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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 5 : सूत्र 15

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    Vidyasagar.Guru

    एक जीव कितनी जगह रोकता है, वह बतलाते हैं-

     

    असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ॥१५॥

     

     

    अर्थ - लोक के असंख्यातवें भाग आदि में जीवों का अवगाह है। अर्थात् लोकाकाश के असंख्यात भाग करने पर जो एक असंख्यातवाँ भाग होता है, कम से कम उस एक असंख्यातवें भाग में एक जीव रहता है, क्योंकि सबसे जघन्य अवगाहना सूक्ष्म निगोदिया जीव की होती है। सो वह जीव लोक के असंख्यातवें भाग स्थान को रोकता है। यदि जीव की अवगाहना बड़ी होती है तो वह लोक के दो, तीन, चार आदि असंख्यातवें भागों में रहता है, यहाँ तक कि सर्वलोक तक में व्याप्त हो जाता है।

     

    English  - The Soul inhabits from one to innumerable space points in the universe-space.

     

    शंका - यदि लोक के एक असंख्यातवें भाग में एक जीव रहता है, तो अनन्तानन्त जीवराशि लोकाकाश में कैसे रह सकती है ?

    समाधान - जीव दो प्रकार के होते हैं - सूक्ष्म और बादर जिनका शरीर स्थूल होता है, उन्हें बादर कहते हैं। बादर जीव एक जगह बहुत से नहीं रह सकते। किन्तु सूक्ष्म शरीर वाले जीव सूक्ष्म होने से जितनी जगह में एक निगोदिया जीव रहता है। उतनी जगह में साधारण काय के रूप में अनन्तानन्त रह सकते हैं, क्योंकि वे न तो किसी से रुकते हैं और न किसी को रोकते हैं। अतः कोई विरोध नहीं होता।

     

    शंका - एक जीव को लोकाकाश के बराबर प्रदेश वाला बतलाया है। ऐसा जीव लोकाकाश के असंख्यातवें भाग में कैसे रह सकता है ? उसे तो समस्त लोक में व्याप्त होकर ही रहना चाहिए ?

     

    सूत्रकार इस शंका के समाधान के लिए सूत्र कहते हैं-


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