अब सत् का लक्षण कहते हैं-
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् ॥३०॥
अर्थ - जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है, वही सत् है।
English - Existence of a substance is characterized by origination (production), disappearance (destruction) and permanence.
विशेषार्थ - अपनी जाति को न छोड़कर चेतन या अचेतन द्रव्य में नई पर्याय के होने को उत्पाद कहते हैं। जैसे मिट्टी के पिण्ड में घट पर्याय होती है। पहली पर्याय के नष्ट होने को व्यय कहते हैं। जैसे-घट पर्याय के उत्पन्न होने पर मिट्टी का पिण्ड रूप आकार नष्ट हो जाता है। तथा पूर्वपर्याय का नाश और नई पर्याय का उत्पाद होने पर भी अपने अनादि स्वभाव को न छोड़ना ध्रौव्य है। जैसे पिण्ड आकार के नष्ट हो जाने पर और घट पर्याय के उत्पन्न होने पर भी मिट्टी कायम रहती है। प्रत्येक द्रव्य में ये तीनों धर्म एक साथ पाये जाते हैं, क्योंकि नई पर्याय का उत्पन्न होना ही पहली पर्याय का नाश है और पहली पर्याय का नाश होना ही नई पर्याय का उत्पाद है। तथा उत्पाद होने पर भी द्रव्य वही रहता है। और व्यय होने पर भी द्रव्य वही रहता है। जैसे कुम्हार मिट्टी का लौंदा लेकर और उसको चाक पर रख कर जब घुमाता है तो क्षणक्षण में उस मिट्टी की पहली पहली हालत बदलकर नई नई हालत होती जाती है और मिट्टी की मिट्टी बनी रहती है। ऐसा नहीं है जो मिट्टी की नई हालत तो हो जाये और पहली हालत न बदले। या पहली हालत नष्ट हो जाये और नई हालत पैदा न हो। अथवा इन हालतों के अदलने बदलने से द्रव्य भी और का और हो जाये। यदि केवल उत्पाद को ही माना जाये और व्यय तथा ध्रौव्य को न माना जाये तो नई वस्तु का उत्पन्न होना ही शेष रहा। ऐसी स्थिति में बिना मिट्टी के ही घट बन जायेगा। तथा यदि वस्तु का विनाश ही माना जाय और उत्पाद तथा ध्रौव्य को न माना जाये तो घड़े के फूट जाने पर ठीकरे या मिट्टी कुछ भी शेष न रहेंगे।
इसी तरह यदि केवल ध्रौव्य को ही माना जाये और उत्पाद व्यय को न माना जाये तो जो वस्तु जिस हालत में है वह उसी हालत में बनी रहेगी और उसमें किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं हो सकेगा। किन्तु ये सभी बातें प्रत्यक्ष विरुद्ध हैं। प्रत्यक्ष-देखा जाता है कि प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है-उसमें प्रतिसमय रद्दोबदल होती है। फिर भी जो सत् है। उसका सर्वथा विनाश नहीं होता और जो सर्वथा असत् है उसका उत्पाद नहीं होता। तथा परिवर्तन के होते हुए भी वस्तु का मूल-स्वभाव अपरिवर्तित रहता है-जड़ चेतन नहीं हो जाता और न चेतन जड़ हो जाता है। अतः जो सत् है वह उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य स्वरूप ही है। उसे ही द्रव्य कहते हैं।