इसके समाधान के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-
अर्पितानर्पितसिद्धेः ॥३२॥
अर्थ - मुख्य को अर्पित कहते हैं और गौण को अनर्पित कहते हैं। मुख्यता और गौणता से ही अनेक धर्म वाली वस्तु का कथन सिद्ध होता है।
English - The contradictory characteristics of a substance are established from different points of view.
विशेषार्थ - वस्तु में अनेक धर्म हैं। उन अनेक धर्मों में से वक्ता का प्रयोजन जिस धर्म से होता है, वह धर्म मुख्य हो जाता है। और प्रयोजन न होने से बाकी के धर्म गौण हो जाते हैं। किन्तु किसी एक धर्म की प्रधानता से कथन करने का यह मतलब नहीं लेना चाहिए कि वस्तु में अन्य धर्म हैं। ही नहीं। अत: किसी धर्म की प्रधानता और किसी धर्म की अप्रधानता से ही वस्तु की सिद्धि होती है। जैसे, एक देवदत्त नाम के पुरुष में पिता, पुत्र, भाई, जमाई, मामा, भानजा आदि अनेक सम्बन्ध भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से पाये जाते हैं। पुत्र की अपेक्षा वह पिता है। पिता की अपेक्षा पुत्र है। भाई की अपेक्षा भाई है। श्वसुर की अपेक्षा जमाई है। भानजे की अपेक्षा मामा है। और मामा की अपेक्षा भानजा है। इसमें कोई भी विरोध नहीं है। इसी तरह वस्तु सामान्य की अपेक्षा नित्य है और विशेष की अपेक्षा अनित्य है। जैसे घट, घटपर्याय की अपेक्षा अनित्य है, क्योंकि घड़े के फूट जाने पर घटपर्याय नष्ट हो जाती है। और मिट्टी की अपेक्षा नित्य है; क्योंकि घड़े के फूट जाने पर भी मिट्टी कायम रहती है। इसी तरह सभी वस्तुओं के विषय में समझ लेना चाहिए।
ऊपर यह बतलाया है कि स्कन्धों की उत्पत्ति भेद, संघात और भेद-संघात से होती है। इसमें यह शंका होती है कि दो परमाणुओं का संयोग हो जाने से ही क्या स्कन्ध बन जाता है? इसका उत्तर यह है कि दो परमाणुओं का संयोग हो जाने पर भी जब तक उनमें रसायनिक प्रक्रिया के द्वारा बन्ध नहीं होता, जो दोनों को एकरूप कर दे, तब तक स्कन्ध नहीं बन सकता। इस पर पुनः यह शंका होती है। कि अनेक पुद्गलों का संयोग होता देखा जाता है, परन्तु उनमें किन्हीं का परस्पर में बन्ध होता है और किन्हीं का बन्ध नहीं होता, इसका क्या कारण है ? इसके समाधान के लिए आगे का कथन करते हैं-