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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. कौन द्रव्य कितने लोकाकाश में रहता है? यह बतलाते हैं- धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥१३॥ अर्थ - धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य समस्त लोकाकाश में व्याप्त है। अर्थात् जैसे मकान के एक कोने में घड़ा रखा रहता है। उस तरह से धर्म अधर्म द्रव्य लोकाकाश में नहीं रहते। किन्तु जैसे तिलों में सर्वत्र तेल पाया जाता है, वैसे ही दोनों द्रव्य समस्त लोकाकाश में पाये जाते हैं। English -The media of motion and rest pervade the entire universe-space and both coexist without interference.
  2. धर्मादिक द्रव्य कहाँ रहते हैं, सो बतलाते हैं- लोकाकाशेऽवगाहः ॥१२॥ अर्थ - धर्म आदि द्रव्य लोकाकाश में रहते हैं। आशय यह है कि आकाश तो सर्वत्र है। उसके बीच के जितने भाग में धर्म आदि छहों द्रव्य पाये जाते हैं, उतने भाग को लोकाकाश कहते हैं। और उसके बाहर सब ओर जो आकाश है, उसे अलोकाकाश कहते हैं। धर्मादि द्रव्य लोकाकाश में ही पाये जाते हैं, बाहर नहीं। English - These substances_the media of motion and rest, the time, the souls and the matter are located in the space of the universe. The space outside the universe has no substance other than space. शंका - यदि धर्मादि द्रव्यों का आधार लोकाकाश है, तो आकाश का आधार क्या है ? समाधान - आकाश का आधार अन्य कोई नहीं है, वह अपने ही आधार है। शंका - यदि आकाश अपने आधार है तो धर्मादि द्रव्यों को भी अपने ही आधार होना चाहिए। और यदि धर्मादि द्रव्यों का आधार कोई अन्य द्रव्य है तो आकाश का भी दूसरा आधार होना चाहिए ? समाधान - आकाश से बड़ा कोई द्रव्य नहीं है, जिसके आधार आकाश रह सके। आकाश तो सब ओर अनन्त है-उसका कहीं अन्त ही नहीं है। तथा निश्चयनय से सभी द्रव्य अपने आधार हैं-कोई द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य के आधार नहीं है। किन्तु व्यवहारनय से धर्मादि द्रव्यों का आधार आकाश को कहा जाता है, क्योंकि धर्मादि द्रव्य लोकाकाश से बाहर नहीं पाये जाते। शंका - लोक में जो पूर्वोत्तरकाल-भावी होते हैं, उन्हीं में आधारआधेयपना देखा जाता है। जैसे मकान पहले बन जाता है तो पीछे उसमें मनुष्य आकर बसते हैं। किन्तु इस तरह आकाश पहले से है और धर्मादि द्रव्य उसमें बाद को आये हैं, ऐसी बात तो आप मानते नहीं। ऐसी स्थिति में व्यवहारनय से भी आधार-आधेयपना नहीं बन सकता ? समाधान - आपकी आपत्ति ठीक नहीं है। जो एक साथ होते हैं, उनमें भी आधार-आधेयपना देखा जाता है। जैसे शरीर और हाथ एक साथ ही बनते हैं फिर भी ‘शरीर में हाथ है' ऐसा कहा जाता है। इसी तरह यद्यपि सभी द्रव्य अनादि हैं फिर भी ‘आकाश में धर्मादि द्रव्य हैं' ऐसा व्यवहार होने में कोई दोष नहीं है।
  3. परमाणु के प्रदेशों के विषय में कहते हैं- नाणोः ॥११॥ अर्थ - परमाणु के प्रदेश नहीं होते; क्योंकि परमाणु एक प्रदेशी ही है। जैसे आकाश के एक प्रदेश के और विभाग न हो सकने से वह अप्रदेशी है, वैसे ही परमाणु भी एक प्रदेशी ही है, अतः उसके दो तीन आदि प्रदेश नहीं होते। तथा पुद्गल के सबसे छोटे अंश को जिसका दूसरा विभाग नहीं हो सकता, परमाणु कहते हैं। अतः परमाणु से छोटा यदि कोई द्रव्य होता तो उसके प्रदेश हो सकते थे किंतु उससे छोटा कोई द्रव्य है नहीं। इससे परमाणु एक प्रदेशी ही है। English - The elementary unit of matter is extremely small compared to an atom (in today's science) and is indivisible and occupies one space point.
  4. पुद्गलों के भी प्रदेश बतलाते हैं- संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥१०॥ अर्थ - यहाँ 'च' शब्द से अनन्त लेना चाहिए। English - The matter has numberable, innumerable and infinite space points. अतः किसी पुद्गलद्रव्य के संख्यात प्रदेश हैं, किसी के असंख्यात हैं और किसी के अनन्त हैं। आशय यह है कि शुद्ध पुद्गल द्रव्य तो एक अविभागी परमाणु है। किन्तु परमाणुओं में बँधने और बिछुड़ने की शक्ति है। अतः परमाणु के मेल से स्कन्ध बनता है। सो कोई स्कन्ध तो दो परमाणुओं के मेल से बनता है, कोई तीन के, कोई चार के, कोई संख्यात के, कोई असंख्यात के और कोई अनन्त परमाणुओं के मेल से बनता है। अतः कोई संख्यात प्रदेशी होता है, कोई असंख्यात प्रदेशी होता है और कोई अनन्त प्रदेशी होता है। शंका - लोक तो असंख्यात प्रदेशी है, उसमें अनंत प्रदेशी पुद्गल द्रव्य कैसे रह सकता है ? समाधान - एक ओर तो पुद्गलों में सूक्ष्मरूप परिणमन करने की शक्ति है, दूसरी ओर आकाश में अवगाहन शक्ति है। अतः सूक्ष्मरूप पुद्गल एक-एक आकाश के प्रदेश में बहुत से रह सकते हैं। फिर ऐसा कोई नियम नहीं है कि छोटे से आधार में बड़ा द्रव्य नहीं रह सकता। देखो, चम्पा के फूल की कली छोटी सी होती है। जब वह खिलती है तो उसकी गन्ध सब ओर फैल जाती है, अतः लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों में अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्य रह सकते हैं।
  5. आगे आकाश के प्रदेश बतलाते हैं- आकाशस्यानन्ताः ॥९॥ अर्थ - आकाश द्रव्य के अनन्त प्रदेश हैं। अर्थात् यद्यपि आकाश एक अखण्ड द्रव्य है, किन्तु यदि उसे परमाणु के द्वारा मापा जाये तो वह अनन्त परमाणुओं के फैलाव के बराबर होता है। इससे उसे अनन्त प्रदेशी कहा है। English - The space points in the space are infinite, but are innumerable in the universe.
  6. अजीव कायाः सूत्र में 'काय' पद होने से यह तो ज्ञात हो गया कि उक्त द्रव्य बहु प्रदेशी हैं। किन्तु किसके कितने प्रदेश हैं, यह ज्ञात नहीं हुआ। उसके बतलाने के लिए सूत्र कहते हैं- असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मेकजीवानाम् ॥८॥ अर्थ - धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और एक जीव द्रव्य, इनमें से प्रत्येक के असंख्यात, असंख्यात प्रदेश होते हैं। English - There are innumerable space points in the medium of motion, the medium of rest and in each individual soul. One space point is the space occupied by one elementary particle of matter. विशेषार्थ - जितने आकाश को पुद्गल का एक परमाणु रोकता है, उतने क्षेत्र को प्रदेश कहते हैं। धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य तो निष्क्रिय हैं। और समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। अतः लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों में व्याप्त होने से वे दोनों असंख्यात, असंख्यात प्रदेशी हैं। जीव भी उतने ही प्रदेशी है किन्तु उसका स्वभाव संकुचने और फैलने का है। अतः नामकर्म के द्वारा उसे जैसा छोटा या बड़ा शरीर मिलता है, उतने में ही फैलकर रह जाता है। किन्तु जब केवलज्ञानी होकर वह लोकपूरण समुद्धात करता है, तब वह भी धर्म, अधर्म द्रव्य की तरह समस्त लोकाकाश में व्याप्त हो जाता है। अतः वह भी असंख्यात प्रदेशी है।
  7. क्रमशः इन एक-एक द्रव्यों के विषय में और अधिक कहते हैं- निष्क्रियाणि च ॥७॥ अर्थ - धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य क्रिया रहित हैं, इनमें हलन चलन रूप क्रिया नहीं होती। अतः ये तीनों द्रव्य निष्क्रिय हैं। English - These three (the medium of motion, the medium of rest and space) are also without activity (movement) since these are spread in the whole universe. शंका - जैनसिद्धान्त में माना है कि प्रत्येक द्रव्य में प्रतिसमय उत्पाद, व्यय हुआ करता है। किन्तु यदि धर्म आदि निष्क्रिय हैं, तो उनमें उत्पाद नहीं हो सकता, क्योंकि कुम्हार मिट्टी को चाक पर रखकर जब घुमाता है, तभी घड़े की उत्पत्ति होती है। अतः बिना क्रिया के उत्पाद नहीं हो सकता। और जब उत्पाद नहीं होगा तो व्यय (विनाश)भी नहीं होगा ? समाधान - धर्म आदि निष्क्रिय द्रव्यों में क्रियापूर्वक उत्पाद नहीं होता किन्तु दूसरे प्रकार से उत्पाद होता है। उत्पाद दो प्रकार का माना है एक स्वनिमित्तक, दूसरा पर-निमित्तक। जैन-आगम में अगुरुलघु नाम के अनन्त गुण माने गये हैं, जो प्रत्येक द्रव्य में रहते हैं। उन गुणों में छह प्रकार की हानि या वृद्धि सदा होती रहती है। उसके निमित्त से द्रव्यों में स्वभाव से ही सदा उत्पाद-व्यय हुआ करता है। यह स्व-निमित्तक उत्पाद-व्यय है। तथा धर्मादि द्रव्य प्रतिसमय अश्व आदि अनेक जीवों और पुद्गलों के गमन में, ठहरने में और अवकाशदान में निमित्त होते हैं, प्रतिक्षण गति वगैरह में परिवर्तन होता रहता है, अतः उनके निमित्त से धर्मादि द्रव्यों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है। यह परनिमित्तक उत्पाद व्यय है। शंका - धर्मादि द्रव्य स्वयं नहीं चलते तो वे दूसरों को चलाते कैसे हैं ? देखा जाता है कि जल वगैरह जब स्वयं बहते हैं, तभी मछलियों वगैरह को चलने में सहायक होते हैं ? समाधान - यह आपत्ति उचित नहीं है। जैसे चक्षु रूप के देखने में सहायक है, किन्तु यदि मनुष्य का मन दूसरी ओर लगा हो तो चक्षु रूप को देखने का आग्रह नहीं करती। इसी तरह धर्मादि द्रव्य भी चलने में उदासीन निमित्त हैं, प्रेरक नहीं हैं।
  8. आगे बतलाते हैं कि जैसे जीव द्रव्य बहुत हैं, पुद्गल द्रव्य भी बहुत हैं, वैसे धर्मादि द्रव्य बहुत नहीं हैं - आ आकाशादेकद्रव्याणि ॥६॥ अर्थ - धर्म, अधर्म और आकाश एक-एक द्रव्य हैं। English - The medium of motion, the medium of rest and space each is a single continuous extension with regard to substances, but with regard to place, time and thought, each substance is innumerable and infinite. विशेषार्थ - इन तीनों द्रव्यों को एक-एक बतलाने से यह स्पष्ट है। कि बाकी के द्रव्य अनेक हैं। जैनसिद्धान्त में बतलाया है कि जीव द्रव्य अनन्तानन्त हैं क्योंकि प्रत्येक जीव एक स्वतंत्र द्रव्य है। जीवों से अनन्त गुणे पुद्गल द्रव्य हैं, क्योंकि एक-एक जीव के उपभोग में अनन्त पुद्गल द्रव्य हैं। काल द्रव्य असंख्यात हैं; क्योंकि लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं और एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित रहता है। तथा धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक हैं ॥६॥
  9. सब द्रव्यों को अरूपी कहने से पुद्गल भी अरूपी ठहरता। अतः उसके निषेध के लिए सूत्र कहते हैं- रूपिणः पुद्गलाः ॥५॥ अर्थ - पुद्गल द्रव्य रूपी हैं। English - The matter has taste, smell, color, and touch and, therefore, have formed. विशेषार्थ - यहाँ रूपी कहने से रूप के साथ-साथ रहने वाले स्पर्श, रस, गंध को भी लेना चाहिए, क्योंकि ये चारों गुण साथ ही रहते हैं। ‘पुद्गलाः' शब्द बहुवचन है, सो यह बतलाता है कि पुद्गल द्रव्य भी बहुत है |
  10. अब इन द्रव्यों के बारे में विशेष कथन करते हैं- नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥४॥ अर्थ - ये ऊपर कहे द्रव्य नित्य हैं, अवस्थित हैं और अरूपी हैं। English - These six substances are eternal, non-destructible, fixed in number (i.e. six) and, except for matter, are formless. विशेषार्थ - प्रत्येक द्रव्य में दो प्रकार के गुण पाये जाते हैं - विशेष और सामान्य। जैसे धर्म द्रव्य का विशेष गुण तो गति में सहायक होना है। और सामान्य गुण अस्तित्व है। इसी तरह सब द्रव्यों में सामान्य और विशेष गुण पाये जाते हैं। कभी भी द्रव्यों के इन गुणों का नाश नहीं होता। जिस द्रव्य का जो स्वभाव है, वह स्वभाव सदा रहता है। अतः सभी द्रव्य नित्य हैं। तथा इनकी संख्या भी निश्चित है। न तो ये छह से बढ़कर सात होते हैं और न कभी छह से घटकर पाँच होते हैं, सदा छह के छह ही रहते हैं। इससे इन्हें अवस्थित कहा है। तथा (पुद्गल को छोड़कर) इनमें रूप, रस, वगैरह नहीं पाया जाता। इसलिए ये अरूपी अर्थात् अमूर्तिक हैं।
  11. क्या जीव भी द्रव्य है? जीवाश्च ॥३॥ अर्थ - जीव भी द्रव्य है। यहाँ ‘जीवाः' बहुवचन दिया है। अतः जीव द्रव्य बहुत से हैं, ऐसा समझना। English - The souls are the living things and are also substances. Thus there are six sustances the living things (souls), the matter, the medium of motion, the medium of rest, space and the time.
  12. अब इनकी संज्ञा बतलाते हैं- द्रव्याणि ॥२॥ अर्थ - ये धर्म, अधर्म आदि द्रव्य हैं। जो त्रिकालवर्ती अपनी पर्यायों को प्राप्त करता है, उसे द्रव्य कहते हैं, द्रव्य का लक्षण सूत्रकार ने आगे स्वयं कहा है। English - These (four) are substan-ces (drayas).
  13. सम्यग्दर्शन के विषयभूत जीव आदि सात तत्त्वों में से जीव तत्त्व का कथन हो चुका। इस अध्याय में अजीव तत्त्व का कथन है। अतः अजीव के भेद गिनाते है | अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥१॥ अर्थ - धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये चार अजीव हैं और काय हैं। English - The non-living substances (bodies) are the medium of motion, the medium of rest, space and matter. विशेषार्थ - वैसे द्रव्य तो छह हैं। उनमें पाँच द्रव्य अजीव हैं। केवल एक द्रव्य जीव है तथा छह द्रव्यों में पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं और एक काल द्रव्य अस्तिकाय नहीं है। अतः जीव द्रव्य कायरूप है, किंतु अजीव नहीं है और काल द्रव्य अजीव है, किंतु कायरूप नहीं है। इसलिए जीव और काल के सिवा शेष चार द्रव्य ही ऐसे हैं, जो अजीव भी हैं और काय भी हैं। जिस द्रव्य में चैतन्य नहीं पाया जाता, उसे अजीव कहते हैं। और जो बहुप्रदेशी होता है, उसे काय कहते हैं। ऐसे द्रव्य चार ही हैं- धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल। गमन करते हुए जीव और पुद्गलों को जो गमन में सहायक होता है, उसे धर्म द्रव्य कहते हैं। ठहरते हुए जीव और पुद्गलों को जो ठहराने में सहायक होता है, उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं। समस्त द्रव्यों को अवकाश देने में सहायक द्रव्य को आकाश कहते हैं। और जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श गुण पाये जाते हैं, उसे पुद्गल द्रव्य कहते हैं।
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