कर द्रव्यों की पर्यायों के बदलने को परिणाम कहते हैं। जैसे जीव के परिणाम क्रोधादि हैं और पुद्गल के परिणाम रूप रसादि हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन करने का नाम क्रिया है। यह क्रिया जीव और पुद्गलों में ही पायी जाती है। जो बहुत दिनों का होता है, उसे पर कहते हैं और जो थोड़े दिनों का होता है, उसे अपर कहते हैं। ये सब कालकृत उपकार हैं। यद्यपि परिणाम वगैरह वर्तना के ही भेद हैं, किन्तु काल के दो भेद बतलाने के लिए उन सबका ग्रहण किया है।

     

    काल द्रव्य दो प्रकार का है-निश्चय काल और व्यवहार काल। निश्चय काल का लक्षण वर्तना है और व्यवहार काल का लक्षण परिणाम वगैरह है। जीव पुद्गलों में होने वाले परिणमन में ही व्यवहार काल घड़ी, घण्टा वगैरह जाने जाते हैं। उसके तीन भेद हैं भूत, वर्तमान और भविष्य। इस घड़ी, मुहूर्त, दिन, रात, वगैरह में होने वाले काल के व्यवहार से मुख्य निश्चयकाल का अस्तित्व जाना जाता है; क्योंकि मुख्य के होने से ही गौण व्यवहार होता है। अतः लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर जो एक-एक कालाणु स्थित है, वही निश्चय काल है। उसी के निमित्त से वर्तना वगैरह उपकार होते हैं।


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